वेलायत-ओ-बराअत

येह एक दिलचस्प ह़क़ीक़त है कि किसी भी मौज़ूअ़्‌ में अज़्दादतनाक़ुज़ात को बाहम यक्साँ मक़ाम देकर मुस्बत पह्लू से लेबासे ह़क़ीक़त नहीं पहनाया जा सकता ख़ाह वोह किसी शक्ल में हो जैसे अ़द्‌लज़ुल्म, ख़ैरशर…. इस्लाम ने एक ही को ह़क़ीक़त का उ़न्वान देकर अहम्मीयत दी है अ़द्‌ल पसन्दीदा है, ज़ुल्म नापसन्दीदा, ख़ैर मम्दूह़ है शर ग़ैरे मम्दूह़…. मगर मोह़ब्बतनफ़रत येह वोह उ़न्वान है जो इस्लामी अ़क़ाएदतअ़्‌लीमात और मआ़रिफ़ में अल्फ़ाज़ और मआ़नी दोनों ही शक्ल में यक्साँ और बराबर मक़ाममन्ज़ेलत रखता है। येह इस्लाम का मुसल्लमा उसूल है और इस्लामी अ़क़ाएद का अस्ल रुक्नसुतून है जिसके बग़ैर न कोई आदमी मुसलमान बन सकता है न कोई मुसलमान मोअ्‌मिन हो सकता है। अ़क़ीदए तौह़ीद इस्लामी अ़क़ीदे का सबसे अहम और पहला अ़क़ीदा है इसमें भी अगर “ला एलाह” की शक्ल में नफ़रतबराअत है तो “इल्लल्लाह” के उ़न्वान में मोह़ब्बतवेलायत भी जाएगुज़ीन है।

अगर अ़क़ीदए नबूवत में हर उ़न्वान का इन्कार और सिर्फ़ अल्लाह का रसूल होना, नबी होना क़रार दिया गया है ख़ाह वोह“रसूलुल्लाह” की शक्ल में हो या “व मा मोह़म्मदुन इल्ला रसूल” की शक्ल में हो उसमें भी नबी को अल्लाह का नबी तस्लीम करने के साथ साथ किसी झूठे मुद्दई़ये नबूवत की मोह़ब्बत तो दूर की बात है उसको रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम होने के अ़लावा उसे किसी और रिश्ते के उ़न्वान से एख़्तेयार कर लेना भी अल्लाह तआ़ला को पसन्द नहीं है।

इसी तरह़ अज्रे रेसालत के मुतालबे में क़ुरआन करीम ने “इल्लल्मवद्दता” कह कर सिवाए आले मोह़म्मद अ़लैहिमुस्सलाम की मोह़ब्बतमवद्दत के किसी और की मोह़ब्बत को पसन्द नहीं किया है…. येह दोनों मुसल्लमा उसूल एक दूसरे की निस्बत लाज़िममल्ज़ूम की ह़ैसियत रखते हैं अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम से अ़क़ीदए मोह़ब्बतवेलायत दीनदारी की अस्ल रुक्न है तो दुश्मने ख़ुदारसूल और आले रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम से बराअत के बग़ैर मोह़ब्बतवेलायत भी नामुकम्मल है। वेलायतबराअत बारगाहे अह़्दीयत में परवाज़ के दो पर हैं जो क़ुर्बत की मन्जिलों तक पहुँचाते हैं।

वेलायत यअ़्‌नी अल्लाहरसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम और अह्लेबैते ताहेरीन अ़लैहिमुस्सलाम से मोह़ब्बत के साथ उन्हें अपना ह़ाकिमवली और औला बित्तसर्रुफ़ तस्लीम करते हुए उनके तमाम फ़रमान पर ईमान और इख़्लास के साथ अ़मल करना, और बराअत यअ़्‌नी ख़ुदा और रसूल और अइम्मए ताहेरीन अ़लैहिमुस्सलाम के दुश्मनों से अ़दमे वाबस्तगी और ज़बान से अलग और जुदा होने का इज़्हार और अ़मली तौर से उनके दीनआईन और राहरस्म से दूरी और बेज़ारी एख़्तेयार करना है।

अ़क़ीदए वेलायतबराअत की अहम्मीयतमन्ज़ेलत किसी साह़ेबे बसीरत और अह्ले इ़ल्मदानिश से पोशीदा नहीं है और न उसे कोई नज़र अन्दाज़ कर सकता है। इस्लामी मआख़िज़मनाबेअ़्‌ और अइम्मए ताहेरीन अ़लैहिमुस्सलाम की पाकीज़ा रवायतों में इसका बहुत तफ़्सील से तज़्केरा आया है। येह दोनों वज़ीफ़े (तवल्लातबर्रा) बन्दए सालेह़, मुत्तक़ी और ह़क़ीक़ी मोअ्‌मिन की रूह़ हैं जिसके बग़ैर नेक अ़मल और तक़्वाईमान की कोई क़द्र नहीं है, क्योंकि इसका बराहे रास्त तअ़ल्लुक़ ख़ुदाए तआ़ला और उसकी ख़ुशनूदी और उसके ह़ुक्म की तअ़्‌मील से है, येह अ़मल ज़ाती तस्कीने क़ल्ब या किसी से अ़दावत और दुश्मनी पर उस्तवार नहीं है। हम जिस ह़ैसीयत से नमाज़, रोज़ा, ह़ज के वज़ीफ़े को अन्जाम देते हैं ग़र्ज़े कि ह़ुक्मे ख़ुदा की बजाआवरी, ख़ुशनूदिए ख़ुदा और तक़र्रुबे परवरदिगार के सिवा कुछ नहीं होता इसी तरह़ अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम से मोह़ब्बत उनके दुश्मनों से बराअत की बुनियाद अमे्र परवरदिगार की एताअ़त और तक़र्रुबे ख़ुदा मक़सद होता है। जिसके बअ़्‌द अज्रसवाब और बेहतरीन जज़ाइन्आ़म की उम्मीद क़ाएम हो जाती है।

इमाम मोह़म्मद बाक़िर अ़लैहिस्सलाम ने अपने चाहने वाले से यही फ़रमाया कि जब हम अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम से मोह़ब्बत और हमारे दुश्मनों से दुश्मनी की बुनियाद तम्ए़ दुनिया और ज़ाती किसी बुग़्ज़ए़नाद पर नहीं है। (बल्कि ह़ुक्मे ख़ुदा की बजाआवरी और तकर्रुबे ख़ुदा है) तो रोज़े क़यामत तुम्हारी आँखें रोशन होंगी, दिल को क़रार आएगा, मलाएका इस्तेक़बाल करेंगे तुम रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम, ह़ज़रत अ़ली इब्ने अबी तालिब, ह़सनह़ुसैन और अ़ली इब्निल ह़ुसैन अ़लैहिमुस्सलाम के साथ मह़शूर होगे।

शीआ़ अ़क़ाएद में अ़क़ीदए वेलायते अह्लेबैत, बराअत के बग़ैर और अ़क़ीदए बराअत बग़ैर वेलायतमोह़ब्बते अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम के ना मुकम्मल और बेफ़ाएदा है।– – – मगर बअ़्‌ज़ मस्लेह़त अन्देश अ़नासिर इस्लामी तअ़्‌लीमातमआ़रिफ़े अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम से नावाक़िफ़ और नातज्रेबेकार मुअल्लेफ़ीनमुक़र्रेरीन मुसलमानों में नया माह़ौल क़ाएम करने की कोशिश कर रहे हैं वोह अपना ज़ौक़शौक़ और सलीक़े के एअ़्‌तेबार से मज़हबे अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम के उसूलएअ़्‌तेक़ादात पेश कर रहे हैं जिससे ज़ाहिर होता है मज़हबे तशैयो में अ़कीदए वेलायतबराअत की कोई जगह ही नहीं है। वोह सद्रे इस्लाम के मुसलमानों के एख़्तेलाफ़ात को एख़्तेलाफ़ समझते ही नहीं हैं।

वफ़ाते पैग़म्बर सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के बअ़्‌द ह़ादसात को न सिर्फ़ मअ़्‌मूली अन्दाज़ में पेश करते हैं बल्कि उसे बयान करने की पाबन्दी लगाते हैं उस पर येह तुर्रह की सद्रे इस्लाम में अमीरुल मोअ्‌मेनीन अ़लैहिस्सलाम के बअ़्‌ज़ सह़ाबा से एख़्तेलाफ़ात “दोस्ताना एख़्तेलाफ़ात” और “गहरे रवाबित” की शक्ल में थे। अगर येह नेज़ाअ़ “दोस्ताना एख़्तेलाफ़ात” थे तो कोई ज़रा येह भी बता दे कि एख़्तेलाफ़ात की शक्ल क्या होती है!!!??? ख़ातेमुन्नबीयीन सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के जनाज़े को तन्हा छोड़ के अस्ह़ाब चले गए। रसूले करीम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के तमाम इरशादात को पसे पुश्त डाल कर दामादबरादरे रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम और जिगर गोशए रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम को अकेला फ़रियाद कुनाँ छोड़ दिया आज तक न सुना न पढ़ा न देखा कि मोह़ब्बत में किसी के गले में रस्सी का फन्दा डाल कर कशाँ कशाँ लाया गया हो। क्या तलवारों के साए में बैअ़त का मुतालेबा दोस्ताना रवाबित की बुनियाद पर था!!! ख़ानए सय्यदा, जहाँ नवासए रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ह़सनैन करीमैन अलैहेमस्सलाम मौजूद हैं उनके साथ घर जला देने की कोशिश गहरे तअ़ल्लुक़ात की बुनियाद पर थी? जिगर गोशए रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम पर जलता दरवाज़ा का गिराया जाना पसली का शिकस्ता होना, शिकमे मुबारक पर वार करना, जनाबे मोह़सिन अ़लैहिस्सलाम का सक़त होना और सय्यदए आ़लम का ज़िन्दगी भर कलाम न करना, ख़लीफ़ा को जवाबे सलाम न देना, और नाराज़ होकर दुनिया से रुख़्सत होना, और अमीरुल मोअ्‌मेनीन अ़लैहिस्सलाम का नह़्जुल बलाग़ा में अपने मज़्लूम होने का एअ़्‌लान करना और अकाबेरीन के ग़ासिबाने अक़दामात का बरमला शिक्वा करना और अअ़्‌वानअन्सार के फ़राहम होने की सूरत में क़याम करके अपना ह़क़ छीन लेने का इज़्हार फ़रमाना क्या येह सारी बातें दोस्ताना और अच्छे तअ़ल्लुक़ात की बेना पर थीं। अगर इन्हीं बातों को अच्छे रवाबित कहते हैं तो लिल्लाह कोई एख़्तेलाफ़ का मअ़्‌ना बता दे कि लोग रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम और कुफ़्फ़ारे मक्का के एख़्तेलाफ़ात को भी दोस्ताना एख़्तेलाफ़ बताने लगे हैं, शैतान का सज्दा न करने से इन्कार भी अल्लाह से गहरे रिश्ते की बुनियाद बताई जाने लगेगी।

ह़क़ीक़त येह है कि जब तक अ़क़ीदए वेलायतबराअत मुस्तह़कम नहीं होगा ह़क़बातिल की पहचान नहीं हो सकती। लेहाज़ा अल्लाह तआ़ला, उसके रसूल और आले रसूल पर ईमान लाते हुए उनके सामने सह़ीह़ मअ़्‌ना में तस्लीम हो जाएँ इसमें फ़लाह़ है और इस्लाह़ भी क्योंकि वेलायतबराअत येह दोनों अ़क़ीदे इन्सान को कामियाबी से सरफ़राज़ भी करते हैं और हेदायतरहनुमाई भी करते हैं कि यही दोनों वज़ीफ़े उम्मते मुस्लेमा की नजात और फ़लाह़बहबूदी का बाए़स भी हैं और ह़क़बातिल के दरमियान फ़र्क़ क़ाएम करने का बेहतरीन ज़रीआ़ भी हैं।

अल्लाह तआ़ला! ह़ज़रत अ़ली इब्ने अबी तालिब अलैहेमस्सलाम और उनकी पाकीज़ा औलाद अ़लैहिमुस्सलाम की मोह़ब्बत और उनके दुश्मनों से बराअत और इज़्हारे बेज़ारी पर आख़री साँस का ख़ात्मा फ़रमा और रोज़े क़यामत मवालियाने आले मोह़म्मद में क़रार फ़रमा। आमीन.

क़ुरआन में अइम्मा अ़लैहिमुस्सलाम के नाम की तस्रीह़ न होने की ह़िकमत

तह़कीकी जाएज़ा

अइम्मए अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम के अस्मा और उनकी इमामतमन्ज़ेलत की सराह़त क़ुरआन करीम में क्यों नहीं हुई है? फ़रीक़ैन की किताबों से अन्दाज़ा होता है कि येह सवाल अ़स>े मअ़्‌सूमीन अलैहिमुस्सलाम में भी होता रहा है और इस अहम सवाल का जवाब हमारे लिए इन्तेह़ाई ज़रूरी है। इसलिए कि क़ुरआन करीम तमाम इस्लामी फ़िर्क़ों के नज़्दीक दीने इस्लाम का क़ाबिले क़बूल और क़तई़ सनद का उ़न्वान रखता है। जो लोग अइम्मए मअ़्‌सूमीन अ़लैहिमुस्सलाम की इ़स्मतइमामत के मोअ़्‌तक़िद हैं वोह इस सवाल के सामने अपना मोक़िफ़ वाज़ेह़ करने का ह़क़ मह़फ़ूज़ समझते हैं और इस्लामक़ुरआन की तअ़्‌लीम की रोशनी में मुनासिब जवाब भी रखते हैं।

सबसे पहले: आरानज़रियात का जाएज़ा

क़ुरआन करीम में अइम्मा अ़लैहिमुस्सलाम के नाम की तस्रीह़ न होने के बारे में उ़लमादानिशवरों के आसारकुतुब का जाएज़ा लेने से पता चलता है कि इस सिलसिले में कोई इत्तेफ़ाक़ी राए नहीं है। इस बारे में तीन नज़रियात हैं:

नज़रियए अव्वल

इस गिरोह का ख़याल है कि क़ुरआन में अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम का नाम और उनकी इमामत का तज़्केरा बतौरे सरीह़ पाया जा रहा था। लेकिन पैग़म्बर सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की वफ़ात के बअ़्‌द और क़ुरआन की तदवीनजमअ़्‌आवरी के वक़्त, तह़रीफ़ करके अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम का नाम क़ुरआन से साक़ित कर दिया। फ़रीक़ैन में इस नज़रिये के तरफ़दार बहुत कम हैं, उनकी दलील सिर्फ़ रवायतें हैं जो सनद और दलालत दोनों एअ़्‌तेबार से क़ाबिले बह़्स हैं और उनके मसादिर भी क़ाबिले एअ़्‌तेबार नहीं हैं। इस नज़रिए की ह़ेमायत करने वाले मिनजुम्ला इब्ने शन्बूज़ बग़दादी (मोह़म्मद बिन अह़मद अल मुक़र्री मुतवफ़्फ़ा ३२८ क़) अह्ले सुन्नत हैं, जो आयए शरीफ़ा “व लक़द नरकुमुल्लाहो बेबद्‌रिन व अन्तुम अज़िल्लतुन” (आले इ़मरान १२३) को इस तरह़ क़रअत करते थे। “व लक़द नरकुमुल्लाहो बेबद्‌रिन बेही सैफ़े अ़ली व अन्तुम अज़िल्लतुन.”

क़ुरतबी १३८७ क़, जि., .८०: ख़तीबे बग़दादी, जि., .२८०: अबू शामह मुक़द्देसी १३८५ क़, .१८७

इब्ने शन्बू्‌़ज ने आयत की तावील और उसके मूरिदे नुज़ूल को तन्ज़ीले आयत से मिला दिया है और इस पर कोई दलील भी क़ाएम नहीं की है, इसी तरह़ शीआ़ उ़लमा में अ़ज़ीमुश्शान मुह़द्दिस नूरी अ़लैहिर्रह़्मा मुतवफ़्फ़ा १३२० क़, फ़रमाते हैं: किताब फ़स्लुल ख़ेताब, की तह़रीर का मक़सद येह है कि इस मतलब को साबित किया जाए कि क़ुरआन में अह्लेबैत का नाम आया था और तह़रीफ़ करके साक़ित कर दिया गया है और इस मतलब पर अपनी नवीं दलील में लिखते हैं: ख़ातेमुल अम्बिया ह़ज़रत पैग़म्बर सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के तमाम जानशीनों और उनकी लख़्ते ज़िगर ह़ज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अ़लैहा का नाम और उनके बअ़्‌ज़ औसाफ़ख़ुसूसियात का ज़िक्र गुज़श्ता तमाम आसमानी किताबों में आ चुका है। तो क़ुरआन करीम में भी उनके अस्मा का ज़िक्र होना चाहिए क्योंकि क़ुरआन दाएमी किताब होने के साथ गु़जश्ता तमाम किताबों पर ग़ालिब है और तर्जीह़ रखती है।१

मोह़द्दिस नूरी की दलील इन्तेहाई क़ाबिले तअम्मुल है और एक दूसरी बह़्सगुफ़्तुगू का दरवाज़ा खोलती है। उन्होंने नाख़ास्ता तौर से ह़क़ीक़ते क़ुरआन के ख़ेलाफ़ दलील दे दी है। आप ज़रा ग़ौर फ़रमाएँ अगर क़ुरआन करीम गुज़श्ता तमाम किताबों पर ग़ालिब और तर्जीह़ रखती है और ह़क़ीक़त भी यही है जैसा कि ख़ुद क़ुरआन ने इरशाद किया है:

व अन्ज़ल्ना इलैकल किताब बिल्हक़्क़े मुसद्देक़ल्लेमा बैन यदैहे मिनल किताबे व मोहय्मेनन अ़लैहे.

और ऐ पैग़म्बर हमने आपकी तरफ़ किताब नाज़िल की है ह़क़ के साथ जो अपने पहले की तौरैत और इन्जील की मुसद्दिक़ और मुह़ाफ़िज़ है।

मोह़द्दिस नूरी, .१८३

सूरए माएदा, आयत ४८

तो गुज़श्ता किताबों में जो कुछ आया था उनके सह़ीह़ और ग़लत होने का मेअ़्‌यार ख़ुद क़ुरआन को होना चाहिए। क़ुरआन करीम तय करेगा कि उनमें क्या सह़ीह़ है क्या ग़लत, ख़ुद क़ुरआन के मतालिब को सह़ीह़ साबित करने के लिए गुज़श्ता किताबों को मेअ़्‌यार नहीं माना जाएगा। और मोह़द्दिस नूरी ने यही कहा है। क़ुरआन के वज़ाएफ़ज़िम्मेदारियों को गुज़श्ता किताबों को मेअ़्‌यार क़रार देकर साबित कराना चाहा है और इस तरह़ तह़रीफ़े क़ुरआन का ह़ुक्म दे दिया कि अइम्मा का नाम क़ुरआन से साक़ित कर दिया गया है। बुज़ुर्ग मर्तबा शीआ़ उ़लमा, फ़ुक़हा, मोह़द्देसीन इस नज़रिये को तस्लीम नहीं करते हैं।

नज़रियए दुवुम:

इस गिरोह के अफ़राद का कहना है कि क़ुरआन करीम में न सिर्फ़ अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम का नाम नहीं आया है बल्कि क़ुरआन में उनकी इमामतक़यादत का तज़्केरा ख़ास तौर से क्या आ़म तौर से भी नहीं आया है और जो आयत अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम के बारे में आ़म तौर से या ह़ज़रत अ़ली अ़लैहिस्सलाम के बारे में ख़ास तौर से नाज़िल हुई है, वोह सिर्फ़ उनके फ़ज़ाएलमनाक़िब को बयान करती है ख़ुदा ने उनकी इमामत का ज़िक्र नहीं किया है। येह नज़रिया जमहूरे अह्ले सुन्नत का है। जो सरासर बातिल और नाक़ाबिले क़बूल है।

नज़रियए सिव्वुम:

इस नज़रिए में इ़ल्मी, दीनी और इन्साफ़ पसन्दी की राह एख़्तेयार की गई है दाएरए इफ़राततफ़रीत से निकलते हुए एअ़्‌तेदाल का रास्ता एख़्तेयार किया है। येह शीआ़ मोह़द्देसीन, मुफ़स्सेरीन और मुतकल्लेमीन की अक्सरीयत का नज़रिया है येह अफ़राद इस बात के क़ाएल हैं कि व लौ क़ुरआन में अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम का नाम बतौरे सरीह़ नहीं आया मगर ख़ुदा वन्द आ़लम ने अह्लेबैते पैग़म्बर सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ख़ुसूसन अमीरुल मोअ्‌मेनीन अ़लैहिस्सलाम की इमामतक़यादत के बारे में मुतअ़द्दिद आयतें नाज़िल फ़रमाई हैं और इसी तरह़ उनके मनाक़िब का भी तज़्केरा किया है और पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम आयाते इलाहिया के बयान करने वाले उनकी तश्रीह़ करने वाले और मोअ़ल्लिमे क़ुरआन हैं। और आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने उम्मत के लिए वाज़ेह़ तौर से उन्हें बयान भी किया है। और इस क़द्र रोशनवाज़ेह़ बयान फ़रमाया है कि अगर जेहालत, दुश्मनी, तअ़स्सुब की ऐ़नक हटा दी जाए तो येह उम्मत के हर फ़र्द के लिए वाज़ेह़ और ज़ाहिर हो जाए। जैसा कि बअ़्‌़ज ह़दीस में आया है अगर क़ुरआन को इस तरह़ पढ़ें जैसे नाज़िल हुआ है तो हमारा नाम तलाश कर लेंगे।३

अ़याशी, जि., .१३

तीसरे नज़रिये की तीन बुनियाद है:

() तह़रीफ़े क़ुरआन नक़ाबिले क़बूल है।

() जिन ह़दीसों से तह़रीफ़ की बू आती है वोह बहुत ज़्यादा मोअ़्‌तबर नहीं हैं। उ़लमामुफ़स्सेरीन ने इन ह़दीसों की वज़ाह़त फ़रमाई है।

() ख़ुद आयतों की रोशनी में क़ुरआन की तफ़सीर और अक़वाले मअ़्‌सूमीन अ़लैहिमुस्सलाम से तमस्सुक करना है।

फ़रीक़ैन की मोअ़्‌तबर किताबों में कुछ ऐसी रवायतें हैं जो अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम के बारे में क़ुरआन की काफ़ी मे़कदार में आयतें नाज़िल हुई हैं जैसे ह़स्बे ज़ैल रवायत है जो मुतअ़द्दिद सनदों से नक़्ल हुई है।

क़ुरआन करीम की आयतें चार ह़िस्सों में नाज़िल हुई हैं। क़ुरआन का एक चौथाई ह़िस्सा हमारे बारे में और एक चौथाई ह़िस्सा हमारे दुश्मनों के बारे में – – – अलख़()

इसके अ़लावा फ़रीक़ैन में इस मौज़ूअ़्‌ से मुतअ़ल्लिक़ फ़रावान ह़दीसें पाई जाती हैं। चन्द अह़ादीस मुलाह़ेज़ा हों:

() इब्ने अ़ब्बास कहते हैं: जितनी आयतें ह़ज़रत अ़ली अ़लैहिस्सलाम के बारे में नाज़िल हुई हैं किसी एक के बारे में नाज़िल नहीं हुई हैं।२

() एक और ह़दीस इब्ने अ़ब्बास से नक़्ल है: ख़ुदा वन्द आ़लम ने क़ुरआन करीम में जहाँ भी “या अय्योहल लज़ीना आमनू – -” कह के ख़ेताब फ़रमाया है उन सब में ह़ज़रत अ़ली अ़लैहिस्सलाम ही मुक़द्दम हैं। ख़ुदा वन्द आ़लम ने आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के अअ़्‌वानअन्सार की मुतअ़द्दिद मक़ामात पर सरज़निश फ़रमाई है मगर ह़ज़रत अ़ली अ़लैहिस्सलाम के लिए तअ़्‌रीफ़मद्‌ह़ और नेकी ही का ज़िक्र किया है।३

() ह़दीस में है अम्बिया अ़लैहिमुस्सलाम की तमाम किताबों ( सह़ीफ़ों ) में वेलायते अ़ली बिन अबी तालिब अलैहेमस्सलाम को बयान किया गया है, और ख़ुदा वन्द आ़लम ने हर पैग़म्बर सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम को ह़ज़रत मोह़म्मद सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की नबूवत और उनके जानशीन ह़ज़रत अ़ली अ़लैहिस्सलाम की वेलायत के इक़रार करने के बअ़्‌द मब्ऊ़स फ़रमाया है।४

मरह़ूम कुलैनी, जि., .६२८; अ़याशी (तब्अ़्‌) १४२१ क़, जि., .८४; इब्ने अल मग़ाज़ली शामी १४०३ क़, .३२८; इब्ने ताऊस तब्अ़्‌ १४२१ क़, .२०१; क़ुन्दूज़ी, .१२६; इब्ने हुमाम, जि., .१३; ह़सकानी, जि., .५६; इब्ने मर्दुविया तब्अ़्‌ १४२२ क़, .२१८

इब्ने मर्दूविया १४२२ क़, .२१८; इब्ने अ़साकिर तब्अ़्‌ १४१७ क़, .४२८; इब्ने अ़साकिर ने तो इसे पाँच तरीक़ो से इब्ने अ़ब्बास से नक़्ल किया है।

इब्ने मर्दूविया १४२२ क़, .२१९; इब्ने अ़साकिर तब्अ़्‌ १४१७ क़, जि., .१४३०; तबरानी १४०६ क़, जि.११, ह़.११६८७; कूफ़ी १४१० क़, जि., ह़.६७; ह़सकानी, जि., .५३; अबू नुऐ़म १४०७ क़, जि., . ६४; ख़ारिज़्मी तब्अ़्‌ १४११ क़, .१७९

मरह़ूम कुलैनी, जि., .४३७; ह़ाकिम नेशापूरी, जि., .२२२; इब्ने अ़साकिर १४१७ क़, जि., .९७; ख़ारिज़्मी तब्अ़्‌ १४११ क़, .२२१; सअ़्‌लबी १४२२ क़, जि., .३३८

क़ुरआन करीम की वोह आयतें जो अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम के बारे में नाज़िल हुई हैं उनकी तफ़सीर पर निगाह कीजिए तो पता चलता है कि पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम और अइम्मए मअ़्‌सूमीन अ़लैहिमुस्सलाम भी इसी ह़क़ीक़त की ताई़द फ़रमाते हैं कि क़ुरआन में अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम के नाम की सराह़त (ब सूरते इस्म) नहीं आई है, हाँ आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम उन आयतों की तफ़सीरतश्रीह़ का वज़ीफ़ा रखते थे उसे आप ने बयान फ़रमाया है और आप सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने तस्रीह़ कर दी है कि फ़ुलाँ आयत किस के बारे में नाज़िल हुई है। बतौरे नमूना मरह़ूम कुलैनी सह़ीह़ सनद के साथ अबू बसीर से नक़्ल करते हैं:

आयत – – –अतीउ़ल्लाह व अतीउ़र्रसूल व उलिल अम्रे मिन्कुम. के बारे में इमाम जअ़्‌फ़र सादिक़ अ़लैहिस्सलाम से दरियाफ़्त किया गया तो फ़रमाया: येह आयत अ़ली, ह़सनह़ुसैन अ़लैहिमुस्सलाम के बारे में नाज़िल हुई है (और उलिल अम्र से मुराद वही ह़ज़रात हैं ) मैंने पूछा: लोग कहते हैं: ह़ज़रत अ़ली अ़लैहिस्सलाम और उनके अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम का नाम क़ुरआन में क्यों नहीं आया है? फ़रमाया: उन लोगों से कह दीजिए: नमाज़ का ह़ुक्म रसूलुल्लाह पर नाज़िल हुआ है मगर तीन या चार रकअ़तों की तअ़्‌दाद का ज़िक्र नहीं आया है। आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने उसे लोगों के लिए बयान फ़रमाया है – – -(इसी तरह़ वेलायत का ज़िक्र क़ुरआन में आ़म तौर से नाज़िल हुआ है, और पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने इसकी तश्रीह़तफ़सीर फ़रमाई है।)

दूसरी ह़दीस में इमाम मोह़म्मद बाक़िर अ़लैहिस्सलाम से नक़्ल है: ख़ुदा वन्द आ़लम ने ह़ज़रत पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम को ह़ुक्म दिया: लोगों के लिए वेलायत की तश्रीह़ कीजिए। जिस तरह़ नमाज़, रोज़ा, ज़कात, ह़ज के अह़काम की तश्रीह़ करते हैं। जब येह ह़ुक्म नाज़िल हुआ तो ह़ज़रत ख़त्मी मर्तबत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के दिल में एक ह़ालत पैदा हुई और फ़िक्रमन्द हुए कहीं लोग अपने दीन से पलट न जाएँ और आप की तकज़ीब न करने लगें तो आप सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने बारगाहे अह़्दीयत में अ़र्ज़ की (और इस सिलसिले में मदद तलब की) ख़ुदा वन्द आ़लम ने वह़्य नाज़िल फ़रमाई: ऐ रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम जो कुछ आप पर नाज़िल किया गया है उसे पहुँचा दीजिए! फिर आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने लोगों के लिए अम्रे वेलायत को आश्कार कर दिया।२

यही ह़दीस दीगर मनाबेअ़्‌मआख़ज़ में इससे ज़्यादा वज़ाह़त के साथ नक़्ल हुई है। और अह्ले सुन्नत के मसादिर में भी इस तरह़ की रवायतों के नमूने मौजूद हैं कि वेलायते अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम की तश्रीह़तौज़ीह़ का वज़ीफ़ा आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के सिपुर्द किया गया है।३

कुलैनी, जि., .२८६; अ़याशी १४२१ क़, जि., .४०८

कुलैनी, जि., .२८९; अ़याशी १४२१, जि., .६४

जुवैनी, १४१५, जि., .३१२

मरह़ूम इब्ने ताऊस रह़्मतुल्लाह अ़लैह भी इसी तरह़ की ह़दीसों को किताब तफ़सीर “अबुल अ़ब्बास बिन उ़क़दह” (कि जो अब मफ़क़ूद है) से नक़्ल करने के बअ़्‌द लिखते हैं: इब्ने उ़क़दह ने मुतअ़द्दिद सनदों के साथ इस मअ़्‌ना को नक़्ल किया है।४

बहरह़ाल इमाम जअ़्‌फ़र सादिक़ अ़लैहिस्सलाम का जवाब जेदाले अह़सन की बुनियाद पर क़ाएम है यअ़्‌नी मद्दे मुक़ाबिल जिस चीज़ को क़बूल करता है उसे आप अ़लैहिस्सलाम ने एह़्तेजाजइस्तेदलाल के लिए मुक़द्दमा क़रार दिया है। इसलिए कि लोग इस बात को क़बूल करते हैं और मानते हैं कि नमाज़ की कुल्लीयात और दीगर अह़काम का ज़िक्र तो क़ुरआन में है मगर उसकी तश्रीह़तौज़ीह़ नहीं है जिसका काम आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के सिपुर्द किया गया है और आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने उसके शराएत, क़ुयूद और दीगर ख़ुसूसियतों को बयान फ़रमाया है– – –अइम्मा अ़लैहिमुस्सलाम का नाम और उनकी वेलायत का मुआ़मेला भी ऐसा ही है अगर रावी उसके बअ़्‌द और सवाल करता और इमाम अ़लैहिस्सलाम से दरियाफ़्त करता कि ख़ुदा वन्द आ़लम ने तश्रीह़तौज़ीह़ का वज़ीफ़ा ह़ज़रत ख़त्मी मर्तबत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम को क्यों सिपुर्द किया है? तो इमाम अ़लैहिस्सलाम का जवाब जेदाले अह़सन की किसी और शक्ल में होता।

इब्ने ताऊस १४२१ क़, ह़.१४४१४५.

एक और सबब है:

बहरह़ाल इस वज़ाह़त के सामने येह सवाल अपनी जगह बाक़ी है कि जब लोगों को क़ुरआन के कुल्लीयात को बसूरते तश्रीह़ आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम से दरियाफ़्त करने में कोई दिक़्क़त नहीं हुई तो ह़ुक्मे वेलायत की तश्रीह़ पैग़म्बर सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम से अख़ज़ करने में क्या दिक़्क़त है!!!?? इसका भी एक तारीख़ी पस मन्ज़र है जिसकी तरफ़ तफ़सीलइज्माल की सूरत में इशारा करना दाएरए तह़क़ीक़तह़रीर से बाहर निकल जाने का सबब होगा। इस बारे में एक और अहम ह़क़ीक़त की तरफ़ इशारा करूँ जिससे क़तई तौर से वाज़ेह़ हो जाता है कि ख़ुदा ने क़ुरआन करीम में अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम के अस्मा की सराह़त क्यों नहीं फ़रमाई है?

इस सिलसिले में इस ह़क़ीक़त को नज़र अन्दाज़ नहीं किया जा सकता है क़ुरआन में अस्माए अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम की सराह़त न होने की दीगर ह़िकमतों में से एक ह़िकमत और सबब इस उम्मते मुस्लेमा को इम्तेह़ानआज़्माइश में मुब्तेला किया जाना था जो आइन्दा नस्लों की सरनविश्त में बतौरे मुस्तक़ीम दख़ालत रखता है। मगर इस मतलब को वाज़ेह़ करने के लिए चन्द बातों की तरफ़ इशारा ज़रूरी है:

()

ख़ुदा वन्द आ़लम तमाम अफ़रादे बशर को फ़र्दन फ़र्दन और तमाम उम्मतों को बसूरते गिरोह क़तई तौर से इम्तेह़ान में मुब्तेला करता है जिसके बारे में क़ुरआन की मुतअ़द्दिद आयतें दलालत करती हैं।

()

अफ़रादउम्मतों के आज़्माइश का तरीक़ा और रविश ख़ुदा ने अलगअलग क़रार दिया है। बअ़्‌ज़ को ख़ुश्क मिट्टी के ज़रिए़ जिसमें रूह़ पूँÀक दी गई। जैसे फ़रिश्तों का इम्तेह़ान (सूरए ह़िज्र) बअ़्‌ज़ लोगों को सनीचर के दिन मछली के शिकार से मनअ़्‌ कर देने के ज़रीए़ आज़्माया गया कि इस दिन नहर के किनारे मछलियाँ ज़्यादा आती हैं। येह इम्तेह़ान यहूदियों का था।१

या उम्मत को मक्का की ग़ैर ज़ीज़रअ़्‌ सरज़मीन पर पत्थरों के घर (ख़ानाकअ़्‌बा) का ह़ज करने के ह़ुक्म से आज़्माया जाना२ या लोगों को जानमाल की कमी और भूख के ख़ौफ़ के ज़रीए़ इम्तेह़ान लिया जाना।३

सूरए बक़रा, आयत ६५; सूरए निसा, आयत १५४; सूरए अअ़्‌राफ़, आयत ६३

नह़जुल बलाग़ा, ख़ुत्बा १९२

सूरए बक़रा, आयत १५४

()

ख़ुदा वन्द आ़लम ने इस उम्मत को आज़्माने के लिए अपनी सुन्नत और इम्तेह़ान में से एक इम्तेह़ान येह क़रार दिया कि वोह आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की कैसे एताअ़तपैरवी करते हैं – – – और ख़ुदाए सुब्ह़ान ने उम्मत को इस तरीक़ए इम्तेह़ान में क़रार देने के लिए और येह कि वोह इस इम्तेह़ान से राहे फ़रार एख़्तेयार करने के लिए बहाना तलाश न करे इस के मुक़द्देमात को एस तरह़ क़रार दिया है:

() ह़ज़रत ख़त्मी मर्तबत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की अ़ज़ीमुश्शान मन्ज़ेलतअ़ज़मत को पहचनवाया इसके लिए क़ुरआन में आयत नाज़िल फ़रमाई:

ला तर्फ़ऊ़ अस्वातकुम फ़ौक़ सौतिन्नबीये वला तज्हरू लहू बिल क़ौले कजह्रे बअ़्‌ज़ेकुम लेबअ़्‌ज़िन अन तह़्बत अअ़्‌मालोकुम व अन्तुम ला तश्ओ़रून४

अपनी आवाज़ को पैग़म्बर की आवाज़ पर बलन्द न करो, और जिस तरह़ तुम लोग एक दूसरे से बलन्द आवाज़ में बातें करते हो इस तरह़ उनसे कलाम न करो वरना तुम्हारे अअ़्‌माल नाबूद हो जाएँगे और तुम नहीं समझते हो। और वोह लोग जो रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के पास अपनी आवाज़ बलन्द नहीं करते हैं येह वोह लोग हैं जिनके दिलों को ख़ुदा ने तक़्वा के ज़रीए़ आज़्माया है और उनके लिए मग़फ़ेरत और अ़ज़ीम अज्र क़रार दिया है।”

मज़्कूरा आयत आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की क़द्रमन्ज़ेलत को समझने के लिए हर मुसलमान के लिए काफ़ी है इसमें किसी इब्हाम या क़ैदशर्त नहीं है। यअ़्‌नी इतना अ़ज़ीमुश्शान पैग़म्बर सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम है कि ख़ुदा को येह हरगिज़ गवारा नहीं है कि कोई उसके पास तेज़ आवाज़ से कलाम करे, अब येह बात सब की समझ में आ जानी चाहिए कि जब बलन्द आवाज़ से कलाम करने से अअ़्‌माल बर्बाद हो सकते हैं तो जो उनके कलाम को रद्द करे, जो आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम से बह़्स और उनकी बातों में शक ज़ाहिर करे उसके पास ईमानअ़मल नाम की कोई चीज़ कैसे बाक़ी रह सकती है।

सूरए ह़ुजरात, आयत २

() सिर्फ़ ह़ज़रत पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के ह़ुक्म के सामने तस्लीम होने के लिए आयत नाज़िल फ़रमाई:

मा कान लेअह़्लिल मदीनते व मन ह़ौलहुम मिनल अअ़्‌राबे अन यतख़ल्लफ़ू अ़नरसूलिल्लाहे वला यर्ग़बू बेअन्फ़ोसेहिम अ़न नफ़्सेही१

अह्ले मदीना और वोह अअ़्‌राब जो अ़तराफ़े मदीना में रहते हैं हरगिज़ वोह रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की मुख़ालेफ़त का ह़क़ नहीं रखते और न ही उनसे रूगरदानी एख़्तेयार करके अपनी ख़ाहिश के मुताबिक़ अ़मल कर सकते हैं।

बल्कि दूसरी आयत में ख़ुदा वन्द आ़लम पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के सामने दिल से तस्लीम होने और सिद्‌क़े दिल से तस्दीक़ करने को ईमान की निशानी क़रार दे रहा है।

फ़ला व रब्बेक ला यूमेनून ह़त्ता योह़क्केमूक फ़ीमा श़र बैनहुम सुम्मा ला यजेदू फ़ी अन्फ़ोसेहिम ह़जन मिम्मा क़ज़ैत व योसल्लेमू तस्लीमा२

पस हरगिज़ ऐसा नहीं है। तुम्हारे परवरदिगार की क़सम, वोह उस वक़्त तक मोअ्‌मिन नहीं हो सकते जब तक कि आपको अपने मुआ़मेलात में अपना ह़ाकिम क़रार न दें और जिस चीज़ के बारे में आप सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने ह़ुक्म दिया है उससे मुतअ़ल्लिक़ अपने दिलों में कोई ख़लिश मह़सूस न करें। और आप सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के सामने तस्लीम मह़ज़ हों।”

सूरए तौबा, आयत १२०

सूरए निसा, आयत ६५

इसके अ़लावा क़ुरआन में और भी आयतें हैं जिनमें आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की एताअ़तपैरवी के बारे में ख़ुदा ने बग़ैर किसी क़ैदशर्त और बतौरे मुतलक़ फ़रमान जारी किया है:

मा आताकुमुर्रसूलो फ़ख़ुज़ूहो वमा नहाकुम अ़न्हो फ़न्तहू.

और इसके बअ़्‌द तो सूरए निसा की आयत में तो बतौरे कुल्ली एअ़्‌लान कर दिया कि रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की एताअ़त ख़ुदा की एताअ़त है:

मन योतेइ़र्रसूल फ़क़द अताअ़ल्लाह४

रवायतों में भी इस ह़क़ीक़त की ताकीद की गई है। मरह़ूम कुलैनी ने किताब काफ़ी में अत्तफ़वीज़ एलर्रसूलिल्लाहे व एलल अइम्मते फ़ी अम्रिद्दीन के उ़न्वान से मुस्तक़िल पूरा बाब क़ाएम किया है।५

जिन में दस ह़दीसें वोह भी सह़ीह़ सनदों के साथ दर्ज हुई हैं। पस ख़ुलासए कलाम कि ख़ुदा ने अपने पैग़म्बर सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम को बेहतरीन औसाफ़कमालात से आरास्ता करके हद्दे कमाल तक पहुँचाया और फिर लोगों के उमूर को उनके सिपुर्द किया ताकि येह मअ़्‌लूम कर सके कि लोग किस तरह़ उनकी पैरवी करते हैं। ज़ोरारा इमाम बाक़िर और इमाम सादिक़ अ़लैहेमस्सलाम से नक़्ल करते हैं: ख़ुदा वन्दे आ़लम ने अम्रे ख़ल्क़ को अपने ह़बीब के सिपुर्द फ़रमाया था कि येह मअ़्‌लूम कर सके कि लोग पैग़म्बर सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की कैसे एताअ़त करते हैं। इसके बअ़्‌द इमाम अ़लैहिस्सलाम ने आयते करीमा की तिलावत फ़रमाई। जो कुछ पैग़म्बर सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम तुम्हें दें ले लो और जिस चीज़ से मनअ़्‌ करें उससे बाज़ आ जाओ।६

सूरए ह़श्र, आयत ७

सूरए निसा, आयत ८०

काफ़ी, जि., .२६५

काफ़ी, जि., .२६६; सफ़्फ़ार (बसाएरुद्दरजात) .२७९

() ख़ुद आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने अपनी सुन्नतसीरत की पैरवी की ताकीद फ़रमाई है और हर ज़माने में क़ुरआन से मुतअ़ल्लिक़ अपनी बयान कर्दा तफ़सीरतश्रीह़ से तमस्सुक करने और उसी की एताअ़तपैरवी की ह़ुक्म दिया है। और उम्मत में एख़्तेलाफ़ वाक़ेअ़्‌ होने की पेशीनगोई और उसे नाफ़रमानी और मुख़ालेफ़त करने से डराया है सह़ीह़ सनद के साथ नमूने के तौर से एक रवायत पेशे ख़िदमत है आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम से नक़्ल है। अन्करीब ऐसे लोग आने वाले हैं जो तख़्तसल्तनत पर तकिया लगाए होंगे और जब मेरी ह़दीस दरमियान में आएगी तो कहेंगे: हमारे और तुम्हारे दरमियान ख़ुदा की किताब काफ़ी है। उस में जो ह़लाल है उसे ह़लाल और उसमें जो ह़राम है उसे ह़राम क़रार देता हूँ, (फिर पैग़म्बर ने सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम फ़रमाया) आगाह हो जाओ! जिन चीज़ों को अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने ह़राम क़रार दिया है वोह वही चीज़ है जिसे ख़ुदा ने ह़राम क़रार दिया है।१

ह़ाकिम नेशापूरी, .,,,१०९; इब्ने माजा क़ज़वीनी, जि., .; दारमी, जि., .११७; इब्ने ह़य्यान, जि., .१४७; बैहक़ी, जि., .३३१; अबू दाऊद, जि., .२००

()

ख़ुदा वन्द आ़लम ने अपने रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की इस पैरवीएताअ़त में अह़कामदस्तूरात और उनकी बयान कर्दा तश्रीह़तौज़ीह़ के दरमियान किसी तरह़ का फ़र्क़ क़ायम नहीं किया है और क़ुरआनरवायात में किसी तरह़ की ह़द बन्दी नहीं की है, इस बारे में अह़कामदस्तूरात ख़ाह एअ़्‌तेक़ाद से मर्बूत हों या ग़ैरे एअ़्‌तेक़ाद से, किसी तरह़ का इम्तेयाज़ नहीं रखा है। इस लेह़ाज़ से कोई येह उ़ज़्र या बहाना नहीं कर सकता कि वोह कहे: फुलाँ मसअला एअ़्‌तेक़ादात से मुतअ़ल्लिक़ है (मसलन मसअलए इमामतवेलायत कि जो मज़हबे शीआ़ के अरकान का एक ह़िस्सा है) इसलिए ज़रूरी है कि क़ुरआन में उसे बसूरते नस बयान होना चाहिए। (और येह कहे कि ऐसा नहीं होना चाहिए कि वोह ज़ाहिर आयत में कुल्ली तौर से बयान हो और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम उसे दीगर मसाएल की तरह़ तश्रीह़तौज़ीह़ फ़रमाएँ!!) इस तरह़ के उ़ज़्रबहाने को शरीअ़त के किसी ह़िस्से में जगह नहीं दी गई है। बल्कि पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की मुतलक़ पैरवी और इस पर भरपूर ताकीद हर तरह़ की क़ैदशर्त और सरह़दों को ख़त्म कर देती है।

नतीजए बह़्स:

क़ुरआन में अइम्मा अ़लैहिमुस्सलाम के अस्मा की अ़दमे तस्रीह़ का मसअला आज की फ़िक्र नहीं है बल्कि ख़ुद ज़मानए अइम्मा में भी इस तरह़ के सवालात होते थे। इस सवाल के जवाब में तीन अलग अलग नज़रियात पाए जाते हैं। और आयतरवायात से जो अस्नादमदारिक दस्तियाब हैं उनकी रोशनी में तीसरा नज़रिया क़ाबिले क़बूल सह़ीह़ हैं। जो ह़स्बे ज़ैल बातों पर मुश्तमिल है:-

क़ुरआन करीम में अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम को मख़्सूस औसाफ़कुल्ली मफ़ाह़ीम और मुतअ़द्दिद उ़न्वान जैसे “उलुल अम्र” अह्ले ज़िक्र के साथ मुतआ़रिफ़ कराया गया है। लेकिन उनके नाम की सराह़त नहीं हुई है। आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम उम्मत के लिए उन्हें बयान करने वाले तफ़सीर करने वाले, तश्रीह़ करने वाले हैं और इसकी ह़िकमत येह थी कि लोग ह़ुज़ूरे अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की एताअ़तपैरवी के ज़रीए़ आले मोह़म्मद अ़लैहिमुस्सलाम से मुतअ़ल्लिक़ अह़कामदस्तूरात की निस्बत से आज़्माए जाएँ, जबकि आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने इस पैग़ाम को पहुँचाने में किसी तरह़ की कोताही या मुसामह़ा नहीं फ़रमाया। इसके बावजूद जमहूरे उम्मत गुज़श्ता उम्मतों की मानिन्द इम्तेह़ान में नाकाम हो गई।

अ़जीब बात है नमाज़ के अरकान, रोज़े के शराएत, ज़कात के नेसाब, ह़ज की तफ़सीलात—–येह तमाम बातें तमाम मुसलमान ह़ज़रत रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की ह़दीसों से ह़ासिल करते हैं और उस पर बाक़ाए़दा अ़मल करते हैं और इस तरह़ के सवालात नहीं करते हैं लेकिन जब अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम की इमामतवेलायत का मसअला आता है तो इस तरह़ के सवालात की भरमार हो जाती है जबकि सब जानते हैं, नजात अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम की पैरवी के बग़ैर मुमकिन नहीं है।

इस्तेक़साउल इफ़्ह़ाम अज़ अ़ल्लामा सैयद ह़ामिद ह़ुसैन हिन्दी”

ख़ुदा का लुत्फ़करम और इमामे ज़माना अ़लैहिस्सलाम की ए़नायाते ख़ास्सा की बेना पर सरज़मीने हिन्दुस्तान वोह जगह रही है जहाँ मोह़म्मदआले मोह़म्मद अ़लैहिमुस्सलाम के चाहने वालों में जय्यद उ़लमा पैदा हुए और उन उ़लमा ने मज़हबे तशय्योअ़्‌ के देफ़ाअ़्‌ में अपनी बेहतरीन सलाह़ियतों का मुज़ाहेरा किया। मुख़ालेफ़ीने तशय्योअ़्‌ ने अ़क़ाएदे शीआ़ पर बहुत ह़मले किए और मज़हबे शीआ़ को बातिल ठहराने के लिए ज़बानी और तह़रीरी ह़र्बों का इस्तेअ़्‌माल किया। और बअ़्‌ज़ मौक़ओ़ं पर तो नौबत यहाँ तक पहुँची कि शीओ़ं के क़त्ल पर उतर आए। हमारे उ़लमा में शहीद क़ाज़ी नूरुल्लाह शूस्तरी को आगरा में क़त्ल किया गया। शहीद राबेअ़्‌ मिर्ज़ा मोह़म्मद कामिल इब्ने मिर्ज़ा इ़नायत अह़मद कश्मीरी जिनका मज़ार दरगाह पन्जा शरीफ़, पुरानी दिल्ली स्टेशन के पास है। आप को सन १२२५ हि. मुताबिक़ सन १८१० ई. में ज़ह्र देकर इसलिए शहीद किया गया कि आप ने मुह़द्दिस देहलवी की किताब तोह़्फए इश्ना अ़शरीया का जवाब दिया था जो मज़हबे अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम के देफ़ाअ़्‌ में लिखी गई थी। इस किताब का नाम “नुज़हते इस्ना अ़शरीया” है। आप ने मुख़्तलिफ़ मौज़ूआ़त पर ६८ किताबें लिखी हैं। ख़ुलासा येह कि बहुत से उ़लमा शहीद हुए लेकिन देफ़ाअ़्‌ का काम जारी रहा। इस मज़्मून में ऐसी ही एक देफ़ाई़ किताब का तआ़रुफ़ पेश किया जा रहा है।

इस्तेक़साउल इफ़्ह़ाम: येह एक किताब का नाम है जिसके मुसन्निफ़ हिन्दुस्तान के बहुत ही मशहूर आ़लिमे दीन अ़ल्लामा सैयद मीर ह़ामिद ह़ुसैन बिन सैयद मोह़म्मद क़ुली मूसवी नेशापूरी हिन्दी हैं। आप का शुमार शीओ़ं के बुज़ुर्ग तरीन मुतकल्लेमीन और अ़ज़ीम मुतजब्बिर आ़लिमों में होता है।

वेलादत: ४ मुह़र्रमुल ह़राम सन १२४७ हि. लखनऊ में हुई। वफ़ात: ८ सफ़र सन १३०६ हि.। तअ़्‌लीम: आपने अपने वालिद अ़ल्लामा सैयद मोह़म्मद क़ुली मूसवी जो कि एक बुज़ुर्ग आ़लिम थे। इब्तेदाई तअ़्‌लीम के साथ इल्मे कलाम और अ़क़ाएद की तअ़्‌लीम ह़ासिल की। फ़िक़्हउसूल जनाब सैयद ह़ुसैन नक़वी से सीखा। फ़लसफ़ाह़िकमत को जनाब सैयद मुर्तज़ा बिन सैयद मोह़म्मद से, और अदबियात जनाब मुफ़्ती सैयद मोह़म्मद अ़ब्बास से ह़ासिल की।

अ़ल्लामा अमीनी क़ुद्देससिर्रहू ने ‘अल ग़दीर’ में आप के बारे में लिखा है कि:

हाज़स्सैयदुत्ताहेरुल अ़ज़ीम

येह पाक सैयद बुज़ुर्गवार, अपने वालिदे मोह़तरम की तरह़ दुश्मनाने ह़क़ पर ख़ुदा की खींची हुई तलवारों में एक तलवार है। और दीने ह़क़ की कामियाबी का परचम है। ख़ुदाए सुब्ह़ान की आयतों में से एक बुज़ुर्ग निशानी है। ख़ुदा ने यक़ीनन उनके ज़रीए़ ह़ु़ज्जत को तमाम किया और ह़क़ के सीधे रास्ते को आश्कार किया। उनकी किताब ‘अ़बक़ात’ की ख़ुशबू दुनिया के एक किनारे से दूसरे किनारे तक फैल गई (अ़बक़ के मअ़्‌ना ख़ुशबू हैं ) और इस किताब की शोहरत मशरिक़ से मग़रिब तक जा पहुँची। जिसने इस किताब को देखा, तो पाया कि एक नूर और रोशनी देने वाला मोअ़्‌जिज़ा है कि जिसके अन्दर कोई भी बातिल रास्ता नहीं मिलेगा।१

इस मज़्मून में हमारा मक़सद अ़ल्लामा ह़ामिद ह़ुसैन हिन्दी की सवानेह़ ह़यात नहीं है अलबत्ता उनकी किताब ‘इस्तेक़साउल इफ़्ह़ाम’ का तआ़रुफ़ है लेहाज़ा इस अ़ज़ीम आ़लिम की सवाने़ह को किसी और मौक़ेअ़्‌ के लिए मौक़ूफ़ करते हुए अस्ल मक़सद की तरफ़ आते हैं। “इस्तेक़साउल इफ़्ह़ाम व इस्तीफ़ाउल इन्तेक़ाम फ़ी नक़्ज़े मुन्तह़ल कलाम” येह किताब का पूरा नाम है जिससे वाज़ेह़ होता है कि येह किताब क्यों लिखी गई है।

अल ग़दीर, /१५६ और १५७; मीर ह़ामिद ह़ुसैन अज़ मोह़म्मद रज़ा ह़कीमी, .१२२ और १२३

ज़रूरी बात:

मज़्मून को आगे बढ़ाने से पहले येह अ़र्ज़ करना ज़रूरी समझते हैं कि हमारे पास अस्ल किताब मौजूद नहीं है। अलबत्ता इस किताब की अहम्मीयत को मद्दे नज़र रखते हुए हमारे बुज़ुर्ग आ़लिम सैयद अ़ली अलह़ुसैनी मीलानी दाम ज़िल्लहुलआ़ली ने इस पर तह़क़ीक़ की और इसे अ़रबी ज़बान में तीन जिल्दों पर मुश्तमिल इस तह़क़ीक़ी किताब की शक्ल में “इस्तेख़राजुल मरामे मिन इस्तेक़साइल इफ़्ह़ामे”के नाम से शाएअ़्‌ किया। लेहाज़ा हम इसी किताब से इस्तेफ़ादा करते हुए किताब का तआ़रूफ़ पेश कर रहे हैं। इसके मअ़्‌ना हैं : मतलबमक़सद का इस्तेम्बात किताब इस्तेक़साउल इफ़्हाम से। और अब मुलाह़ेज़ा हो इस्तेक़साउल इफ़्ह़ाम का मतलब।

इस्तेक़सा : यअ़्‌नी मसअले का तह तक पहुँचना।

इफ़्हाम : यअ़्‌नी दलील देकर ख़ामोश कर देना।

फ़ह़म : यअ़्‌नी जवाब से साकित होना।

फ़ह़म के मुख़्तलिफ़ मअ़्‌ना हैं। जैसे काला होना, काला करना। इसलिए कोयला को फ़ह़म कहा जाता है। फ़ह़्ह़ाम कोयला बेचने वाले को कहा जाता है।

बहरह़ाल इस्तेक़सा के साथ इफ़्ह़ाम का मतलब दलील देकर ख़ामोश करना क़रीने क़यास है और फिर किताब के पूरे नाम से भी येह बात ज़ाहिर है कि येह किताब एक सुन्नी आ़लिम की किताब मुन्तहल कलाम का जवाब है।

आक़ाए मीलानी दाम ज़िल्लहू किताब के नाम के तअ़ल्लुक़ से फ़रमाते हैं :

व कानल मोअल्लेफ़ो क़द वअ़ अ़लैहे हाज़ल इस्मो लेयशीर एला अन्न लिल बह़्से फ़ीहे जेहतैने, व इन्न लहू मिन तालीफ़ेही ग़रज़ैने :

मोअल्लिफ़ मोह़तरम (ह़ामिद ह़ुसैन हिन्दी) ने इसका येह नाम क़रार दिया ताकि इशारा हो कि इसमें दो जेह्त से बह़्स हुई है। और इसकी तालिफ़ के दो मक़ासिद हैं।

एह़्दहोमा : दफ़्‌उ़श्शिब्हे वल एअ़्‌तेराज़ात अ़न जुम्लते मिनल अ़क़ाएदे, व रद्दत तोह्मे अ़न बअ़्‌ज़िल्अअ़्‌लामे, वत्तकल्लमो अला बअ़्‌ज़िल्कुतुबिल मअ़्‌रूफ़ते इन्दल इमामीया व उ़न्वाने (इस्तेक़साउल इफ़्ह़ाम) नाज़ेरुन एला हाज़ेहिल जेहते.

पहला मक़सद : अ़क़ाएद के सिलसिले में शुब्ह़ातएअ़्‌तेराज़ात का जवाब दिया जाना, और बअ़्‌ज़ उ़लमा की तोहमतों की रद्द, और उ़लमाए शीआ़ की बअ़्‌ज़ मशहूर किताबों पर गुफ़्तुगू और किताब का येह उ़न्वान (इस्तेक़साउल इफ़्ह़ाम) इसी मक़सद की निशानदेही करता है।

वस्सानी : अत्तह़क़ीक़ अ़न मौक़इल उ़लूमिल इस्लामिया मिन इ़ल्मिल अ़क़ाएदे वत्तफ़सीरे वल ह़दीसे वल फ़िक़्हे व अ़न ह़ाले मुअस्सेसीहा, इ़न्दा अह्लिस्सुन्नते, व बयानो ह़ाले उ़लमाएहिम व अश्हर कुतुबेहिमुल मोअ़्‌तमेदते फ़ी हाज़ेहिल उ़लूमे. व उ़न्वानो (इस्तीफ़ाउल इन्तेक़ाम) नाज़ेरुन एला हाज़ेहिल जेहते.

दूसरा मक़सद : अह्ले सुन्नत के इ़ल्मे अ़क़ाएदतफ़सीरह़दीसफ़िक़्ह की तह़क़ीक़ और उनकी बुनियादअसास की तह़क़ीक़ और उनके उ़लमा के ह़ालात और उन उ़लूम में उनकी मशहूर तरीन मोअ़्‌तबर किताबों का ह़ाल बयान करना और येह उ़न्वान (इस्तीफ़ाउल इन्तेक़ाम) इसी मक़सद की निशानदेही करता है। (इस्तीफ़ाउल इन्तेक़ाम यअ़्‌नी पूरा इन्तेक़ाम लेना)

व बेतअ़्‌बीर आख़िर, फ़इन्न हाज़ल किताबे क़द अल्लफ़ नक़्ज़न लिल किताबे (मुन्तहल कलाम)

और इस उ़न्वान के आख़री ह़िस्से का मफ़्हूम येह है कि येह किताबे मुन्तहल कलाम, की रद्दजवाब में लिखी गई है।

मुन्तहल कलाम के मोअल्लिफ़

मुन्तहल कलाम के मोअल्लिफ़ का पूरा नाम ह़ैदर अ़ली इब्ने मोह़म्मद फ़ैज़ाबादी है। येह एक सुन्नी हनफ़ी आ़लिम है। मुतकल्लिमफ़क़ीह है। इन्होंने दो ज़ख़ीम जिल्दों में सन १२५० हि. में किताब “मुन्तहल कलाम फ़िर्रद्दे अ़लश्शीआ़”, लिखी है।२

येह बात क़ाबिल तवज्जेह है ह़ैदर अ़ली फ़ैज़ाबाद में पैदा हुए और इब्तेदा में शीआ़ उ़लमा मिर्ज़ा फ़तह अ़ली, सैयद नज़फ़ अ़ली और ह़कीम मीर नवाब से तअ़्‌लीम ह़ासिल की। फिर दिल्ली चले गए और सुन्नी आ़लिम शेख़ रशीदुद्दीन, शेख़ रफ़ीउद्दीन और शेख़ अ़ब्दुल अ़ज़ीज़ बिन वलीयुल्लाह देहलवी से तअ़्‌लीम ह़ासिल की और फिर लखनऊ में एक तवील मुद्दत क़याम किया और इ़ल्मी बह़्समुबाह़ेसा में मशग़ूल रहे। फिर वहाँ से भोपाल गए और एक मुद्दत वहाँ क़याम के बअ़्‌द ह़ैदराबाद पहुँचे और नवाब मुख़्तारुल मुल्क के यहाँ क़ज़ावत के मन्सब पर फ़ाएज़ रहे और वहीं तालीफ़तस्नीफ़ में मशग़ूल रहे उनका इन्तेक़ाल सन १२९९ हि. में हुआ।३

इस्तेख़राजुल मरामे मिन इस्तेक़साइल इफ़्हाम, /७४ से ७५

ऐज़न, /७४

ऐज़न, .७२ और ७३

शीओ़ं की रद्द में उन्होंने बहुत सी किताबें लिखीं। जैसे:

एज़ालतुल ग़ैने अ़न बसारतिल ऐ़ने ३ जिल्दों में, नज़ारतुल ऐ़नैन अ़न शहातिल ह़ुसैने, काशेफ़ुल लेसामे अ़न तदयेसिल मुज्तह्दिल क़मक़ामे, वद्दाहियतिल ह़ातेमते अ़ला मन अख़ज मिन अह्लिल्बैते फ़ातेम, रूयतिस्सआ़ालीबे वल ग़राबीबे फ़ी इन्शाइल मकातीबे, इस्बातुल बैअ़तिल मुर्त ज़वीयते, इस्बाते इज़ दवाजे उ़मरि बिब्नल ख़त्ताब बेसय्येदतेना उम्मे कुलसूमे बिन्ते अ़लीयिल मुर्तज़ा, तकमलते फ़त्ह़िल अ़ज़ीज़ (मुतअ़द्दिद ज़ख़ीम जिन्दों में )

ऐज़न, .७३

हमारे क़ाबिले फ़ख़्र उ़लमा:

हमारे उ़लमा क़ाबिले फ़ख़्र हैं। वोह ऐसी रीशादवानियों को ख़ामोशी से देख नहीं रहे बल्कि दन्दान शिकन जवाब लिखा। इससे बाला तर एक ही किताब की रद्द कई आ़लिमों ने लिखी। आज के दौर में हम येह सोचते हैं कि किसी काम को दोबारा अन्जाम देना मुफ़ीद नहीं है। अगर किसी का एक जवाब लिखा जा चुका है तो दूसरा जवाब न लिखा जाए। लेकिन क्या कहना उन उ़लमा का कि दूसरे उ़लमा के एह़्तेराम के साथ अपना काम करते रहे। ख़ुद तोह़्फ़ए इस्ना अ़शरी के मुतअ़द्दिद जवाब लिखे गए हैं कि जिनका शुमार मुश्किल है।

वोह किस क़द्र मुदाफ़ए़ वेलायत थे?

वेलायते अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम से येह उ़लमा किस क़द्र सरशार थे, वेलायत की राह में जानें क़ुर्बान करने वाले, वेलायत की राह में मशक़्क़तज़ह़्मत उठाने वाले थे और क्या कहना अ़ल्लामा मीर ह़ामिद ह़ुसैन हिन्दी रिज़वानुल्लाह तआ़ला अ़लैह का!! उनके बारे में मिलता है कि कसरते तह़रीरकिताबत की वजह से उनका दायाँ हाथ मुतास्सिर हो गया तो बाएँ हाथ से लिखते थे। जब बायाँ हाथ भी मुतासिर हो गया तो काम को रोका नहीं बल्कि ज़बान से इमला फ़रमाया करते थे। हम क़ुर्बान जाएँ उन पर। उन्होंने हमें वेलायते मुर्तज़वी के अ़ज़ीम गोशे ए़नायत किए।

इस्तेक़साउल इफ़्ह़ाम के मौज़ूआ़त:

इस किताब को अ़ल्लामा मीर ह़ामिद ह़ुसैन क़ुद्देस सिर्रहू ने फ़ारसी में दस जिल्दों में लिखा है। फ़ैज़ाबादी की किताब ‘मुन्तहल कलाम’ में शीआ़ अ़क़ाएद पर हर जुम्ले का जवाब दिया है। हम आयतुल्लाह मीलानी की तह़क़ीक़ से इस्तेफ़ादा करते हुए यहाँ चन्द मौज़ूआ़त का तज़्केरा करते हैं।

फ़ैज़ाबादी ने शीओ़ं के एअ़्‌तेक़ादी मसाएल पर शुब्हा वारिद किया है और उनके अ़क़ाएद को बातिल क़रार दिया है। जिन उ़न्वान पर उन्होंने बह़्स की है और फिर इस्तेक़साउल इफ़्ह़ाम में उन्हें ज़ेरे बह़्स लाया गया, वोह दर्जे ज़ैल हैं:

तह़रीफ़े क़ुरआन की बह़्स, बह़्से बदाअ, बह़्से तज्सीम, मुताइ़ने अबू ह़नीफ़ा, क़यास वल इस्तेह़्सान बह़्से मसअलए मीसाक़, बह़्से मसअल इस्सुवर, बह़्से रद्दिश्शम्से व शक़्क़िल क़मर, बह़्सुल अ़बस फ़िस्सलात, मसअलए किताबे सुलैम बिन क़ैस अल हेलाली, नबी सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के आबाअज्दाद का इस्लाम, नसबे अ़म्र बिन आ़स, वलदुज़्ज़ेना के बारे में ह़ुक्म, मज़हबे अशाए़रा की मज़म्मत, सेह़ाह़े सित्ता और उनके अस्ह़ाब के बारे में, मालिक और शाफ़ई़ के बारे में, बह़्स तफ़सीरे अ़ली बिन इब्राहीम क़ुम्मी के देफ़ाअ़्‌ में, बह़्स उम्मते इस्लामिया में तफ़सीरमुफ़स्सेरीन के बारे में, सुन्नियों के अहम मुफ़स्सेरीन जैसे अ़ब्दुल्लाह बिन मसऊ़द, अबू मूसा अशअ़री, अ़ब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर, अनस बिन मालिक, अबू हुरैरा, अ़ब्दुल्लाह बिन अ़म्र बिन आ़स, मुजाहिद, अ़करमा, ह़सन बसरी, अ़ता अबुल आ़लिया, अल ज़ह़्ह़ाक, क़तादह, मुर्राह बिन अ़यीना, अ़ब्दुर्रज़्ज़ाक और दीगर मुफ़स्सेरीन, ता फ़ख़े्र राज़ी।१

ऐज़न, .७६७७

मुलाह़ेज़ा

मरह़ूम मुअल्लिफ़ रह़्मतुल्लाह अ़लैह ने फ़ैज़ाबादी के उन तमाम शुब्हातइत्तेहाम का अलग अलग अस्ल किताब में जवाब दिया है। अलबत्ता आक़ाए मीलानी (मद्दज़िल्लहू) ने तल्ख़ीस के काम लिया है। हम उन्हीं की रविश पर मज़ीद तल्ख़ीस के साथ कुछ मौज़ूआ़त पर रोशनी डालेंगे। इस मज़्मून में तमाम मौज़ूआ़त पर लिखना मुमकिन नहीं है अगर एक किताब तल्ख़ीस के साथ लिखी जाए तो कम है।

बहरह़ाल यहाँ तह़रीफ़े क़ुरआन की बह़्स की ख़ुलासा पेश है:

तह़रीफ़े क़ुरआन

फ़ैज़ाबादी, साह़बे मुन्तहल कलाम ने शीओ़ं पर तोहमत लगाई है कि शीआ़ क़ुरआन में तह़रीफ़े के क़ाएल हैं। नीज़ उन्होंने शीओ़ं की अ़ली बिन इब्राहीम अल क़ुम्मी की तफ़सीर पर एअ़्‌तेराज़ात किए हैं। और शीओ़ं पर और शीआ़ उ़लमा पर लअ़्‌नतअ़्‌न किया है कि शीआ़ इस ज़ोअ़्‌मगुमान में हैं कि तफ़सीरे क़ुम्मी ह़क़ीक़त में तफ़सीरे अह़्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम है और येह तफ़सीर इमाम बाक़िर अ़लैहिस्सलाम और इमाम सादिक़ – – – से है – – –

और इसमें एक इल्ज़ाम आ़एद किया कि इस किताब में मोअ़्‌तबर तरीन रवायात “अबिल जारूद” से हैं, जो कि बिला शुब्हा एक मुल्हिद, ज़िन्दीक़ और अइम्मतुल हुदा के नज़्दीक एक मलऊ़न है बल्कि इमामे मअ़्‌सूम ने अबिल जारूद को शैतान कहा है।२

जवाब: मरह़ूम ह़ामिद ह़ुसैन हिन्दी क़ुद्देस सिर्रहू ने इ़ल्मे रेजाल और इ़ल्मे ह़दीस की रोशनी में अबिल अल ज़ारूद की ह़ैसियत को बयान किया है। इस मज़्मून में हमारा येह मौज़ूअ़्‌ फ़िलह़ाल नहीं है। लेकिन मोह़क़्क़ेक़ीन ह़ज़रात किताब इस्तेख़्राज़ुल मरामज़रूर मुलाह़ेज़ा करें।

अब तह़रीफ़े क़ुरआन के सिलसिले में मुलाह़ेज़ा फ़रमाएँ:

क़ुरआन करीम कलामुल्लाह अ़ज़्ज़ व जल्ल है। नबीए अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम और अह्लेबैते अतह़ार अ़लैहिमुस्सलाम से वारिद अख़बाररवायात में क़ुरआन का हिफ़्ज़ करना, उस पर अ़मल करना और उससे रुजूअ़्‌ करना कसरत से नक़्ल हुआ है। क़ुरआन की तअ़्‌ज़ीम का वजूद और उसकी तौहीन का ह़राम होना हर लेह़ाज़ से साबित है। येह भी एक बह़्स है जिसे मरह़ूम मुअल्लिफ़ ने पेश किया है।

ऐज़न २/

तमाम उ़लमाए इमामिया ने फ़त्वा दिया है कि मौजूदा क़ुरआन में जो कुछ है उसकी सूराआयात में हरगिज़ नक़्स नहीं है।

रवायतों में तआ़रुज़ और टकराव जो शीआ़ किताबों में पाया जाता है, उनमें से अक्सर ज़ई़फ़ुस्सनद हैं और बहुत कम उनमें से मोअ़्‌तबर हैं और वोह क़वी दलीलों के साथ बयान होती हैं और ताएफ़ए इमामिया इस्ना अ़शर सह़ीह़ किताबों में अव्वल से आख़िर तक मक़तूउ़स्सदूर हैं यअ़्‌नी उनका सुदूर रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम या किसी इमामे मअ़्‌सूम अ़लैहिस्सलाम से है।१

लेकिन जमहूरे अह्ले सुन्नत इस बात के क़ाएल हैं कि किताब बुख़ारी और किताब मुस्लिम जिनको सह़ीह़ैन कहा जाता है, उन में नक़्ल होने वाली तमाम रवायतें सह़ीह़ हैं। और यक़ीनन उनके अक्सर मुह़क़्क़ेक़ीन सह़ीह़ैन के बारे में येह कहते नज़र आते हैं कि तमाम अल्फ़ाज़कलेमात इस किताब के मक़तूअ़तुस्सुदूर हैं। मसलन सुयूती, अल बलक़ीनी, इब्नुस्सलाह़, इब्ने कसीर, जमाअ़ते शाफ़ई़या जैसे अबू इस्ह़ाक़, अबू ह़ामिद अस्फ़राएनी, क़ाज़ी अबू तय्यब और इसी तरह़ ह़ंबली और अश्अ़री और अह्ले ह़दीस और बअ़्‌ज़ सूफ़ी ह़ज़रात भी इसी बात के क़ाएल हैं।२

ख़ुलासा येह कि अह्ले सुन्नत के यहाँ ह़दीस के सह़ीह़ होने का मेअ़्‌यार बुख़ारी और मुस्लिम है।

ऐज़न, .११३

ऐज़न, .११४

हमारी अस्ल बह़्स

आया शीआ़ तह़रीफ़ के क़ाएल है या अह्ले सुन्नत? नमूने के लिए चन्द आयात और उसकी तफ़सीर उ़लमाए अह्ले सुन्नत के ज़रीए़ नक़्ल कर रहे हैं और क़ारेईन पर छोड़ते हैं कि वोह ख़ुद फ़ैसला करें कि ह़क़ीक़त क्या है। मरह़ूम अ़ल्लामा ह़ामिद ह़ुसैन हिन्दी क़ुद्देस सिर्रहू ने बहुत सी आयतों का ज़िक्र किया है, हम यहाँ चन्द आयतों को नक़्ल करते हैं:

सूरतुल अह़ज़ाब:

व क़ालस्सुयूती फ़ी (अल इत्तेक़ान)

क़ाऐ अबू उ़बैद: ह़द्दसना इस्माई़ल बिन जअ़्‌फ़र अ़न ज़र बिन जैश क़ा: काल अबी बिन कअ़्‌ब काइन तअ़द्द सूरतुल अह़ज़ाब? क़ुल्तो: इस्नतैने व सब्ई़न आयतन औ सलासन व सब्ई़न आय

ज़र कहता है कि उबई बिन कअ़्‌ब ने मुझसे कहा: ऐ ज़र! सूरए अह़ज़ाब की चन्द आयतें हैं? मैंने कहा बहत्तर या तिहत्तर आयत फिर कहते हैं: नहीं, बल्कि येह सूरह, सूरए बक़रा की मानिन्द या उस से ज़्यादा थी।३

आयतुर्रज्म:

व फ़ी (सह़ीह़िल बुख़ारी):

इब्ने अ़ब्बास ने नक़्ल किया है कि उ़मर ने मिम्बर से बयान किया ख़ुदा वन्द मुतआ़ल ने मोह़म्मद सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम को ह़क़ के साथ भेजा और उन पर किताब नाज़िल की, और उन आयतों में से एक आयत, आयते रज्म है कि जिसको हमने पढ़ा और समझा, और इसी आयत के मुताबिक़ रसूले ख़ुदा ज़ेना करने वाले को संगसार करते, और उनके बअ़्‌द हम भी उन्हीं की रविश पर अ़मल किया करते। लेकिन मैं डरता हूँ कि एक वक़्त इस उम्मत पर ऐसा आएगा कि कहने वाला कहेगा। ख़ुदा की क़सम, आयते रज्म को क़ुरआन में नहीं पाया और फिर एक ह़ुक्म जिसको ख़ुदा ने भेजा है उसके तर्क करने से गुमराही में जा पड़ेंगे।४

अल इत्तेक़ान फ़ी उ़लूमिल क़ुरआन, /८२; इस्तेख़्राजुल मराम, /११६

सह़ीह़ बुख़ारी, /२०९; इस्तेख़्राजुल मराम, /१२७

आयतुस्सलात अलन्नबी सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम

ह़मीदा बिन्ते अबू यूनुस नक़्ल करती हैं कि: मेरे वालिद अस्सी साल के थे और इस आयत को मुसह़फ़े आएशा से मेरे लिए इस तरह़ पढ़ते थे:

इन्नल्लाह व मलाएकतोहू युसल्लून अ़ल्लन्नबीये या अय्योहल लज़ीना आमनू सल्लू अ़लैहे व सल्लेमू तस्लीमा व अ़लल लज़ीना युसल्लूनस सुफ़ूफ़िल अव्वल.

ह़मीदा कहती हैं: येह उस वक़्त की बात है कि अभी उ़स्मान ने क़ुरआन को तब्दील नहीं किया था।१

इन आयतों के अ़लावा अ़ल्लामा मीर ह़ामीद ह़ुसैन हिन्दी क़ुद्देस सिर्रहू ने दूसरी बहुत सी आयतों का तज़्केरा किया जिन में बहुत सी सुन्नी रवायतों के मुताबिक़ क़ुरआन की आयतों में नक़्सग़लती की तरफ़ इशारा किया गया है। मसलन सूरए तशब्बहे बराअत, सूरए ह़फ़्दख़ल्अ़्‌,आयतुल जेहाद, आयतुर्रज़ाअ़्‌, आयते ह़मीयते जाहेलीयत, आयते सलातुल वुस्ता, आयाते सलातुल जुमुआ़, आयते तलाक़, आयते तब्लीग़। तक़रीबन बीस आयतों का तज़्केरा किया है और इन बीस आयतों के लिए एक से ज़्यादा ह़दीसें अह्ले सुन्नत ह़ज़रात की किताब से नक़्ल की हैं जो वाज़ेह़ तौर पर उन आयतों में नक़्स, कमी या ज़ेयादती की निशानदेही करती हैं।

अल इत्तेक़ान फ़ी उ़लूमिल क़ुरआन ३/८२, इस्तेख़्राजुल मराम १/१३३

इसके बअ़्‌द अ़ल्लामा मीर ह़ामिद ह़ुसैन हिन्दी ने मुदल्लल जवाब दिया है कि नक़्सतह़रीफ़ अह्ले सुन्नत की सह़ीह़ तरीन किताबों से उन के यहाँ साबित है लेकिन शीआ़ उ़लमा इसके क़ाएल नहीं हैं।

फ़ैज़ाबादी के जवाब में अ़ल्लामा ह़ामिद ह़ुसैन हिन्दी क़ुद्देस सिर्रहू ने मज़्कूरा आयतों और सूरतों में नक़्स या कमीज़ेयादती को उ़लमाए अह्ले सुन्नत के नज़्दीक सह़ीह़ होने को साबित किया है। सुयूती और फ़ख़े्रराज़ी जैसे बुज़ुर्ग सुन्नी मुफ़स्सेरीन ने उन रवायतों को सह़ीह़ क़रार दिया है।

इत्माम:

मज़्मून के आख़िर में इस बात की वज़ाह़त ज़रूरी है कि:

अगर एक लफ़्ज़ या चन्द अल्फ़ाज़ को क़ुरआन से निकाल दिया जाए या क़ुरआन में बढ़ा दिया जाए अगरचे इस तरह़ हो कि क़ुरआन की ह़क़ीक़त में कोई तब्दीली न हुई हो तो भी इस अ़मल को तह़रीफ़ नाम दिया जाता है।

इसी तरह़ आयत या सूरह को क़ुरआन में कम करना या ज़्यादा करने को भी तह़रीफ़ कहते हैं।

इसी तरह़ अगर कोई येह कहे कि मौजूदा क़ुरआन का कुछ ह़िस्सा कलामे ख़ुदा नहीं है तो येह भी तह़रीफ़े क़ुरआन है।

ख़ुलासा येह कि शीओ़ं पर तह़रीफ़ की तोहमत सरासर ग़लत है और बेजा है बल्कि मसअला बरअ़क्स है इसलिए कि अह्ले सुन्नत की रवायतों से उन के यहाँ तह़रीफ़ साबित है।

ख़ुदाया इमामे ज़माना अ़लैहिस्सलाम के ज़हूर में तअ़्‌जील फ़रमा और उन्हीं के ज़रीए़ ह़क़ीक़ते क़ुरआन को आश्कार फ़रमा। आमीन

अमीरुल मोअ्‌मेनीन अ़लैहिस्सलाम ने ख़ेलाफ़त के लिए तलवार क्यों नहीं उठाई

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की रेह़लत के बअ़्‌द इस्लामी मुआ़शरे में जो तब्दीलियाँर् आइं उन में एक येह थी कि आले पैग़म्बर को किनारा कश कर दिया गया। अह्लेबैते अत्हार अ़लैहिमुस्सलाम को ह़याते पैग़म्बर सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम में मरकज़ी ह़ैसियत ह़ासिल थी, मगर दौरे ख़ेलाफ़ते शेख़ैन में उन्हें फ़रामोश कर दिया गया। आले मोह़म्मद अ़लैहिमुस्सलाम को न सिर्फ़ येह कि ह़ुकूमती उमूर से दूर कर दिया गया, बल्कि उनकी बाबत आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के जो अक़वालइरशादात अह़ादीस की शक़्ल में थे, उन्हें बयान करने पर पाबन्दियाँ आ़एद कर दी र्गइं ताकि अ़वामुन्नास उनके फ़ज़ाएलमनाक़िब से बेख़बर और अन्जान रहें और उम्मते मुस्लेमा में उनके असर को कम किया जा सके साथ ही साथ उनके ह़क़ को ग़स्ब करके उनको कमज़ोर बना दिया गया। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने ह़ज्जे आख़िर की वापसी में ग़दीरे ख़ुम के मैदान में ह़ज़रत अ़ली अ़लैहिस्सलाम को अपना ख़लीफ़ा, वसीजानशीन होने का एअ़्‌लान कर दिया था। इस बात को तमाम अह्ले इस्लाम क़बूल करते हैं कि आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने मौला अ़ली अ़लैहिस्सलाम के मुतअ़ल्लिक़ येह एअ़्‌लान किया था कि:

जिसका मैं मौला हूँ उसके येह अ़ली अ़लैहिस्सलाम भी मौला हैं”

अह्ले तसन्नुन इस बात को तो तस्लीम करते हैं, मगर उनको पहला ख़लीफ़ा नहीं मानते, उनका मानना है कि अ़ली अ़लैहिस्सलाम का ख़ामोशी एख़्तेयार करना दूसरों की ख़ेलाफ़त की ताई़द करना है। क़ौले रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम है कि:

अ़ली अ़लैहिस्सलाम ह़क़ के साथ और ह़क़ अ़ली अ़लैहिस्सलाम के साथ है।”

इसलिए अ़ली अ़लैहिस्सलाम का शेख़ैन के ख़ेलाफ़ ख़ामोश रहना इस बात की अ़लामत है कि वोह शेख़ैन की ख़ेलाफ़त से राज़ी थे। अह्ले तसन्नुन और उनकी तरह़ फ़िक्र रखने वाले मौला अ़ली अ़लैहिस्सलाम की ख़ामोशी को शेख़ैन की ह़ुकूमत की ह़ेमायत समझते हैं जब कि शीआ़ इस बात के क़ाएल हैं कि ख़ेलाफ़त उनका ह़क़ है और वोह उनसे ग़स्ब कर लिया गया। येह ख़ेलाफ़त उनको बह़ुक्मे ख़ुदा, रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने अ़ता की है जो कोई उनसे छीन नहीं सकता। इसलिए मौला अ़ली अ़लैहिस्सलाम को क्या ज़रूरत है कि किसी से अपनी ख़ेलाफ़त का इक़रार करवाएँ।

बहरह़ाल अमीरुल मोअ्‌मेनीन अ़लैहिस्सलाम की ख़ामोशी और तलवार न उठाना उनके मुख़ालेफ़ीन के ह़क़ पर होने की दलील नहीं बनता। ह़क़ हमेशा अ़ली अ़लैहिस्सलाम के साथ है चाहे उनके मुक़ाबिल में कोई भी हो। फिर भी आप अ़लैहिस्सलाम ने अपने ह़क़ को ह़ासिल करने के लिए तलवार का इस्तेअ़्‌माल नहीं किया। इस ख़ामोशी की बहुत सारी वजहें रही हैं जिस में से कुछ पर हम ताएराना निगाह इस मक़ाले में डाल रहे हैं।

उसे सय्याद ने कुछ, गुल कुछ, बुलबुल ने कुछ समझा

चमन में कितनी मअ़्‌ना ख़ेज़ थी एक ख़ामोशी मेरी

ह़ज़रत अ़ली अ़लैहिस्सलाम ने ख़ेलाफ़त ह़ासिल करने के लिए अपने मुख़ालेफ़ीन के ख़ेलाफ़ तलवार क्यों नहीं उठाई, इसके मुतअ़द्दिद वजूहात किताबों में दर्ज हैं। उनमें से एक वजह येह है कि ह़ज़रत अ़ली अ़लैहिस्सलाम को ख़ुद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने इस बात से रोका था।

बेह़ारुल अनवार और दीगर शीआ़ कुतुब के अ़लावा अह्ले तसन्नुन उ़लमा ने भी इस बात को अपनी अपनी किताबों में नक़्ल किया है। बतौरे नमूना एक रवायत पेश है:

क़ाल रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम : या अ़ली अन्‌त बेमन्ज़ेलतिल कअ़्‌बा तूअ्‌ती वला ताती. फ़इनन अताक हाऊलाइल क़ौमे फ़सल्लेमूहा इलैक। यअ़्‌निल ख़ेलाफ़तेफ़ अक़ल मिन्हुम व इन लम यातूक फ़ला तातिहिम ह़त्ता यातू.

पैग़म्बर अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने मौला अ़ली अ़लैहिस्सलाम से फ़रमाया:

ऐ अ़ली! तुम्हारी मन्ज़ेलत कअ़्‌बे की सी है लोग उसके पास जाते है वोह लोगों के पास नहीं जाता। पर अगर येह उम्मत तुम को अपना ख़लीफ़ा मान ले तो तुम क़बूल कर लेना और अगर येह तुम्हारे पास न आएँ तो तुम भी उसके पास न जाना तावक़्‌ते कि लोग तुम्हारे सामने तस्लीम हों।”

आले मोह़म्मद सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम, .६२४, अ़ल्लामा ह़िसामुद्दीन अल ह़नफ़ी

इसी तरह़ की एक रवायत अह्ले तसन्नुन की किताब ग़ायतुल मराम में इस तरह़ नक़्ल हुई है:

क़ाल रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम :

या अ़ली अन्‌त बेमन्ज़ेलतिल कअ़्‌बा तूअ्‌ती वला ताती. फ़इन्‌न अताक हाउलाइल क़ौमे फ़मकनू लक हाज़ल अम्रे फ़ अक़बलहू मिन्हुम व इन लम यातू क फ़ला तातिहिम.

रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने ह़ज़रत अ़ली अ़लैहिस्सलाम से फ़रमाया:

ऐ अ़ली! तुम्हारी मन्ज़ेलत तो बस कअ़्‌बा की सी है, लोग उसके पास जाते हैं वोह लोगों के पास नहीं जाता। पस अगर येह क़ौम इस अम्र (ख़ेलाफ़त) को तुम्हारे ह़वाले कर दे तो क़बूल कर लेना और अगर येह लोग तुम्हारे पास न आएँ तो तुम भी उनके पास न जाना।

ग़ायतुल मराम, फ़ी रेजालिल बुख़ारी एला सैयदिल अनाम स.७३, अ़ल्लामा शेख़ मोह़म्मद बिन दाऊद अलह़मूदी शाफ़ई़

इन रवायात से येह वाज़ेह़ हो जाता है कि अमीरुल मोअ्‌मेनीन अ़लैहिस्सलाम ने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की नसीह़त पर अ़मल किया और ख़ामोशी एख़्तेयार कर ली। मगर वक़्तन फ़वक़्तन वोह अपने ह़क़ को लोगों पर वाज़ेह़ करते रहे और उनको वोह वाक़ेआ़त और अह़ादीस भी याद दिलाते रहे, जिन में आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने उनकी ख़ेलाफ़त का ज़िक्र किया है, मगर लोगों ने उनकी बात को क़बूल नहीं किया। इसलिए आप अ़लैहिस्सलाम ने पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की वसीयत पर अ़मल करते हुए ख़ामोशी एख़्तेयार कर ली और तलवार नहीं उठाई।

कअ़्‌बे के पास न जाने से न कअ़्‌बे की अहम्मीयतअ़ज़मत कम होती है और न ही कअ़्‌बे की तरफ़ न जाने वालों की ह़क़्क़ानियत साबित होती। बल्कि कअ़्‌बे से दूरी ख़ुद अपनी ज़लालतगुमराही की अ़लामत है। कअ़्‌बा की ह़क़्क़ानियत लोगों के तवाफ़ करने की मरहूने मिन्नत नहीं है बल्कि कअ़्‌बा एक ह़क़ीक़ते साबित है। कअ़्‌बा लोगों के पास जाकर अपना तवाफ़ नहीं कराता। तो ह़ज़रत अ़ली अ़लैहिस्सलाम लोगों के पास क्यों जाते।

दूसरी वजह जिसका ज़िक्र अह़ादीस में मिलता है वोह येह है कि ख़ुद अमीरुल मोअ्‌मेनीन अ़लैहिस्सलाम को इस बात का ख़दशा था कि कहीं मुसलमान मुरतद न हो जाएँ। उस वक़्त इस्लाम अपने इब्तेदाई दौर में था और बहुत से लोगों को इस्लाम क़बूल किए हुए बमुश्किल पाँच साल या उससे भी कम की मुद्दत हुई होगी। इन ह़ालात में ख़ेलाफ़त के लिए दो मुसलमान गिरोहों में आपसी जंग उन लोगों को इस्लाम से मुतनफ़्फ़िर और मुन्ह़रिफ़ कर देती। न सिर्फ़ येह कि येह नए मुसलमान फिर से कुफ़्र एख़्तेयार कर लेते बल्कि जो लोग इस्लाम की तरफ़ माएल थे वोह भी इस्लाम से दूर हो जाते। किताब ए़ललुश्शराए़ में शेख़ सदूक़ अ़लैहिर्रह़्मा ने एक बाब में इस मज़्मून पर अह़ादीस जमअ़्‌ की हैं। उन में एक रवायत के मुताबिक़ छटे इमाम के सह़ाबी ज़ोरारा बिन अअ़्‌युन ने जब उनसे सवाल किया कि क्या सबब था कि अमीरुल मोअ्‌मेनीन ने लोगों को अपनी ख़ेलाफ़त की तरफ़ दअ़्‌वत नहीं दी तो इमाम जअ़्‌फ़र सादिक़ अ़लैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि उन्हें इस बात का ख़ौफ़ लाह़क़ था कि कहीं लोग मुरतद न हो जाएँ।

अ़न ज़ोरारा क़ा: क़ुल्‌त लेअबी अ़ब्दिल्लाह अ़लैहिस्सलाम मा मअ़ अमीरुल मोअ्‌मेनीन अ़लैहिस्सलाम अन यदउ़न्नास एला नफ़्‌सेही, क़ाल ख़ैफ़न अन यरतद्द.

शायद यही सबब रहा हो कि रसूले अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने भी अमीरुल मोअ्‌मेनीन अ़लैहिस्सलाम को ग़ासेबीने ख़ेलाफ़त के ख़ेलाफ़ तलवार उठाने से रोका हो। ख़ुद मौलाए काएनात अ़लैहिस्सलाम को भी येह बात नगवार थी कि लोग उनकी वजह से इस्लाम से बदज़न हो जाएँ। इन अफ़राद का शहादतैन ‘ला एलाह इल्लल्ला ह मोह़म्मदुर्रसूलुल्लाह’ का इक़रार कर लेना कम अज़ कम उन्हें मुसलमान तो बना ही रहा था। वरना ख़ेलाफ़त की जंग में शायद येह लोग इस कलमे से भी क़तअ़्‌ तअ़ल्लुक़ करके काफ़िर हो जाते। दूसरे येह भी मुमकिन था कि मुसलमानों की आपसी जंग का फ़ाएदा उनके मुख़ालेफ़ीन उठाते और इस्लाम के पौधे को पनपने ही न देते।

ए़ललुश्शराए़, जि., .१४९

तीसरी वजह जिसकी बेना पर अमीरुल मोअ्‌मेनीन अ़लैहिस्सलाम ख़ामोश रहे वोह हम ख़याल मददगारों की कमी। किसी भी मुहिम के लिए मुख़्लिस अन्सार की ज़रूरत पड़ती है, मौलाए काएनात को भी ग़ासेबाना ख़ेलाफ़त से नबर्दआज़्मा होने के लिए मुख़्लिस मुई़नमददगार चाहिए थे। उनके अपने हदफ़ तक पहुँचने के लिए ऐसे अस्ह़ाब की ज़रूरत थी जो न सिर्फ़ येह कि आप का साथ दें बल्कि ऐसे अफ़राद जो आपके मक़सद को भी बख़ूबी पहचानते हों। ऐसा हरगिज़ न था कि अ़ली अ़लैहिस्सलाम के लिए एक लश्कर तैयार कर पाना मुह़ाल हो मगर जिस तरह़ के मुख़्लिस अफ़राद आपको दरकार थे वोह दस्तियाब नहीं थे। इस ह़क़ीक़त का इज़्हार मौला अ़ली अ़लैहिस्सलाम ने अबू सुफ़ियान से भी किया था जब वोह उनकी मदद करने का इरादा लेकर आया। अबू सुफ़ियान ने येह पेशकश रखी थी कि “अगर आप चाहें तो मैं आप की ह़ेमायत में बनी उमय्या और उनके साथी क़बीलों का एक लश्कर खड़ा कर दूँ जिन की मदद से आप उन दोनों (शेख़ैन) से अपने चचाज़ाद भाई की ह़ुकूमत को दोबारा ह़ासिल कर लें।”

ह़ज़रत अ़ली अ़लैहिस्सलाम ने उसको एक जवाब येह भी दिया:

लव वजद्‌तो अअ़्‌वानन अर्बई़न रजोलन मिनल मुहाजेरीन वल अन्सारे मिनस साबेक़ते लनाहज़्तो हाज़र्रजोल।२

अगर मुहाजेरीन और अन्सार में पहले ईमान लाने वाले अफ़राद में से चालीस अफ़राद भी मेरा साथ देते तो मैं उस शख़्स से ज़रूर जंग करता।

इस जुम्ले से येह बात ज़ाहिर हो रही है कि अ़ली अ़लैहिस्सलाम को सिर्फ़ उन दोनों से ह़ुकूमत ह़ासिल करनी नहीं थी, बल्कि ऐसे अफ़राद की भी ज़रूरत थी जो मु़िख्लस मुसलमान हों, जिन्होने दीन में सबक़त ह़ासिल की हो और जो दीन का दर्द समझते हों। आप अ़लैहिस्सलाम की नुसरत के लिए एक लश्कर तो आमादा हो जाता मगर येह ह़ुकूमत तलबी इस्लाम को नुक़सान पहुँचाती। अब अगर अमीरुल मोअ्‌मेनीन क़िल्लते अन्सार के बावजूद भी ख़ेलाफ़त की ह़ुसूलयाबी के लिए जंग करते तो यक़ीनन मुख़ालेफ़ीन आप पर ग़ालिब आ जाते और आप और आप के साथियों को क़त्ल कर देते। फिर येह मुख़ालेफ़ीन दीने इस्लाम की शक्ल को इस क़द्र बिगाड़ देते कि इसमें ह़क़ीक़ी इस्लाम का कोई भी उ़न्सुर बाक़ी न रहता। अमीरुल मोअ्‌मेनीन अ़लैहिस्सलाम की ख़ामोशी ने इस्लाम को इस बहुत बड़े नुक़सान से बचाया। आज दुनिया येह तो ज़रूर जानती हैं कि इस्लाम की दो सूरतें हैं एक अ़ली अ़लैहिस्सलाम और उनके घराने का इस्लाम और एक उनके मुख़ालेफ़ीन का इस्लाम।

किताब सुलैम, .३०३; शर्ह़े नहजुल बलाग़ा, इब्ने अबिल ह़दीद, जि., .४७

इसी से जुड़ी एक और वजह येह है कि आप अ़लैहिस्सलाम नहीं चाहते थे कि अपने अह्लेबैत और मुख़्लिस शीओ़ं की ज़िन्दगी को ख़तरे में डालें। नहजुल बलाग़ा में मौलाए काएनात का येह जुम्ला मिलता है:

नज़र्तो फ़एज़ा लैस ली राफ़ेदुन वला ज़ाब्बुन वला मुसाए़दुन इल्ला अह्लबैती फ़ज़निन्तो बेहिम अ़निल मनीयते.

पस मैंने देखा कि मेरे घर वालों के अ़लावा कोई मेरा यारमददगार नहीं है कि मेरा देफ़ाअ़्‌ करे। पस मैंने नहीं चाहा कि उन्हें मौत के ह़वाले कर दूँ। (इसलिए मैं ख़ामोश हो गया और मैंने सब्र किया)…

नहजुल बलाग़ा, ख़ुत्बा २१७

मुसलमानों ने आले रसूल के साथ कैसा रवय्या रखा, इस बात का एअ़्‌लान तारीख़ पुकार पुकार कर कर रही है। तारीख़ के सफ़ह़ात गवाह हैं कि इक़्तेदार की ह़ुसूलयाबी के लिए अह्लेबैते रसूल को कैसे कैसे मौत के घाट उतार दिया गया, उन में से किसी को ज़ह्र दिया गया तो किसी को तलवार से शहीद कर दिया गया। अगर अमीरुल मोअ्‌मेनीन अ़लैहिस्सलाम ख़ेलाफ़त के लिए तलवार उठाते तो उनके मुख़ालेफ़ीन यक़ीनन तमाम अह्लेबैत को इस बहाने क़त्ल कर देते और शम्ए़ हेदायत को हमेशा हमेशा के लिए गुल कर देते।

इन चन्द अहम वजूहात के अ़लावा अक़वाले मअ़्‌सूमीन में अमीरुल मोअ्‌मेनीन अ़लैहिस्सलाम की ख़ामोशी की और भी वजूहात बयान की गई हैं। आप अ़लैहिस्सलाम ने इस पुरआशोब माह़ौल में जो भी क़दम उठाया, वोह इस्लाम और मुसलमानों की भलाई के लिए था। अ़ली अ़लैहिस्सलाम जैसे सूरमा के लिए जंग कर लेना आसान था मगर आप अ़लैहिस्सलाम ने अपने लिए इस क़द्र मुश्किल रास्ते को मुन्तख़ब किया और रसूले अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की वसीयत पर अ़मल करते हुए आप अ़लैहिस्सलाम ने सब्र किया। इस इन्तेख़ाब ने न सिर्फ़ येह कि आप अ़लैहिस्सलाम के अह्लेबैत और शीओ़ं की उस वक़्त जान की ह़ेफ़ाज़त की बल्कि हमेशा हमेशा के लिए आपके शीओ़ं को उनके दुश्मनों के शर से उनके तह़फ़्फ़ुज़ की राह पैदा कर दी। येह बात भी अज़हर मिनश्शम्स है कि आप अ़लैहिस्सलाम शेख़ैन की ख़ेलाफ़तों से राज़ी न थे। आप अ़लैहिस्सलाम की ख़ामोशी की येह मतलब बिल्कुन नहीं है कि आप अपने मुख़ालेफ़ीन के अ़मल से राज़ी थे, या आप अ़लैहिस्सलाम ने अपने ख़ेलाफ़त के दअ़्‌वेदारी को फ़रामोश कर दिया था। बल्कि आप अ़लैहिस्सलाम ने बारहा ग़ासेबीने ख़ेलाफ़त को ज़ालिम और ख़ुद को मज़्लूम बताया है। इसका सबूत आप अ़लैहिस्सलाम का मशहूर ख़ुत्बाख़ुत्बए शिक़शिक़ीया नहजुल बलाग़ा में मौजूद है।

ज़रूरतइन्तेख़ाबे इमाम

तौह़ीद दर इन्तेख़ाब

ख़ुदा के कामिल तरीन दीन “इस्लाम” की बहुत ही वाज़ेह़ ख़ुसूसियात जिसमें वोह दुनिया के तमाम आसमानी और ग़ैर आसमानी अदियान से मुम्ताज़ है कोई एक भी इस ख़ुसूसियत में इस्लाम के साथ शरीक नहीं है वोह “तौह़ीद” है। दीने मुक़द्दसे इस्लाम ने तौह़ीद का जो तसव्वुर पेश किया है वोह कहीं और नज़र नहीं आता है। येह तसव्वुरे तौह़ीद सिर्फ़ ख़याली नहीं है बल्कि ह़क़ीक़ी है। उसूले दीन के तमाम उसूल और अ़क़ीदे में तौह़ीद का तसव्वुर वाज़ेह़ और नुमायाँ है।

तौह़ीदयअ़्‌नी ख़ुदा के अ़लावा कोई और ख़ुदा नहीं है। सिर्फ़ और सिर्फ़ बस वही ख़ुदा ए़बादत के लाएक़ है। उसकी ज़ात और ए़बादत में कोई उसका शरीक नहीं है।

अ़द्‌लवोह अपने अ़द्‌लइन्साफ़ में और तमाम दीगर सिफ़ात में मुनफ़रिद है कोई भी उस जैसा नहीं है।

नबूवतशरीअ़ते ख़ुदा वन्दी बस नबूवत के ज़रीए़ लोगों तक पहुँचती है। बस ख़ुदा ही है जो नबी क़रार देता है। शरीअ़त नबूवत में मुन्ह़सिर है।

इमामतएताअ़त, वेलायत, रहबरी बस उन लोगों से मख़्सूस है जिन को ख़ुदा ने इमाम क़रार दिया है। उनके अ़लावा किसी और की एताअ़तइमामतरहबरी क़ाबिले क़बूल नहीं है।

क़यामतसब का अन्जाम एक है। यहाँ कामियाबी का मेअ़्‌यार ख़ुलूसइख़्लास है।१

अब अगर कोई ख़ुदा के फ़रुस्तादा नबी और ख़ुदा के मुन्तख़ब कर्दा इमाम के अ़लावा किसी और की शरीअ़त की पाबन्दी कर रहा है और एताअ़त कर रहा है तो वोह ख़ुदा के अ़लावा किसी और को उस ह़क़ में ख़ुदा का शरीक क़रार दे रहा है यअ़्‌नी ख़ुदा के अ़लावा किसी और को भी येह ह़क़ ह़ासिल है कि वोह भी नबीइमाम मुअ़य्यन कर सकता है। येह दूसरे चन्द अफ़राद हों या पूरी एक उम्मत। ख़ुदा के बनाए हुए नबी के अ़लावा किसी और की नबूवत का अ़क़ीदा रखना ख़ुदा के मुन्तख़ब कर्दा इमाम के अ़लावा किसी और की एताअ़त करना येह उस दूसरे को ख़ुदा के साथ शरीक करना है।

अल इमामतुल इलाहिया, शेख़ुस्सनद, जि.

तअ़्‌रीफ़े इमामत:

इमामत का मौज़ूअ़्‌ रोज़े अव्वल से बहुत बह़्सगुफ़्तुगू का मरकज़ रहा है। बात को आगे बढ़ाने से पहले येह अ़र्ज़ करना चाहते हैं कि इमामत की तअ़्‌रीफ़ क्या है। साथ साथ येह बात भी ज़िक्र करना चाहते हैं कभी मिस्दाक़ मुअ़य्यन करने से पहले तअ़्‌रीफ़ की जाती है और इस तअ़्‌रीफ़ की रोशनी में मसादीक़ तलाश किए जाते हैं इस सूरत में मसादीक़ तअ़्‌रीफ़ से हमआहन्ग और मुताबिक़ होते हैं और कभी मसादीक़ पहले मुअ़य्यन किए जाते हैं फिर उनके मुताबिक़ तअ़्‌रीफ़ की जाती है। इस सूरत में मेअ़्‌यार बदलते रहते हैं क्योंकि मसादीक़ एक मेअ़्‌यार के नहीं होते हैं। लेहाज़ा तअ़्‌रीफ़ भी बदलती रहती है।

कुछ लोगों का येह ख़याल है कि इमामत एक दुनियावी रेयासतह़ुकूमत है जिसकी ज़िम्मादारी मुल्क की सरह़दों की ह़ेफ़ाज़त करना अ़वामुन्नास के उमूर की देख रेख करना, शहरों में अम>-अमान बरक़रार रखना वग़ैरह। यअ़्‌नी दुनिया के दीगर सियासीमुल्की सरबराहों की तरह़ एक सरबराही है एक रहनुमाई है जिसका दाएरएकार दुनियावी उमूर में मह़दूद है।

जबकि बअ़्‌ज़ लोगों ने तअ़्‌रीफ़े इमामत में दुनियावी रेयासत के साथ साथ दीनी रेयासत, क़यादत की भी शर्त लगाई है। जिस में मज़्कूरा मक़ासिद के अ़लावा दीन की तब्लीग़इशाअ़त भी शामिल है।

लेकिन ह़क़ीक़ते इमामत इन दो बातों और इन दो तअ़्‌रीफ़ों में मुन्ह़सिर नहीं है येह दोनों बातें ह़क़ीक़त का बस एक जुज़ हैं अस्ल ह़क़ीक़त नहीं हैंक्योंकि इन दो उमूर की अदाएगी के लिए न इ़स्मत ज़रूरी है और न इ़ल्मे एलाहीलदुन्नी। येह काम तो दुनिया में हो ही रहा है चाहे अच्छे तरीक़े से अन्जाम पाए चाहे ग़लत तरीक़े से। चाहे ह़ुक्मरान अपने मक़ासिद में कामियाब हों या न हों।

जबकि इमामत में इ़स्मत और इ़ल्मे एलाहीलदुन्नी शर्त है इतनी बड़ी शर्त इस क़द्र अ़ज़ीम सिफ़त और इतना मअ़्‌मूली काम। क्या अ़क्ल इस बात को क़बूल करती है कि मकतब के एक मअ़्‌मूली से बच्चे को अलिफ़, ब पढ़ाने की ख़ातिर दुनिया के उस्तादे अव्वल और मुअ़ल्लिमे लासानी को मुन्तख़ब किया जाए। एक काम जो मअ़्‌मूली से आदमी से हो सकता हो उसके लिए शहनशाहे अअ़्‌ज़म को मुअ़य्यन किया जाए। हो सकता है इन तअ़्‌रीफ़ों के मावरा उस ज़माने के ह़ालात हों ज़ालिम ह़ुक्मरानों की जासूसियाँ होंयेह बात बिल्कुल वाज़ेह़ है अगर इमामत में दुनियावी रेयासतह़ुकूमत शामिल है। यअ़्‌नी वही इमाम होगा जो ह़ुकूमत का सरबराह हो। लोगों पर उसकी ह़ुकूमत हो तो इस सूरत में अक्सर अम्बिया अ़लैहिमुस्सलाम की नबूवतरेसालत और अक्सर अइम्मा अ़लैहिमुस्सलाम की इमामत मूरिदे सवाल होगी। जबकि इन तमाम ह़ज़रात की नबूवत, रेसालत और इमामत इस क़द्र यक़ीनी है जिस पर ईमान लाए बग़ैर इन्सान मुसलमान नहीं हो सकता है। तो अब सवाल येह है कि इमामत क्या है और क्यों ज़रूरी है।

ज़ैल की दलीलें इमामत की ज़रूरत नेहायत वाज़ेह़ अल्फ़ाज़ में साबित करती हैं इस दलील से येह भी वाज़ेह़ हो जाएगा येह वोह ज़रूरत है जो हमेशा बाक़ी है। यअ़्‌नी इमामत मुसल्सल रहनुमाई है जिसका सिलसिला क़यामत तक जारी रहेगा।

हिशाम बिन ह़कम की रवायत है एक ज़िन्दीक़ (दीन का इन्कार करने वाला) ने ह़ज़रत इमाम जअ़्‌फ़र सादिक़ अ़लैहिस्सलाम से दरियाफ़्त किया:

ज़रूरते इमाम :

आप ने नबी और रसूल कहाँ से साबित किए। (यअ़्‌नी किस दलील की बेना पर नबी और रसूल की ज़रूरत है)

इमाम अ़लैहिस्सलाम ने फ़रमाया:

जब येह तय हो गया कि हमारा एक ख़ालिक़ है वोह एक है जिस ने हमें बनाया है वोह हम से और तमाम मख़्लूक़ात से बहुत बलन्दबरतर है। येह सानेअ़्‌, ख़ालिक़, ह़कीम है बलन्द है लोग उसका मुशाहेदा नहीं कर सकते हैं न उसको लम्स कर सकते हैं। न वोह उनके पास बैठ सकता है और न येह उसके पास जा सकते हैं। ताकि वोह एक दूसरे पर दलील क़ाएम कर सकें। तो ज़रूरी है कि उसकी मख़्लूक़ात में उसके नुमाइन्दे हों जो उसकी बातें उसके अह़काम उसकी मख़्लूक़ात और उसके बन्दों तक पहुचाएँ और उनको येह बताएँ कौन सी बातें उनके लिए मुफ़ीद हैं और किस में उनकी मस्लेह़त है किस चीज़ में उनकी बक़ा है और किस चीज़ के तर्क करने में उनकी फ़नानाबूदी है। लेहाज़ा ज़रूरी हुआ कि उस ख़ुदा वन्द ह़कीमअ़लीम की जानिब से कुछ लोग मुअ़य्यन हों जो लोगों को ह़ुक्म दें और मनअ़्‌ करें और ख़ुदा का पैग़ाम पहुचाएँ। यही ह़ज़रात अम्बिया अ़लैहिमुस्सलाम हैं उसकी मख़्लूक़ात में उसके मुन्तख़ब बन्दे हैं। ह़कीम हैं और ह़िकमत के अदब याफ़्ता हैं ह़िकमत के साथ मब्ऊ़स किए गए हैंयेह लोग शक्लसूरत में लोगों से मुशाबेह तो हैं लेकिन ह़क़ीक़त में लोगों से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ हैं। ख़ुदा वन्द ह़कीमअ़लीम की जानिब से ह़िकमत के ज़रीए़ उनकी ताईद की जाती है। येह दलील वाज़ेह़ करती है कि हर दौर और हर ज़माने में अम्बियामुर्सलीन का होना ज़रूरी है। ताकि ज़मीन ह़ुज्जते ख़ुदा से ख़ाली न रहे। हर ज़माने में एक ह़ुज्जत का होना ज़रूरी है जिसके पास ऐसा इ़ल्म हो जो उसकी सदाक़तअ़दालत पर गवाह हो।”१

काफ़ी, जि., .१६८, ह़.

एक और दलील

येह बात पहले अ़र्ज़ कर दें अगर इमाम अ़लैहिस्सलाम के सामने कोई बात बयान की जाए इमाम अ़लैहिस्सलाम उसकी तस्दीक़ कर दें “रवायत का दर्जा रखती है” इसी तरह़ वोह बात भी मोअ़्‌तबरमुस्तनद है जो इमाम अ़लैहिस्सलाम के सामने अन्जाम दी जाए और इमाम अ़लैहिस्सलाम उसकी तर्दीद न करें।

मन्सूर बिन ह़ाज़िम की रवायत हैमैंने ह़ज़रत इमाम जअ़्‌फ़र सादिक़ अ़लैहिस्सलाम की ख़िदमते अक़दस में अ़र्ज़ किया:

ख़ुदा वन्द आ़लम इससे कहीं बलन्दबरतर है कि वोह अपनी मख़्लूक़ के ज़रीए़ पहचाना जाए बल्कि मख़्लूक़ात ख़ुदा वन्द आ़लम के ज़रीए़ पहचानी जाती हैं।

इमाम अ़लैहिस्सलाम ने फ़रमाया तुम्हारा कहना दुरुस्त है। मैंने अ़र्ज़ किया: जो येह मअ़्‌रेफ़त रखता है उसका एक रब है उसको येह जानना चाहिए उस ख़ुदा के लिए ख़ुशनूदी भी है और नाराज़गी भी है। उसकी ख़ुशनूदी और नाराज़गी वह़्य और रसूल के अ़लावा किसी और ज़रीए़ से मअ़्‌लूम नहीं की जा सकती है। जिसके पास वह़्य नहीं आई है उसको रसूल की तलाश करना चाहिए और जब रसूल से मुलाक़ात हो जाए और येह मअ़्‌लूम हो जाए, कि येह ह़ुज्जते ख़ुदा हैं तो उनकी एताअ़तफ़रमाबरदारी लाज़िमज़रूरी है।

मैंने लोगों से कहा: क्या आप जानते हैं ह़ज़रत रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम मख़्लूक़ात पर ख़ुदा की तरफ़ से ह़ुज्जत थे।

उन लोगों ने जवाब में कहा: हाँ यक़ीनन

मैंने कहा: हज़रत रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के दुनिया से चले जाने के बअ़्‌द मख़्लूक़ात पर ख़ुदा की ह़ुज्जत कौन है? कहने लगे: क़ुरआने करीम।

मैंने क़ुरआन को देखा तो देखा कि मुरज्जए क़दरी, ज़िन्दीक़हर एक क़ुरआन से इस्तेदलाल कर रहा है और कामियाब हो रहा है। मुझे यक़ीन हो गया क़ुरआन करीम बग़ैर किसी सरपरस्त और मुह़ाफ़िज़ के ह़ुज्जत नहीं है वोह जो क़ुरआन के बारे में बताए वोह ह़क़ है?

मैंने लोगों से दरियाफ़्त किया: इस वक़्त क़ुरआन करीम का सरपरस्तमुह़ाफ़िज़ कौन है?

कहने लगे: इब्ने मसऊ़द क़ुरआन के बारे में जानते हैं, उ़मर भी जानते हैं, ह़ुज़ैफ़ा भी जानते हैं।

मैंने कहा: क्या येह लोग क़ुरआन करीम का मुकम्मल इ़ल्म रखते हैं?

कहने लगे: नहीं (क़ुरआन करीम का मुकम्मल इ़ल्म तो नहीं रखते हैं )

कहने लगे हमारी नज़र में उन में तो कोई एक भी ऐसा नहीं है जिसके पास क़ुरआन करीम का मुकम्मल इ़ल्म हो सिवाए अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम के

जब क़ौम में कोई मसअला पेश आता है उनसे दरियाफ़्त करो, कहते हैं: ‘नहीं मअ़्‌लूम’ दूसरे से दरियाफ़्त करोवोह कहते हैं ‘नहंीं मअ़्‌लूम’। जब उनसे (अ़लैहिस्सलाम) से दरियाफ़्त करो तो फ़रमाते हैं हाँ मुझे मअ़्‌लूम है।

मैं गवाही देता हूँ क़ुरआन के सरपरस्त मुह़ाफ़िज़ ह़ज़रत अ़ली बिन अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम हैं उनकी एताअ़त वाजिब है और ह़ज़रत रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के बअ़्‌द वही ख़ुदा की तरफ़ से लोगों पर ह़ुज्जत हैं। वोह जो कुछ क़ुरआन करीम के बारे में फ़रमाएँ वोह ह़क़ है।

ह़ज़रत इमाम जअ़्‌फ़र सादिक़ अ़लैहिस्सलाम ने फ़रमाया। ख़ुदा तुम पर रह़्म करे।१

काफ़ी, जि., .१६८, ह़.

इन दोनों रवायतों में ग़ौर करने से चन्द बातें वाज़ेह़ होती हैं।

() अ़क़ीदए इमामत (ह़ुज्जते ख़ुदा) की गुफ़्तुगू उन लोगों से है जो ख़ुदा का इक़रार करते हैं उसकी वह़्दानियत को तस्लीम करते हैं।

() वोह लोग जो ख़ुदा के क़ाएल नहीं हैं उनसे रेसालतइमामत की गुफ़्तुगू बेकार है जब वोह ख़ुदा ही को तस्लीम नहीं करते तो उसके नुमाइन्दों का क्या सवाल।

() ख़ुदा वन्द आ़लम की ज़ात ऐसी है जो लोगों के दरमियान आ नहीं सकती है लोग किसी भी तरह़ अपनी आँख़ों से उसका मुशाहेदा नहीं कर सकते हैं।

() लोगों के मसालेह़मनाफ़ेअ़्‌, ज़ररनुक़सान ख़ुदा के अ़लावा कोई और बयान नहीं कर सकता है। यअ़्‌नी लोगों की कामियाब ज़िन्दगी के लिए क़ानून बनाने का ह़क़ सिर्फ़ ख़ुदा को है।

() जब ख़ुदा है तो यक़ीनन कुछ बातें ऐसी हैं जो उसकी ख़ुशनूदी का सबब हैं और कुछ बातें ऐसी हैं जो उसकी नाराज़गी का सबब हैं।

() जब हम ख़ुदा के वजूद पर यक़ीन रखते हैं और उसकी नेअ़्‌मतों से इस्तेफ़ादा कर रहे हैं तो हमारी ज़िम्मादारी है कि हमेशा उन बातों पर अ़मल करें जो ख़ुदा की ख़ुशनूदी का सबब हैं और उन बातों से परहेज़ करें जो उसकी नाराज़गी का सबब हैं।

() ख़ुदा वन्द आ़लम अपनी लामह़दूद अ़ज़मतों की बेना पर मख़्लूक़ात के दरमियान आ नहीं सकता है।

() ज़रूरी है उस की तरफ़ से नुमाइन्दे आएँ जो लोगों तक उसका पैग़ाम पहुचाएँ।

() यही नुमाइन्दे ह़ुज्जते ख़ुदा हैं जिनका हर दौर में होना ज़रूरी है।

(१०) दूसरी ह़दीस में इस ह़क़ीक़त को पेश किया गया है, क़ुरआन करीम अकेले ह़ुज्जत नहीं है हर एक शख़्स अपनी बातें क़ुरआन से साबित करता है।

(११) जो लोग क़ुरआन के इ़ल्म का दअ़्‌वा करते हैं उन में से कोई एक पूरे क़ुरआन से पूरी तरह़ वाक़िफ़ नहीं है।

(१२) क़ुरआन करीम के लिए एक मुह़ाफ़िज़सरपरस्त की ज़रूरत है जो क़ुरआन करीम से पूरी तरह़ वाक़िफ़ हो क़ुरआन करीम का मुकम्मल इ़ल्म रखता हो। ताकि क़ुरआन करीम के अपने मतालिब बयान कर सके।

(१३) इन सेफ़ात की ह़ामिल सिर्फ़ एक ज़ात से जिसका नाम ह़ज़रत अ़ली बिन अबी तालिब अ़लैहिस्सलाम है।

(१४) बस वही ह़ुज्जते ख़ुदा हैं।

(१५) उनकी एताअ़त हर एक पर लाज़िमज़रूरी है।

इन बातों की रोशनी में येह बात नेहायत दर्जा वाज़ेह़ है हर दौर में हर ज़माने में एक ऐसे शख़्स का वजूद ज़रूरी है:

: जो लोगों को इन तमाम चीज़ों से आगाह कर सके जो उनके लिए फ़ाएदेमन्द या नुक़सानदेह हैं।

: उन बातों की वज़ाह़त करे जिसमें ख़ुदा की ख़ुशनूदी या नाराज़गी है।

: वोह क़ुरआन के ह़क़ीक़ी मतालिब बयान कर सके।

: ताकि लोग ख़ुदा की ए़बादत कर सकें और वोह भी इस तरह़ ए़बादत कर सकें जो पूरी तरह़ ख़ुदा की मर्ज़ी के मुताबिक़ हो। और अपनी ख़िल्क़त के मक़सद को पूरा कर सकें।

: ताकि लोग दुनियाआख़ेरत में सआ़दतमन्द और कामियाब ज़िन्दगी बसर कर सकें।

इन तमाम बातों को मद्दे नज़र रखते हुए तमाम साह़ेबाने अ़क़्लख़ेरद से सवाल करते हैं ह़ज़रत रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के बअ़्‌द वोह कौन शख़्स है जिसमें येह तमाम ख़ुसूसियात पाई जाती हैं। और कौन है जो इन तमाम ज़रूरतों को बिल्कुल अच्छी तरह़ पूरा कर सकता है?

क्या तारीख़ के दामन में ह़ज़रत अ़ली बिन अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम के अ़लावा कोई और है जिसकी ज़ात में येह तमाम ख़ुसूसियात अपनी कमाल की मन्ज़िलों तक पाई जाती हों।

वोह शख़्स जो लोगों के सामने ख़ुदा के अह़काम बयान करे उनको ख़ुदा की ख़ुशनूदी और नाराज़गी से आगाह करे। जिसके पास क़ुरआन करीम का मुकम्मल इ़ल्म हो।

क्या सारी दुनिया के लोग बल्कि दुनिया के तमाम दानिशवर मिल कर ऐसे शख़्स का इन्तेख़ाब कर सकते हैं जिसमें येह ख़ुसूसियात पाई जाती हों।

इस तरह़ का इन्तेख़ाब लोगों के बस में नहीं है।

क्योंकि

दुनिया के तमाम उ़क़ला दानिशवरों की रसाई इन्सान के ज़ाहिर तक है वोह बस एक ह़द तक उसके बातिन को बता सकते हैं। जबकि इन ख़ुसूसियात का तअ़ल्लुक़ इन्सान के बातिन से है वोह भी ऐसी मअ़्‌लूमात जिसमें कभी भी किसी भी सूरत में ख़ता का इम्कान न हो।

येह इन्तेख़ाब सिर्फ़ और सिर्फ़ ख़ुदा के ज़रीए़ मुमकिन है। किसी एक का भी इसमें कोई दख़ल नहीं है।

लेहाज़ा ह़ज़रत रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के बअ़्‌द उनके जानशीन ह़ुज्जते ख़ुदा, नुमाइन्दए ख़ुदा बस वही होगा जिसको ख़ुदा मुन्तख़ब करेगा।

जब हम इमामत की तअ़्‌रीफ़ में सरह़दों की ह़ेफ़ाज़त और आ़म फ़लाह़ी उमूर की बात करेंगे तो उस शख़्स को मुन्तख़ब करेंगे जो येह ज़िम्मेदारियाँ निभा सकता हो। लेकिन अगर इमामत बयाने अह़काम है, तफ़सीरे क़ुरआन है, तबीईने शरीअ़त, रफ़्ए़ इख़्तेलाफ़ है तो इसके लिए एक ऐसे फ़र्द की ज़रूरत होगी जो शरीअ़त के तमाम अह़काम कुल्लीजुज़्ई से पूरी तरह़ वाक़िफ़ हो क़ुरआन करीम के तमाम उ़लूममआ़रिफ़ उसके सामने हों। वोह शरीअ़त की हर एक बारीकियों से ख़ूब वाक़िफ़ हो। रफ़्ए़ इख़्तेलाफ़ के लिए हर एक मसअले की गहराई तक नज़र रखता हो। ऐसे फ़र्द के इन्तेख़ाब का रास्ता जुदागाना होगा।

आ़म लोग इस दूसरी सूरते ह़ाल को क्यों क़बूल नहीं करते हैं?

इस की वजह येह है अगर इस दूसरी सूरते ह़ाल को तस्लीम करेंगे तो ह़ाकिम के इन्तेख़ाब में उनका किरदार पूरी तरह़ ख़त्म हो जाएगा क्योंकि इस ख़ुसूसियात के ह़ामिल फ़र्द का इन्तेख़ाब इन्सानों के बस में नहीं है। इसके अ़लावा दूसरी अहम वजह येह है जो शायद असली वजह हो। वोह येह कि वोह तमाम अफ़राद जिनको लोगों ने मुन्तख़ब किया है उनमें से किसी एक में भी येह तमाम ख़ुसूसियात मौजूद नहीं हैं। नतीजे में इन तमाम अफ़राद से लोगों को दस्तबरदार होना पड़ेगा तो बरसों से जिनको दिलों में तक़द्दुसएह़्तेराम से सजा कर रखा है उनको किस तरह़ दिल से निकाल दें तौह़ीद की राह में यही मुश्किल उन लोगों के साथ भी थी जो मुद्दतों बल्कि नस्लों से, ग़ैरों को दिल में सजाए बैठे थे जब उनको तौह़ीद की ह़क़्क़ानियत की तरफ़ दअ़्‌वत दी जाती थी तो कहते थे:

हम ने अपने आबाअज्दाद को इसी रास्ते पर पाया है हम उन्हीं के रास्ते पर चलते रहेंगे।”

अगर इन्सान ज़रा भी अ़क़्लइन्साफ़ से काम ले और इमामत की ह़क़ीक़ी ज़रूरत से वाक़िफ़ हो, तो वोह अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम के अ़लावा किसी और की इमामत का क़ाएल नहीं हो सकता।

बाबे मअ़्‌रेफ़तए़बादत

ख़ुदा वन्द आ़लम ने इन्सान को अपनी मअ़्‌रेफ़तए़बादत के लिए पैदा किया है। यही मअ़्‌रेफ़त और ए़बादत इन्सान का कमाल है। माद्दीयत और जेहालत में घिरा इन्सान ख़ुद से ख़ुदा वन्द क़ुद्दूस की मअ़्‌रेफ़तए़बादत ह़ासिल नहीं कर सकता है। अगर ख़ुद से पहुँचने की कोशिश करेगा तो कहीं और पहुँचेगा ख़ुदाए ह़क़ीक़ीवाक़ई़ तक नहीं पहुँचेगा। येह वोह ह़क़ीक़त है जो इस वक़्त हम सब की निगाहों के सामने है इसके लिए किसी ख़ास दलीलबयान की ज़रूरत नहीं है।

ख़ुदा वन्द आ़लम ने इन्सान की इस कमज़ोरी को मद्दे नज़र रखते हुए अम्बियामुर्सलीन भेजे ताकि वोह इन्सानों को ख़ुदाए वाक़ई़ह़क़ीक़ी की मअ़्‌रेफ़त भी अ़ता करें और उनको ख़ुदा की ए़बादत के तरीक़े भी बताएँ। तमाम अम्बियामुर्सलीन अ़लैहिमुस्सलाम ने इन्सानों को ख़ुदा की मअ़्‌रेफ़त और ए़बादत की हेदायत की और बाक़ाएदा हेदायत की।

सवाल अब येह है क्या येह ज़रूरत ह़ज़रत रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के इन्तेक़ाल के बअ़्‌द ख़त्म हो गई या सुब्ह़े क़यामत तक बाक़ी है??

अगर येह ज़रूरत ख़त्म हो गई तो लोगों ने ह़ज़रत रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के इन्तेक़ाल के फ़ौरन बअ़्‌द उनके दफ़्न से पहले उनके जानशीन के इन्तेख़ाब की कोशिश क्यों की? दीन तो मुकम्मल हो चुका था।

येह फ़ौरन कोशिश और मुनज़्ज़म कोशिश इस बात की वाज़ेह़ दलील है कि ह़ज़रत रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के इन्तेक़ाल के बअ़्‌द रेसालत तो ख़त्म हो गई मगर मअ़्‌रेफ़तए़बादत की राह में हेदायत की ज़रूरत बाक़ी है।

सवाल: अब इस ज़रूरत को कौन पूरा करे?

जवाब: बस वही इस ज़रूरत को पूरा कर सकता है जो ख़ुदा वन्द आ़लम की भरपूर मअ़्‌रेफ़त रखता हो और ए़बादत के तमाम तरीक़े अद्‌ना से लेकर अअ़्‌ला तरीन दर्जाते ए़बादत से न सिर्फ़ वाक़िफ़ हो बल्कि इन तमाम दर्जात को तय कर चुका हो।

येह बात पूरे यक़ीन से कही जो सकती है जिसमें ज़र्रा बराबर भी शक नहीं हैअह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम के अ़लावा कोई और इस ज़रूरत को पूरा नहीं कर सकता है। जिनकी फ़र्दे अव्वल ह़ज़रत अ़ली बिन अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम और आख़िर ह़ज़रत ह़ुज्जतिब्निल ह़सन अलअ़सकरी अ़लैहेमस्सलाम हैं जो इस वक़्त ज़िन्दा हैं और वही ख़ुदा और मख़्लूक़ के दरमियान राबेतावास्ता और ह़ुज्जत हैं।

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