पैग़ामे ग़दीर इस्लामी इत्तेह़ाद का मह़्वर है
अगरचे वाक़अ़ए ग़दीर आज चौदह सौ साल से ज़्यादा अपना तारीख़ी सफ़र तय कर चुका है, मगर ह़क़ीक़ते ग़दीर हर रोज़ और आने वाले दिनों में हर उस मुसलमान के लिए दीनी अ़क़ीदे और आईनए इस्लाम–ओ–क़ुरआन और आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम पर ईमान रखने वाले सुन्नत पर अ़मल करने के तक़ाज़ों के लेह़ाज़ से दुनिया–ओ–आख़ेरत में कामियाब ज़िन्दगी की ज़मानत के लिए इल्हामी सनद की ह़ैसियत रखती है।
इसलिए दुनियाए इस्लाम को चाहिए कि इस अ़ज़ीमुश्शान दिन के ह़क़ाएक़–ओ–बलन्द पाया मफ़ाहीम और नहफ़्तह (पोशीदा) तअ़्लीमात को न सिर्फ़ फ़र्जन्दाने तौह़ीद बल्कि आ़लमे बशरीयत तक पहुँचाए ताकि अ़ज़ीम तरीन इन्सानी आर्ज़ूओं को ज़िन्दा–ओ–ताबिन्दा बनाया जा सके। ग़दीर पर पर्दा डालना ह़याते बशरीयत पर पर्दा डालने के मुतरादिफ़ है, इसलिए कि इन्सानी मुआ़शरे की सआ़दत मन्दी की तरफ़ अबदी हिदायते एलाही रहनुमा यअ़्नी अमीरुल मोअ्मेनीन अ़लैहिस्सलाम की इमामत–ओ–क़यादत ही में पोशीदा है। इसलिए ग़दीर पर गुफ़्तुगू हर ज़माने की ज़रूरत और हम सब का वज़ीफ़ा है। इसे तारीख़ के किसी ह़िस्से से मख़्सूस नहीं किया जा सकता है।
येह कहना आसान है कि “जो वाक़ेआ़ सादियों पहले गुज़र चुका आज उसके बारे में बह़्स–ओ–गुफ़्तुगू से सिवाए एख़्तेलाफ़ात पैदा होने और फ़ित्ना बर्पा होने के कुछ ह़ासिल नहीं है, इसलिए ऐसी बह़्स न की जाए जो इत्तेह़ाद बैनुल मुस्लेमीन के ख़िलाफ़ हो या उम्मते मुस्लेमा का एक दूसरे से क़रीब होने में मानेअ़् हो।” लेकिन अगर वाक़ई़ पैग़ामे ग़दीर और इस्लामी मुआ़शरे की ह़क़ीक़ी वह़्दत पर ग़ौर किया जाए तो ग़दीर ही इस्लामी इत्तेह़ाद–ओ–इत्तेफ़ाक़ का मह़्वर–ओ–मर्कज़ नज़र आता है।
इस सिलसिले में अगर चन्द ह़क़ाएक़ पर तवज्जोह दी जाए तो मसअलए इमामत–ओ–ग़दीर के बारे में बह़्स–ओ–गुफ़्तुगू न सिर्फ़ मूजिबे एख़्तेलाफ़ न होगी बल्कि इसके अ़ज़ीमुश्शान और बेपनाह फ़ाएदे हैं जो किसी और चीज़ से मुक़ायसा नहीं किए जा सकते हैं:
(१) ह़क़ीक़ते इत्तेह़ाद
पहले येह समझना ज़रूरी है कि ह़क़ीक़त और मफ़्हूमे इत्तेह़ाद है क्या? दरअस्ल दो अलग अलग अ़नावीन को एक लफ़्ज़ के ज़रीए़ पेश किया जाता है जिनसे एक ही मअ़्ना मुराद लेना नाइन्साफ़ी होगी। लेहाज़ा इन में इन्तेहाई दिक़्क़ते नज़र और ग़ौर–ओ–फ़िक्र की ज़रूरत है, उन्हें एक दूसरे पर क़ुर्बान नहीं कर सकते हैं।
(अ) उम्मते मुस्लेमा का एक प्लेटफ़ार्म पर आना और वह़्दत का तह़फ़्फ़ुज़ ताकि इत्तेफ़ाक़–ओ–यकजह्ती की फ़ेज़ा क़ाएम रहे।
(ब) अस्ल दीने इस्लाम का तह़फ़्फ़ुज़
इस में तो किसी को कोई शक–ओ–तर्दीद नहीं हो सकती है कि तमाम उम्मते मुस्लेमा का वज़ीफ़ा है कि इस दीने ह़नीफ़ की ह़िफ़ाज़त करे उसकी नश्र–ओ–इशाअ़त में सई़–ओ–कोशिश करे। इस सिलसिले में तमाम मुसलमान अहम और संगीन ज़िम्मेदारी रखते हैं और चूँकि तमाम मज़ाहिब के मुसलमानों के लिए मुशतरक दुश्मन भी हैं जो अस्ल इस्लाम–ओ–क़ुरआन और मुसलमानों को नाबूद करना चाहते हैं, इसलिए सबको मुत्तह़िद होकर दीन–ओ–क़ुरआन की ह़िफ़ाज़त में सई़ करनी चाहिए। मगर इसके मअ़्ना हरगिज़ येह तो नहीं होते कि हम पर जो दूसरी अहम ज़िम्मेदारी आ़एद होती है उससे सुबुकदोश हो जाएँ और दीने इस्लाम के मुसल्लमा उसूल–ओ–ह़क़ाएक़ को बयान करने से गुरेज़ करने लगें। उम्मते इस्लामिया की वह़्दत को अस्ल हदफ़ क़रार देते हुए ह़क़ाएक़े शरई़या को फ़रई़ ह़ैसियत देकर क़ुर्बान कर देना ख़िलाफ़े अ़क्ल है। बल्कि अगर इस्लाम इत्तेह़ाद बैनुल मुस्लेमीन की दअ़्वत देता है तो वोह तह़फ़्फ़ुज़े दीन के मक़सद की ख़ातिर है ताकि ह़क़ीक़ते दीन–ओ–इस्लाम बाक़ी रहे वरना जब ख़ुद इस्लाम न होगा तो मुसलमानों का इत्तेह़ाद का क्या मअ़्ना है? नबी अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की तारीख़–ओ–सीरत इस ह़क़ीक़त की अ़क्कास भी है और बेह्तरीन शाहिद–ओ–ताईद भी है। ह़ज़रत ख़त्मी मर्तबत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम जानते थे और ख़बर भी दे दी थी कि बनी उमय्या अ़लैहिमुल्लअ़्न, ह़ज़रत अ़ली अ़लैहिस्सलाम और बनी हाशिम के दुश्मन हैं और वोह अमीरुल मोअ्मेनीन अ़लैहिस्सलाम की वेलायत–ओ–सरपरस्ती हरगिज़ तस्लीम नहीं करेंगे मगर इसके बावजूद आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने ह़क़ बयान करने और ह़क़ीक़त आश्कार करने से गुरेज़ नहीं फ़रमाया और न ज़र्रा बराबर कोताही फ़रमाई, बल्कि अपने २३ साला दौरे रेसालत में हर मक़ाम पर मुख़्तलिफ़ उ़न्वान से हर हर सूरत में, कई कई बार वेलायते अ़ली बिन अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम का एअ़्लान फ़रमाते रहे और लोगों को उसकी तरफ़ तवज्जोह दिलाते रहे। जबकि आप बतौरे क़त्अ़् इस बात से वाक़िफ़ थे कि हंगामे वफ़ात से ही इस मौज़ूअ़् के बारे में एख़्तेलाफ़ शुरूअ़् हो जाएगा और येह एख़्तेलाफ़ उम्मत के अस्ह़ाबे सिग़ार नहीं अस्ह़ाबे किबार में रूनुमा होगा और ताज़हूरे इमाम महदी अ़लैहिस्सलाम बाक़ी रहेगा, फिर भी बयान फ़रमाया और ह़क़ को आश्कार किया, यहाँ तक कि रोज़े ग़दीरे ख़ुम दिलों से हर तरह़ की तर्दाrद और शक–ओ–शुब्हा दूर करने के लिए ह़ज़रत अ़ली अ़लैहिस्सलाम का दस्ते मुबारक बलन्द करके लोगों के लिए ख़लीफ़ा नस्ब कर दिया ताकि सारे सह़ाबा और सारी उम्मत देख ले कि ख़ुदा के रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने इस वेलायत–ओ–इमामत के लिए किस क़द्र ताकीद–ओ–एह्तेमाम फ़रमाया है। इससे वाज़ेह़ होता है कि ह़क़ाएक़ को बयान करना ही अस्ल है, किसी और मसअले को अहम बनाकर इसे क़ुर्बान नहीं कर सकते हैं, हत्ता अगर इसके बयान करने से मुसलमानों में दो गिरोह भी ईजाद हो जाते हैं तब भी इसे पसे पुश्त नहीं डाल सकते हैं। तो इसके येह मअ़्ना भी नहीं होते कि मुसलमान एक दूसरे के साथ दस्त–ओ–गरेबाँ रहे और अपने ही वजूद को नाबूद करने पर उतर आए, बल्कि मोह़्कम दलाएल–ओ–बराहीन के साथ अपने अपने मकातिबे फ़िक्र के नज़रियात बयान करते हुए एक दूसरे को बर्दाश्त करे और “अल्लज़ी–न यस्तमेऊ़नल्क़ौ–ल व यत्तबेऊ़–न अह़्सनोहू” की बुनियाद पर ह़क़ बात को तस्लीम करे और दूसरों को उस की तरफ़ दअ़्वत भी दे और इसी के साथ साथ अपने मुश्तरक दुश्मन से भी होशियार रहे। इमाम ह़ुसैन अ़लैहिस्सलाम का क़याम भी इसी बात की ताई़द करता है, आप बख़ूबी वाक़िफ़ थे क़याम से मुसलमानों में दो गिरोह हो जाएँगे और शदीद नेज़ाअ़् पैदा होगा, मगर बख़ातिरे इत्तेह़ाद बैनुल मुस्लेमीन अस्ल ह़क़ीक़त अम्र ब मअ़्रूफ़ और नही अज़ मुन्कर (कि जिसमें इस्लामी अम्र–ओ–नाही के मिस्दाक़ को बयान करना और लोगों को इसकी तरफ़ तवज्जोह दिलाना था जिसे वोह भूल गए थे या भुला दिया था) से ग़ाफ़िल नहीं हुए।
ख़ुद अमीरुल मोअ्मेनीन अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम की सीरत और रविश भी इसी मतलब की तरफ़ इशारा कर रही है कि बअ़्ज़ लोगों के ख़याल के मुताबिक़ तल्ह़ा–ओ–ज़ुबैर और मुआ़विया को बेजा इम्तियाज़ फ़राहम करके जंगे जमल और सिफ़्फ़ीन जैसे मअ़्रकों को टाल सकते थे ताकि मुसलमानों के दरमियान एख़्तेलाफ़ ईजाद न होता और हज़ारों मुसलमान क़त्ल होने से मह़्फ़ूज़ रह जाते लेकिन इमाम अ़लैहिस्सलाम उसूले इस्लाम और ह़क़ाएक़े शरीअ़त के तह़फ़्फ़ुज़ की ख़ातिर हरगिज़ इस बात से राज़ी न हुए कि ह़क़ को पसे पुश्त डाल कर जमल–ओ–सिफ़्फ़ीन जैसे मअ़्रकों को टाल दिया जाए। इ़ल्मी तह़क़ीक़ और कश्फ़े ह़क़ाएक़ के लिए अह्ले इ़ल्म के दरमियान हमेशा और हर ह़ाल में दरवाज़ा खुला रहा है और खुला रहेगा। वेलायत–ओ–इमामते अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम का शेआ़र देकर न इक़रारे शहादतैन के फ़िक़्ही आसार का इन्कार किया जा सकता है और न ही इत्तेह़ाद बैनुल मुस्लेमीन का नअ़्रा बलन्द करके उसूले ईमान में एख़्तेलाफ़ी पह्लूओं के लाज़मी आसार से सर्फ़े नज़र किया जा सकता है।
(२) इमामे बर ह़क़ ही की क़यादत में वह़्दत मुम्किन है
इस्लाम मुसलमानों के दरमियान इत्तेह़ाद–ओ–हमाहंगी की बेपनाह ताकीद करता है। क़ुरआन ने इस सिलसिले में कई मक़ाम पर इशारा किया है:
तुम लोग उस वक़्त को याद करो जब आपस में दुश्मन थे उसने तुम्हारे दिलों में उल्फ़त पैदा कर दी तो तुम उसकी नेअ़्मत से भाई भाई बन गए।
(सूरह आले इ़मरान, १०३)
और ख़बरदार! उन लोगों की तरह़ न हो जाओ जिन्होंने तफ़र्रेक़ा पैदा किया और वाज़ेह़ निशानियों के आ जाने के बअ़्द भी एख़्तेलाफ़ किया उसके लिए अ़ज़ाबे अ़ज़ीम है।
(सूरह आले इ़मरान, १०५)
मोअ्मिन आपस में बिल्कुल भाई भाई हैं।
(सूरह ह़ुजुरात, १०)
और अल्लाह की रस्सी को मज़बूती से पकड़े रहो और आपस में तफ़रक़ा न पैदा करो।
(सूरह आले इ़मरान, १०३)
बेशक येह तुम्हारा दीन एक ही दीने इस्लाम है और मैं तुम सबका परवरदिगार हूँ लेहाज़ा मेरी ही ए़बादत किया करो।
(सूरह अम्बिया, ९२)
क़ुरआन करीम की बेपनाह ताकीद के बावजूद इससे ग़ाफ़िल नहीं हुआ जा सकता है कि वह़्दत के लिए मह़्वर और बुनियाद ज़रूरी है जब तक इसे मुतअ़य्यन नहीं किया जाएगा एख़्तेलाफ़–ओ–इन्तेशार नागुज़ीर है। अगर इस मक़ाम पर कोई क़ुरआन करीम के इमाम होने का दअ़्वा करे तो येह तन्हा इमाम बनने की सलाह़ियत नहीं रखता है इसलिए कि अमीरुल मोअ्मेनीन अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम के इर्शाद के मुताबिक़ क़ुरआन करीम की मुख़्तलिफ़ तावीलें, वुजूहात हैं जिनकी बेना पर इसके एक एक लफ़्ज़ को एक तावील पर ह़म्ल कर सकते हैं। इसी बेना पर हम मुशाहिदा करते हैं कि क़ुरआन करीम बावजूदे कि आसमानी किताब को इमाम के उ़न्वान से मुतआ़रिफ़ करता है:
और इसके पहले मूसा की किताब गवाही दे रही है जो क़ौम के लिए पेशवा और रह़्मत थी।
(सूरह हूद, १७)
सोह़ोफ़े इब्राही–म व मूसा
(सूरह अअ़्ला, १९)
मगर फिर भी इस पर इक्तेफ़ा नहीं की बल्कि ह़ज़रत इब्राहीम अ़लैहिस्सलाम को इमामे नातिक़ के उ़न्वान से पहचनवाया:
और उस वक़्त को याद करो जब ख़ुदा ने चन्द कलेमात के ज़रीए़ इब्राहीम अ़लैहिस्सलाम का इम्तेह़ान लिया और उन्होंने पूरा कर दिया तो उसने कहा कि हम तुमको लोगों का इमाम बना रहे हैं।
(सूरह बक़रह, १२४)
इससे ज़ाहिर होता है कि तन्हा क़ुरआन को इमाम क़रार नहीं दिया जा सकता है जब तक कि उस इमामे सामित के साथ इमामे नातिक़ को इमाम न माना जाए ताकि एख़्तेलाफ़ की शक्ल में ह़क़ को आश्कार करे और वोह अह्लेबैते पैग़म्बर सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ही हैं जिनकी लाएक़–ओ–मिनजानिबिल्लाह क़यादत–ओ–इमामत के साए में सआ़दतमन्द रास्ता तय किया जा सकता है।
(३) इ़ल्मी बह़्स–ओ–गुफ़्तुगू, इत्तेह़ाद–ओ–इत्तेफ़ाक़ का पहला क़दम है
किताब “अल–मिलल वन्निहल” में शहरिस्तानी लिखते हैं:
उम्मत के दरमियान सबसे बड़ा एख़्तेलाफ़ मसअलए इमामत का एख़्तेलाफ़ है। इसमें कोई शक नहीं है कि ग़ैर इ़ल्मी और ग़ैर मन्तिक़ी बह़्सों ने मुसलमानों में शिद्दत का ए़नाद और दुश्मनी पैदा की है लेकिन अगर इ़ल्मी बह़्स–ओ–गुफ़्तुगू की रोशनी में हर फ़िर्क़ा दूसरे फ़िर्क़े के वाक़ई़ अ़क़ाएद की तह तक पहुँच जाए और मअ़्लूम हो जाए कि उसके अ़क़ाएद की बुनियाद अ़क़्ल–ओ–क़ुरआन और सुन्नते पैग़म्बर सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम पर क़ाएम है, तो एक दूसरे के दरमियान दुश्मनी कम हो सकती है और तअ़स्सुब को मिटाया जा सकता है। दो फ़िक्रों में शदीद तरीन और अहम तरीन नफ़रत का सबब एक दूसरे के अ़क़ाएद से नवाक़िफ़ होना है या उसे बग़ैर किसी दलील–ओ–मन्तिक़ के ख़याल करना है। मसलन शीओ़ं को उनके अ़क़ीदे “बदा” की बेना पर कुफ़्र से निस्बत देना और “तक़य्या” की वजह से नेफ़ाक़ का इल्ज़ाम देना क्योंकि वोह इस अ़क़ीदे–ओ–अ़मल की ह़क़ीक़त और अस्ल मफ़हूम से बेख़बर हैं और मसअलए इमामत–ओ–वेलायत अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम भी इसी तरह़ है।
अगर अह्ले सुन्नत मज़हबे इमामिया के अ़क़ीदए इमामत और उसके शराएत वग़ैरह की बेना पर ग़ुलू का इल्ज़ाम लगाते हैं तो इसकी अहम तरीन वजह इ़ल्मी–ओ–मन्तिक़ी तरीक़े से उसे दर्क न कर पाना है, या सह़ीह़ तरीक़े से ख़ुद हम ने उससे मुतआ़रिफ़ नहीं कराया है। इसकी दलील येह है कि जहाँ जहाँ सह़ीह़ और इ़ल्मी–ओ–अख़्लाक़ी तरीक़े से ह़क़ अदा किया है उस सिलसिले में बेपनाह कामियाबी से हमकिनार हुए हैं, और फ़िर्क़ों के मोअ़ज़्ज़िज़ अफ़राद में इत्तेह़ाद–ओ–इत्तेफ़ाक़ की फ़िज़ा क़ाएम होती गई और येह सिलसिला बढ़ता ही चला गया जिसके चन्द नमूने मुलाह़ेज़ा किए जा सकते हैं: शेख़ मह़्मूद शल्तूत का फ़त्वा और डॅाक्टर मोह़म्मद फ़ह़ाम, शेख़ मोह़म्मद ग़ज़ाली, अ़ब्दुर्रह़मान नेजार, उस्ताद अह़मद, शेख़ मोह़म्मद अबू ज़हरा, उस्ताद मह़्मूद सरतावी, उस्ताद अ़ब्दुल फ़त्ताह़ अ़ब्दुल मक़सूद, डॉक्टर ह़ामिद ह़नफ़ी, डाक्टर अब्दुर्रह़मान कयाली, उस्ताद अबुल वफ़ा ग़नीमी तफ़्तज़ानी जैसे बुज़ुर्ग मुह़क़्क़ेक़ीन और मुफ़्तियान आ़लमे इस्लाम की शख़्सीयतें नुमायाँ हैं। क्या इ़ल्मी बह़्स–ओ–गुफ़्तुगू के नतीजे में हर तरह़ की दुश्मनी–ओ–कीना और नफ़रतों को बालाए ताक़ रख देने वालों में अ़ल्लामा शेख़ मोह़म्मद मरई़ अमीन अन्ताकी, अ़ल्लामा शेख़ अह़्मद अमीन अन्ताकी, डॉक्टर मोह़म्मद तीजानी समावी, साएब अ़ब्दुल ह़मीद, उस्ताद सालेह़ अल–वुर्दानी, उस्ताद मोअ़्तसिम सैयद अह़मद सूडानी, मशहूर मिस्री वकील दमरदाश अ़क़ाली, अ़ल्लामा डॉक्टर मोह़म्मद ह़सन शह़ाता, शेख़ मोह़म्मद अ़ब्दुलआ़ल, मोह़म्मद शह़ादा, अस्अ़द वह़ीद क़ासिम (फ़िलिस्तीनी तबीब) जैसे हज़ारों की तअ़्दाद में इन सआ़दत मन्दों को फ़रामोश किया जा सकता है!!???
(४) पैग़म्बर सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के बअ़्द दीनी मरजई़यत का तअ़य्युन
ओ़ह्दए इमामत एक एलाही मन्सब है जो दीनी–ओ–दुन्यवी दोनों एअ़्तेबार से अहम्मीयत रखता है इसके अ़लावा इसके तारीख़ी पह़्लूओं को भी नज़र अन्दाज़ नहीं कर सकते हैं। और फ़र्ज़ कर लें कि तारीख़ी एअ़्तेबार से इसका ज़माना गुज़र चुका है और अब वोह माज़ी के पर्दे में जा चुका है (बक़ौल शख़्से: अब गड़े मुर्दे उखाड़ने से कोई फ़ाएदा नहीं है)। येह उस वक़्त सह़ीह़ होता जब इसका तअ़ल्लुक़ सिर्फ़ तारीख़ से होता, मगर जब वोह दीन–ओ–ईमान से तअ़ल्लुक़ रखता है तो अब माज़ी की दास्तान कह कर उससे मुँह नहीं मोड़ सकते हैं, न सिर्फ़ इस वक़्त इसकी ज़रूरत बाक़ी है बल्कि ताक़यामत ज़रूरत बाक़ी रहेगी। इस बेना पर अगर हम इमामत–ओ–वेलायत की बह़्स–ओ–गुफ़्तुगू करते हैं तो इस मक़सद की ख़ातिर कि हमारा दीनी मरजअ़् कौन है? और आज हम दीन किससे ह़ासिल करें? नबी अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की वाक़ई़ सुन्नत किसके पास है? दीन और दीन के मआ़रिफ़ अबुल ह़सन अशअ़री, अबुल ह़सन बसरी, इब्ने तैमिया, फ़ज़्ल बिन रोज़बहान और दीन की फ़िक़्ह अइम्माए मज़ाहिबे अर्बआ़ से ह़ासिल करें?!! जैसा कि अह्ले सुन्नत और वहाबियों का अ़क़ीदा यही है। या मअ़्सूम और साह़ेबे इ़ल्मे लदुन्नी जैसे अफ़राद जो सिवाए अह्लेबैते पैग़म्बर सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के कोई दूसरा नहीं है जिनके सीनों में पैग़म्बर का इ़ल्म–ओ–कमाल पाया जाता है, उनकी पैरवी करें।
येह एक वाज़ेह़ ह़क़ीक़त है जिस पर क़ुरआन की आयतें और बेशुमार रवायतें दलालत करती हैं और मज़हबे इमामिया उसी पर ताकीद और शिद्दत से गामज़न होने के साथ दूसरों को भी उसकी तल्क़ीन–ओ–रह़्नुमाई करता है कि साह़ेबे रेसालत नबी अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम से ग़ैर मअ़्मूली फ़ासला हो जाने और मुख़्तलिफ़ मकातिबे फ़िक्र केवुजूद में आ जाने और शिद्दत के साथ आरा–ओ–नज़रियात के मुतसादिम होने के बअ़्द, हर मुसलमान पर वाजिब है कि ह़ज़रत पैग़म्बर सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की सह़ीह़ सुन्नत और इस्लाम के ह़क़ीक़ी मआ़रिफ़ तक रसाई ह़ासिल करने के लिए ऐसा रास्ता एख़्तेयार करे जो क़ाबिले इत्मीनान भी हो और ख़ुदा और रसूल की तरफ़ से ताईद शुदा भी हो। इसीलिए वफ़ाते पैग़म्बर सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के बअ़्द ह़ज़रत अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम को इमामत–ओ–वेलायत के लिए ख़लीफ़ा बिलाफ़स्ल के उ़न्वान से मन्सूब होना क़रार देते हैं, जिससे उमूरे ह़ुकूमत–ओ–सियासत में इस्लामी क़यादत–ओ–रहबरी का ख़ला भी पूरा हो जाता है और दीनी मुश्किलात और शरई़ मसाएल भी ह़ल हो जाते हैं।
और इसी मतलब की तरफ़ तो मौलाए काएनात अ़लैहिस्सलाम ने नहजुल बलाग़ा में इशारा फ़रमाया है:
ऐ लोगो! कहाँ जा रहे हो? ह़क़ से मुन्ह़रिफ़ क्यों हो रहे हो? परचमे ह़क़ बलन्द है उसकी निशानियाँ आश्कार हैं, जबकि चिराग़े हिदायत के रास्ते रोशन हैं, गुमराहों की तरह़ कहाँ चले जा रहे हो? क्यों सरगर्दां हो? जबकि तुम्हारे नबी की इ़तरत तुम्हारे दरमियान है, वही लोग रहबराने ह़क़, पेशवायानाने दीन और सच्चाई–ओ–सदाक़त की ज़बान गोया हैं।
(नहजुल बलाग़ा, जि.२, स.१९)
ऐ लोगो! अपने नबी सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम की तरफ़ तवज्जोह करो। वोह जिस मक़ाम पर अपने क़दम रखें उसी जगह तुम भी क़दम रखो। वोह तुम्हें राहे हिदायत से बाहर नहीं करेंगे, हलाकत–ओ–पस्ती की तरफ़ वापस नहीं ले जाएँगे। अगर वोह ख़ामोश रहें तो तुम भी ख़ामोश रहो, अगर क़याम करें तो तुम भी क़याम करो, उन से आगे न चले जाओ वरना गुमराह हो जाओगे उनसे पीछे न रह जाओ वरना नाबूद हो जाओगे।
(नहजुल बलाग़ा, जि.२, स.१९)
कहाँ हैं वोह लोग जो ख़याल करते हैं कि रासेख़ून फ़िल इ़ल्म हैं और हम अह्लेबैत नहीं हैं, लोगों ने हमारे ख़िलाफ़ झूठ, ज़ुल्म–ओ–सितम की बुनियाद पर ऐसा दअ़्वा पेश किया है। ख़ुदावन्द आ़लम ने हम अह्लेबैत को बलन्द किया और उन्हें पस्त–ओ–ख़ार किया, हमें अ़ता फ़रमाया उन्हें मह़्रूम….
(नहजुल बलाग़ा, जि.२, स.५५)
वोह “अह्लेबैत” इ़ल्म–ओ–दानिश के रम्ज़े ह़यात और जेह्ल–ओ–नादानी के राज़े मर्ग हैं, उनका ह़िल्म उनके इ़ल्म का, उनका ज़ाहिर उनके बातिन का, उनका सुकूत उनके नत्क़ का, तुम्हें ख़बर देता है, दीने ख़ुदा की मुख़ालेफ़त करते हैं और न ही उसमें एख़्तेलाफ़ करते हैं।
(नहजुल बलाग़ा, ख़ुत्बा १४७)
येह ह़क़ीक़त है कि ख़ुदावन्द मुतआ़ल ने ह़ुज़ूरे अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम को तमाम मुसलमानों के लिए उस्वए ह़सना क़रार दिया है लेकिन येह बात ज़ेह्न में रहे कि पैग़म्बर अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के बअ़्द ऐसे ह़ालात, मवाक़ेअ़् पेश आए हैं जो अ़ह्दे पैग़म्बर सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ थे। उन ह़ालात में मुसलमान किसे अपना आइडियल बनाए, इसलिए ज़रूरत थी कि पैग़म्बर सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम जैसा किरदार वाला मौजूद होता कि वोह जहाँ क़दम रखे उम्मत भी वहीं क़दम रखे, वोह जहाँ सुकूत एख़्तेयार करे मुसलमान भी ख़ामोश रहे, वोह जहाँ क़याम करे मुसलमान भी उनके साथ रहे, कि अगर क़ारियाने क़ुरआन और ह़ाफ़िज़ाने क़ुरआन और शब ज़िन्दादार लोगों के ख़ेलाफ़ तलवार उठा ले तो उसे पेशानी पर सज्दों के निशानात, मोअ्मिन की ज़ाहिरी निशानियाँ धोका न दे सकें। इसी तरह़ जब ऐसा ज़माना आ जाए कि इस्लाम के नाम से यज़ीद तमाम इस्लामी मुमालिक का ह़ाकिमे इस्लाम के उ़न्वान से तख़्तनशीन हो जाए तो ऐसे वक़्त में पैग़म्बराना किरदार हो जो इन्सानियत के लिए ताक़यामत उस्वए ह़सना का नमूना पेश कर सके जो ताक़यामत हर एक के लिए मशअ़ले राह हो। इसलिए हर दौर में जानशीनिए पैग़म्बर सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के बारे में बह़्स–ओ–गुफ़्तुगू की ज़रूरत है ताकि क़ुरआन को नैज़ों पर बलन्द करने के मौक़ेअ़् पर वोह क़ुरआने नातिक़ बन कर सामने आ जाए। बह़्से इमामत की ज़रूरत है ताकि यज़ीद पलीद के मुक़ाबले में दीने मोह़म्मदी को बचाने कि लिए वोह मोह़म्मद सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम जैसा किरदार पेश कर सके। वफ़ाते पैग़म्बर सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के बअ़्द इसलिए गुफ़्तुगूए इमामत की ज़रूरत है ताकि येह रोशन हो जाए कि ख़ुदा की तरफ़ से दीन की ज़आ़मत की सलाह़ियत किसके अन्दर पाई जाती है जो ताक़यामत इस्लामी मुआ़शरे की सआ़दत मन्दियों की तरफ़ रह़्नुमाई कर सके और जब ऐसा फ़र्द मुतअ़य्यन हो जाएगा तब ख़ुद ब ख़ुद उम्मत बल्कि इन्सानियत उसके परचम तले घुटने टेक देगी और इत्तेह़ाद–ओ–यक्जेह्ती की फ़ज़ा क़ाएम हो जाएगी तब न कोई एख़्तेलाफ़ होगा न इन्तेशार।
आओ सब मिलकर इसी सिलसिले के आख़री मुत्तफ़क़ अ़लैह ख़लीफ़ा इमाम महदी अ़लैहिस्सलाम के ज़हूर की दुआ़ करें और ख़ुदा से इल्तेजा करें: ख़ुदाया! वारिसे ग़दीर, इमामे ज़माना अ़लैहिस्सलाम के ज़हूरे पुरनूर में तअ़्जील फ़रमा और हम सबको उनके अअ़्वान–ओ–अन्सार में क़रार फ़रमा। आमीन।