ख़ेलाफ़त-जानशीनी दर सेफ़ात-ओ-कमालात – पहला हिस्सा
दीने मुक़द्दसे इस्लाम में इमामत और ख़ेलाफ़ते ख़ुदा और रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम का अ़क़ीदा एक नेहायत बुनियादी मसअला है। इसकी अहम्मीयत का अन्दाज़ा इस बात से बख़ूबी लगाया जा सकता है लोगों ने ह़ज़रत रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की वफ़ात के बअ़्द ख़लीफ़ा के इन्तेख़ाब को आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के कफ़न-ओ-दफ़्न पर तरजीह़ दी येह और बात है कि आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की पहली नमाज़े जनाज़ा उस शख़्स ने पढ़ाई जिसको ह़ज़रत रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने अपना वसी बनाया था।
ख़ेलाफ़त यअ़्नी जानशीनी, इमामत यअ़्नी रहबरी, सवाल येह है कि येह ख़ेलाफ़त किसकी जानशीनी है और येह इमामत किन उमूर में रहबरी है। येह बात बिल्कुल ही वाज़ेह़ है एक मअ़्मूली शख़्स भी इस ह़क़ीक़त को बआसानी दर्क कर सकता है। जिस जगह के लिए इन्तेख़ाब किया जा रहा है उस जगह की ख़ुसूसियात का इ़ल्म ज़रूरी है। अगर आप किसी से कहें मुझे एक आदमी की तलाश है तो फ़ौरन सवाल करेगा किस काम के लिए। एक इन्जीनियर की ज़रूरत है सवाल करेगा किस मैदान में और किस काम के लिए। अगर घर की तामीर के लिए अफ़राद की ज़रूरत है तो मज़दूर की अलग ख़ुसूसियात हैं, कारीगरी की अलग ख़ुसूसियात हैं, निगराँ की अलग, ह़िसाब-ओ-किताब रखने वाले की अलग। हर आदमी हर जगह फिट नहीं हो सकता है। अगर कारीगरी को मज़दूर का काम और मज़दूर को कारीगरी का काम दे दिया जाए, घड़ीसाज़ को लोहार का काम दे दिया जाए और लोहार को घड़ीसाज़ का काम दे दिया जाए तो सारा काम ख़राब हो जाएगा।
लेहाज़ा येह जानना ज़रूरी है कि ख़ेलाफ़त किसकी जानशीनी है और इमामत किन उमूर में रहबरी है।
आया येह ख़ेलाफ़त ह़ज़रत मोह़म्मद बिन अ़ब्दुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की जानशीनी है। येह गद्दी नशीनी है जहाँ बेटा (फ़र्ज़न्द) बाप का वारिस होता है। येह वेरासत नस्ल की बेना पर मिलती है सलाह़ियत की बुनियाद पर नहीं?
या येह ख़ेलाफ़त ह़ज़रत ख़ातेमुन नबीयीन, अश्रफ़ुल मुरसलीन, ताहा-ओ-यासीन, साह़ेबे मक़ाम, क़ा-ब क़ौसेन अव अदना, व-मा यन्तिक़ो अ़निल हवा, व मा रमै तो इज़ रमै तो लाकिन्नल्ला-ह रमा, अलम नश्रह ल-क सद-र-क व रफ़अ़ना ल-क ज़िक-र-क, अ़ल्ल-म-क मा लम तकुन तअ़्लम….. की जानशीनी-ओ-ख़ेलाफ़त है।
अगर येह ख़ेलाफ़त-ओ-जानशीनी ह़ज़रत मोह़म्मद बिन अ़ब्दुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की ख़ेलाफ़त-ओ-जानशीनी है तो येह जगह उसको मिलना चाहिए जो क़ानूने मीरास के एअ़्तेबार से ह़ज़रत मोह़म्मद बिन अ़ब्दुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम से सबसे ज़्यादा क़रीब हो। उनकी नस्ल से हो उनके ख़ानदान से हो। इस मीरास में ग़ैर का कोई तअ़ल्लुक़े ह़क़ नहीं है। इसमें किसी सलाह़ियत-ओ-इस्तेअ़्दाद की ज़रूरत नहीं है। बस नस्ल से होना काफ़ी है। जैसा दुनिया की तमाम मीरास में होता चला आ रहा है। बेटा बाप का जानशीन क़रार पाता है चाहे उसमें बाप की ख़ुसूसियात न भी हों।
और अगर येह ख़ेलाफ़त-ओ-जानशीनी किसी साह़ेबे मन्सब-ओ-मक़ाम की जानशीनी है यअ़्नी येह ख़ेलाफ़त किसी ख़ास शख़्स की जानशीनी नहीं है बल्कि एक मन्सब की जानशीनी है। जानशीनी में साह़ेबे मन्सब की ख़ुसूसियात का होना ज़रूरी है। अगर किसी यूनिवर्सिटी में अंग्रेज़ी अदबीयात के सद्र की जगह किसी की तक़र्रुरी होना है तो उस शख़्स का तक़र्रुर होगा जो अंग्रेज़ी अदबीयात में महारत रखता हो। क्या उस शख़्स को अंग्रेज़ी अदबीयात के शोअ़्बे का सद्र बनाया जा सकता है जिसको ए,बी,सी,डी ही न आती हो। अगर जबरदस्ती येह काम हो गया तो इस शोअ़्बे का ह़ाल क्या होगा येह सब पर ज़ाहिर है। वहाँ सब कुछ होगा अंग्रेज़ी अदब न होगा।
दूसरा अहम मसअला येह है कि सद्र की जगह पर तक़र्रुर करने का ह़क़ सिर्फ़ उन लोगों को है जिन लोगों ने इससे पहले के सद्र को मुक़र्रर किया हो। अगर किसी कमेटी ने मुक़र्रर किया हो तो वही कमेटी उसका जानशीन भी मुक़र्रर करेगी। मसलन हिन्दुस्तान में मरकज़ी यूनिवर्सिटी में वाइस चान्सलर का तक़र्रुर मुल्क का सद्र करता है उसकी दस्तख़त से तक़र्रुरी अ़मल में आती है लोग ज़्यादा से ज़्यादा अपना मशवरा पेश कर सकते हैं मगर आख़री फ़ैसला और तक़र्रुर मुल्क के सद्र को करना है। और बस सिर्फ़ उसी तक़र्रुरी को क़ानूनी ह़ैसियत ह़ासिल होगी जो सद्र की तरफ़ से होगी। अगर शोअ़्बे के लोग अपनी तरफ़ से किसी को मुन्तख़ब करके इस जगह पर बैठाएँ, जगह तो किसी तरह़ से पुर हो जाएगी मगर येह क़ानूनी न होगी।
तीसरा अहम मसअला येह है आया ह़ज़रत रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ सरह़दों की ह़ेफ़ाज़त और मुल्क की इन्तेज़ामिया थी, ताकि उनकी जानशीनी के लिए एक फ़ौजी जज़ल या एक सियासतदाँ की ज़रूरत हो जो मुल्क की सरह़दों की ह़ेफ़ाज़त कर सके और मुल्क की इन्तेज़ामिया को सँभाल सके। या ह़ज़रत रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की सबसे अहम ज़िम्मेदारी लोगों को तौह़ीद का दर्स देना था जैसा कि क़ुरआने मजीद में इरशादे ख़ुदा वन्दी है:
व लक़द बअ़स्ना फ़ी कुल्ले उम्मतिर्रसूल–न अनेअ़्बुदुल्लाह वज्तनेबुत्ताग़ू–त. फ़ मिन्हुम मन हदल्लाहो व मिन्हुम मन ह़क़्क़त अ़लैहिज़्ज़ला–लतो. फ़सीरू फ़िल अर्ज़े फ़न्ज़ुरू कै–फ़ का–न आ़क़े–बतुल मुकज़्ज़ेबी–न.
(सूरए नह़्ल, आयत ३६)
“और हमने हर उम्मत में रसूल भेजा। (लोगों को येह पैग़ाम दें) बस ख़ुदा की ए़बादत करो और ताग़ूत से किनारा कशी करो।”
इस बेना पर तमाम अम्बिया-ओ-मुरसलीन अ़लैहिमुस्सलाम और ख़ास कर अशरफ़े अम्बिया-ओ-मुरसलीन ह़ज़रत मोह़म्मद सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की बुनियादी ज़िम्मेदारी लोगों को ख़ुदा की मअ़्रेफ़त अ़ता करना है और तमाम ग़ैरे ख़ुदा की ताक़तों से दूर करना है। तौह़ीद का दर्स देने के लिए ख़ुद तौह़ीद की मअ़्रेफ़त ज़रूरी है क्योंकि दर्से तौह़ीद उन लोगों को भी दिया जाएगा जो तौह़ीद से बिल्कुन न आश्ना हैं और उन लोगों को भी दिया जाएगा जो ईमान-ओ-मअ़्रेफ़त के बलन्द दरजात पर फ़ाएज़ हैं क्योंकि रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम उनके लिए भी तो रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम हैं। शायद इसीलिए ख़ुदा ने फ़रमाया:
व अ़ल्लमक मा लम तकुन तअ़्लमो व का–न फ़ज़्लुल्लाहे अ़लै–क अ़ज़ीमा.
(सूरए निसा, आयत ११३)
“ख़ुदा ने आप सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम को तअ़्लीम दी।”