क़ुरआन में अहम्मीयते मन्सबे इमामत
यौ–म नद्ऊ़ कुल्ल ओनासिम बेइमामेहिम.
“उस दिन (को याद कीजिए) जब हम तमाम इन्सानों को उनके इमाम के साथ बुलाएँगे।”
(सूरए असरा: आयत ७१)
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने दीने इस्लाम की तब्लीग़ बेहतरीन अन्दाज़ में फ़रमाई। आप सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम हमेशा अपनी उम्मत की हेदायत के लिए कोशाँ रहे। आप सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम हर लम्ह़ा इसी फ़िक्र में रहते थे। उम्मते मुस्लेमा की रह्नुमाई के लिए आप सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने मुतअ़द्दिद मक़ामात-ओ-मुख़्तलिफ़ मवाक़ेअ़् पर नसीह़तें फ़रमाई हैं। बिलख़ुसूस अपनी ज़िन्दगी के आख़री साल में आप सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने बारहा इस मौज़ूअ़् पर ख़ुत्बे दिए हैं। ऐ़ने रेह़लत के वक़्त जब आप सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की अ़लालत ने शिद्दत एख़्तेयार कर ली तो आप सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने अपने अस्ह़ाब से काग़ज़-ओ-क़लम तलब किया ताकि उनकी रह्नुमाई के लिए एक नविश्ता तैयार कर दें जो उनको गुमराही से बचा सके। मगर अफ़सोस आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम को लोगों ने येह काम नहीं करने दिया नतीजे के तौर पर आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की रेह़लत के फ़ौरन बअ़्द ही मुसलमान गुमराही का शिकार हो गए। नतीजतन आज ह़ालत येह है कि हर फ़िर्क़ा ख़ुद को हेदायत याफ़्ता और दूसरों को गुमराह और इस्लाम से ख़ारिज समझता है। येह एख़्तेलाफ़ात मअ़्मूली नहीं हैं सिर्फ़ फ़िक़्ही भी नहीं हैं बल्कि इनमें उसूली तौर पर अ़क़ाएद और बुनियादी मुआ़मेलात में भी इन्ह़ेराफ़ हैं। इन मुतनाज़अ़् मौज़ूआ़त में सबसे अहम मसअला, मसअलए इमामत है।
मुसलमानों की अक्सरीयत इमामत को दुनियवी अम्र समझती है जबकि शीओ़ं के यहाँ येह दीन के उसूलों में सबसे अहम उसूल है। अह्ले तसन्नुन के यहाँ इमामत एक दुनियवी मन्सब है यअ़्नी एक ह़ाकिमे दौराँ ही इमाम होता है। जिसकी ह़ुकूमत है वही इमाम है जबकि शीओ़ं के यहाँ इमामत को एलाही मन्सब माना जाता है। यअ़्नी ख़ुद अल्लाह बनाता है। इस बात के दलाएल क़ुरआन में मौजूद हैं।
इमाम के मअ़्ना सरबराह, सरपरस्त और रहनुमा के होते हैं। क़ुरआन करीम में इस लफ़्ज़ को मुतअ़द्दिद आयतों में देखा जा सकता है। इसी लफ़्ज़ के एक और हम मअ़्ना लफ़्ज़ “उलुल अम्र” भी क़ुरआन में इस्तेअ़्माल हुआ है। हर मआ़शरा और समाज को एक सरबराह और रहनुमा की ज़रूरत होती है। येह वोह शख़्स होता है जिसके हाथों में ज़मामे उमूर होते हैं। उसकी सरपरस्ती से समाज के एख़्तेलाफ़ात रफ़अ़् होते हैं और फ़ित्ना-ओ-फ़साद दूर रहते हैं। क़ुरआन करीम ने भी इस बात की तरफ़ इशारा करते हुए मोअ्मिनों पर एक उलुल अम्र की एताअ़त को लाज़िम क़रार दिया है।
या अय्योहल्लज़ी–न आ–मनू अतीउ़ल्ला–ह व अतीउ़र्रसू–ल व उलिल अम्रे मिन्कुम. फ़इन तनाज़अ़्तुम फ़ी शैइन फ़रुद्दूहो एलल्लाहे वर्रसूले इन कुन्तुम तोअ्मेनू–न बिल्लाहे वल यौमिल्आख़ेरे. ज़ाले–क ख़ैरुन व अह़्सनो तअ्वीला.
(सूरए निसा, आयत ५९)
“ऐ ईमान लाने वालों एताअ़त करो अल्लाह की और उसके रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की और उन लोगों की एताअ़त करो जो साह़ेबे अम्र हैं। अगर तुम में आपस में कोई तनाज़अ़् हो तो उसको अल्लाह और उसके रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की तरफ़ पलटा दो (यअ़्नी उन से फ़ैसला लो) अगर तुम्हारा अल्लाह और रोज़े क़यामत पर ईमान है यही ख़ैर है बेहतरीन तावील है।”
इस आयत में उलुल अम्र की एताअ़त को रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की एताअ़त से मुत्तसिल कर दिया है यअ़्नी येह उन्हीं अह़काम पर अ़मल करेगा जो रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम पर नाज़िल हुए हैं। दरअस्ल रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की ग़ैर मौजूदगी में इस उलुल अम्र की एताअ़त ही रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की जानशीनी है। इस इमाम की ज़रूरत समाज को बिल्कुल उसी तरह़ है जैसे उनको ख़ुद पैग़म्बर सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की ज़रूरत होती है। उसकी ज़िम्मेदारियों में येह है कि वोह मुसलमानों में अ़द्ल-ओ-इन्साफ़ क़ाएम करे, उनको क़ुरआन की तअ़्लीम दे। लोगों के एख़्तेलाफ़ात को रफ़अ़् करे, इस्लामी ह़ुदूद जारी करे, वग़ैरह। इन ज़िम्मेदारियों को पूरा करने के लिए उसके पास क़ुरआन का मुकम्मल इ़ल्म होना चाहिए। उसमें येह सलाह़ियत होनी चाहिए कि वोह क़ुरआन-ओ-सुन्नते रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम से पूरी तरह़ वाक़िफ़ हो। येह सब उसी वक़्त मुम्किन है जब उसके पास बराहे रास्त अल्लाह से हेदायत ह़ासिल हो। क़ुरआन में भी इस बात का ज़िक्र है:
व जअ़ल्नाहुम अइम्मतय्यँह्दून बेअम्रेना व अव्ह़ैना इलैहिम फ़ेअ़्लल्ख़ैराते व एक़ामस्सलाते व ईताअज़्ज़काते. व कानू लना आ़बेदी–न.
(सूरए अम्बिया, आयत ७३)
“हमने उनको अइम्मा बनाया है जो हमारे अम्र से हेदायत करते हैं। हम उनकी तरफ़ वह़्य करते हैं नेक कामों के लिए, नमाज़ क़ाएम करने के लिए और ज़कात की अदाएगी के लिए और वोह हमारी ही ए़बादत करने वाले हैं।”
इस आयत में और इस तरह़ की दूसरी आयात में लफ़्ज़ “जअ़ल्ना” इस्तेअ़्माल हुआ है। जिसका मतलब यही है कि अइम्मा का इन्तेख़ाब ख़ुद अल्लाह करता है। जिस तरह़ दीन की तब्लीग़ के लिए अम्बिया और रसूल को ख़ुदा चुनता है इसी तरह़ इमाम का इन्तेख़ाब भी उसी का काम है। इसमें उम्मत का दखल नहीं है। उम्मत ख़ुद अपने लिए इमाम चुनने की सलाह़ियत भी नहीं रखती। शेख़ तबरसी रह़्मतुल्लाह अ़लैह अपनी किताब अल एह़्तेजाज में येह रवायत नक़्ल करते हैं कि सई़द बिन अ़ब्दुल्लाह एक मर्तबा इमाम ह़सन अस्करी अ़लैहिस्सलाम की ख़िदमत में कुछ सवालात लेकर ह़ाज़िर हुए। वहाँ उन्होंने देखा कि इमाम अ़लैहिस्सलाम की गोद में एक कमसिन बच्चा बैठा हुआ है। जब सई़द ने अपने सवालात पूछने शुरूअ़् किए तो ह़ज़रत अ़लैहिस्सलाम ने उस बच्चे की तरफ़ इशारा करते हुए फ़रमाया कि अपने सवालात को अपने साह़ेबे अम्र अ़लैहिस्सलाम से पूछो। इन सवालात में एक सवाल येह भी था कि उम्मत अपने लिए इमाम ख़ुद क्यों नहीं मुन्तख़ब कर सकती? ह़ज़रत अ़लैहिस्सलाम ने इस सवाल की वज़ाह़त चाही। “तुम किस इमाम की बात कर रहे हो। जो इमामे आ़दिल है और लोगों की इस्लाह़ करता है या वोह जो कि मुफ़सिद है और लोगों में फ़साद बर्पा करता है?”
सई़द ने कहा: “जो इमाम आ़दिल है और लोगों की इस्लाह़ करता है।”
ह़ज़रत अ़लैहिस्सलाम ने फ़रमाया: क्या येह मुम्किन है कि लोग एक शख़्स को आ़दिल और मुस्लेह़ समझ कर मुन्तख़ब करें जब कि ख़ुद उसके दिल में फ़साद भरा हुआ हो। जिसका लोगों को इ़ल्म नहीं है? सई़द ने जवाब दिया: हाँ! मुम्किन है। ह़ज़रत अ़लैहिस्सलाम ने फ़रमाया: यही वजह है कि उम्मत के बस का नहीं है कि वोह ख़ुद अपने लिए इमाम मुन्तख़ब करे। इस बात को मैं एक मिसाल के ज़रीए़ वाज़ेह़ करता हूँ ताकि तुम इसे अच्छी तरह़ समझ जाओ। अल्लाह ने अपने रसूलों अ़लैहिमुस्सलाम को लोगों की हेदायत के लिए भेजा। उनको इ़ल्म-ओ-ह़िकमत से आरास्ता किया। उनको इ़स्मत अ़ता फ़रमाई, बलन्द दरजात पर फ़ाएज़ किया। उन पर किताब नाज़िल फ़रमाई ताकि वोह अपनी उम्मत की हेदायत कर सकें। उनमें जनाब मूसा अ़लैहिस्सलाम और जनाब ई़सा अ़लैहिस्सलाम भी हैं। क्या येह हो सकता है कि वोह अपने कामिल इ़ल्म-ओ-ह़िकमत के बावजूद लोगों के इन्तेख़ाब में ग़लती करें और मुनाफ़िक़ों को मोअ्मिन समझ बैठें। सई़द ने जवाब दिया! नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। ह़ज़रत अ़लैहिस्सलाम ने फ़रमाया:
“कलीमुल्लाह जनाबे मूसा अ़लैहिस्सलाम ने अपनी ह़िकमत–ओ–इ़ल्म के बावजूद अपनी उम्मत से जिन सत्तर अफ़राद को ख़ुदा की मुलाक़ात के लिए चुना था येह समझ कर कि वोह सब अपने ईमान में बलन्द हैं और नेकूकार हैं। वोह सब के सब वैसे नहीं थे बल्कि मुनाफ़िक़ निकले।”
(सूरए अअ़्राफ़, आयत १५५)
जब अल्लाह के बनाए हुए नबी ह़ज़रत मूसा अ़लैहिस्सलाम के इन्तेख़ाब में बुरे लोग निकल आए और उनके ज़ाहिर की बेना पर बदतरीन, मुफ़सिद लोगों को नेकूकार और मोअ़्तबर समझ लिया तो आ़म लोगों के इन्तेख़ाब का क्या एअ़्तेबार किया जाए जब कि उनको किसी दूसरे के दिल के ह़ाल की कोई ख़बर नहीं होती। इसलिए इमाम का इन्तेख़ाब उसी के लिए दुरुस्त है जो लोगों के ज़ाहिर-ओ-बातिन दोनों से बख़ूबी वाक़िफ़ हो। इसका इ़ल्म सिर्फ़ अल्लाह के पास ही है। जब एक नबी अ़लैहिस्सलाम अपनी क़ौम के बेहतरीन अफ़राद को नहीं चुन सकता तो फिर अन्सार-ओ-मुहाजेरीन किस तरह़ अपने लिए एक इमाम चुन सकते हैं?
क़ुरआन ने जनाब इब्राहीम अ़लैहिस्सलाम के इमाम बनाए जाने की पूरी दास्तान बयान की है।
व इज़िब्तला इब्राही–म रब्बोहू बे–कलेमातिन फ़अतम्महुन्न. क़ा–ल इन्नी जाए़लो–क लिन्नासे इमामन. क़ा–ल व मिन ज़ुर्रीयती. क़ा–ल ला यनालो अ़ह्दिज़्ज़ालेमी–न.
(सूरए बक़रा, आयत १२४)
“जब इब्राहीम अ़लैहिस्सलाम के सामने उनका इम्तेह़ान कलेमात के ज़रीए़ लिया और उनको उस इम्तेह़ान में कामियाब पाया तो उन से कहा: (ऐ इब्राहीम अ़लैहिस्सलाम) मैंने तुमको लोगों का इमाम बनाया। (इस पर इब्राहीम अ़लैहिस्सलाम) ने दर्ख़ास्त की (मालिक इस मन्सब को) मेरी ज़ुर्रीयत में भी मुन्तक़िल कर दे। ख़ुदा ने जवाब दिया: मेरा येह ओ़ह्दा ज़ालिमों को नहीं मिल सकता।”
अल्लाह और उसके ख़लील की इस गुफ़्तुगू से दो बातें वाज़ेह़ हो र्गइं : इस मन्सबे इमामत को नबी अ़लैहिस्सलाम भी अपनी ज़ुर्रीयत में बग़ैर ख़ुदा की इजाज़त के मुन्तक़िल नहीं कर सकता। येह मक़ाम सिर्फ़ अल्लाह ही अ़ता करता है। दूसरे येह कि इस मन्सब के लिए मअ़्सूम होना शर्त है। गुनहगार इस मन्सब को नहीं पा सकता। इसलिए इमाम का मअ़्सूम होना ज़रूरी है।
इमामत के मौज़ूअ़् पर क़ुरआनी आयतों पर नज़र करने से येह बात भी वाज़ेह़ हो जाती है कि इमाम अ़लैहिस्सलाम उम्मत के हादी होते हैं। मसलन येह फ़िक़्रा “यह्दू-न बेअम्रेना” येह हमारे अम्र से लोगों की हेदायत करते हैं। येह ऐ़ने मक़सदे नबूवत है। लोग इस बात से वाक़िफ़ नहीं हैं कि किस तरह़ अल्लाह की ए़बादत करें या येह की ख़ुदा की ए़बादत का सह़ीह़ तरीक़ा क्या है। इन्सान अपनी अ़क्ल-ओ-फ़ह्म से इन बातों को नहीं समझ सकते। इसलिए अल्लाह ने उनके दरमियान अम्बिया को मब्ऊ़स किया जो लोगों तक ख़ुदा के क़वानीन और शरीअ़त को दीन की शक्ल में पेश करते हैं। ख़ुदा अपने नबी सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम तक इन हेदायत को वह़ी के ज़रीए़ पहुँचाता है और नबी सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम अपनी उम्मत को इन चीज़ों की तअ़्लीम देते हैं। क्योंकि इमामत नबूवत का बदल और लाज़ेमा है इसलिए इन उमूर को पूरा करना इमाम की ज़िम्मेदारी होती है। इस आयत में इस बात का वाज़ेह़ ज़िक्र है “व अव्ह़ैना इलैहिम फ़ेअ़्लल ख़ैरात…..”
इस तरह़ उम्मत की ए़बादत का दार-ओ-मदार इमाम अ़लैहिस्सलाम की हेदायात पर होता है। अगर इमाम सह़ीह़ नहीं है तो पूरी उम्मत की ए़बादतें ख़राब हो जाएँगी। जनाब मूसा अ़लैहिस्सलाम जब कोहे तूर पर तश्रीफ़ ले गए तो आप अ़लैहिस्सलाम ने अपने भाई और वसी जनाब हारून अ़लैहिस्सलाम को क़ौम का सरपरस्त और ख़लीफ़ा मुअ़य्यन किया था। ताकि उनकी ग़ैरमौजूदगी में क़ौम गुमराह न हो जाए। मगर उनकी उम्मत ने अपने लिए सामरी को इमाम चुन लिया और उसकी हेदायात पर अ़मल करना शुरूअ़् कर दिया। नतीजा येह हुआ कि पूरी क़ौम गुमराह हो गई। यही माजरा तमाम उम्मतों का हुआ। जिन उम्मतों ने ख़ुदा के मुन्तख़ब कर्दा इमाम-ओ-सरपरस्त की एताअ़त नहीं की वोह गुमराह हो गई। उनकी पैरवी ने उन्हें जहन्नम कार् इंधन बना दिया। इसलिए ज़रूरी है कि मुसलमान भी अपनी नजात के लिए उन्हीं की इमामत को तस्लीम कर लें जिनको ख़ुदा ने बनाया है और रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने लोगों के सामने उसका एअ़्लान किया है और वोह अमीरुल मोअ्मेनीन अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम और उनकी ज़ुर्रीयत के ग्यारह इमामे मअ़्सूम अ़लैहिमुस्सलाम हैं।
अल्लाह तआ़ला हम सब मुसलमानों को इमाम बरह़क़ की एताअ़त-ओ-फ़रमाबरदारी की तौफ़ीक़ अ़ता फ़रमाए और उनके ह़क़ीक़ी वारिस ह़ुज्जते ख़ुदा इमामे ज़माना अ़लैहिस्सलाम के ज़हूर में तअ़्जील फ़रमाए। आमीन।