मोह़ब्बते अ़ली अ़लैहिस्सलाम – जुम्ला एअ़्तेक़ादात
अगर तमाम बनी आदम चाहें कि सिवाए अम्बियाए ए़ज़ाम अ़लैहिमुस्सलाम किसी और शख़्स को जामेअ़् जुम्ला फ़ज़ाएल का ह़ामिल साबित करें तो हरगिज़ किसी फ़र्दे बशर को न पाएंगे……..
……..बल्कि अगर येह कहा जाए कि हर नबी अ़लैहिस्सलाम में भी तमाम सिफ़ाते कमाल का साबित होना मुश्किल है, तो ह़क़ है।
लेकिन अ़ली अ़लैहिस्सलाम की वोह ज़ात है जिसमें हर कमाल मौजूद है और जिस पर अम्बिया अ़लैहिमुस्सलाम भी रश्क करते हैं।
मौलाए काएनात ह़ज़रत अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम का नाम सुनते ही उनके चाहनेवालों के चेहरे खिल उठते हैं, आँखें रौशन हो जाती हैं, दिल मसरूर हो जाता है। अ़ली अ़लैहिस्सलाम का मक़ाम रेगिस्तान में नख़लिस्तान का मिस्ल है।
अल्लाह की जानिब से अ़ली अ़लैहिस्सलाम की मोह़ब्बत मोअ्मिन के लिए बेहतरीन नेअ़्मत है और इसी नेअ़्मत के “ज़िक्र” को पैग़म्बर सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने ए़बादत कहा है। येह कैसे मुम्किन है कि एक मोअ्मिन ज़िक्रे अ़ली अ़लैहिस्सलाम तो करे और ज़िक्रे ख़ुदा को फ़रामोश कर दे?
दिल में अ़ली अ़लैहिस्सलाम की मोह़ब्बत है तो शुजाअ़त है, शुजाअ़त इन्सान को ऐसा बहादुर बनाती है कि बन्दा सिवाए अपने मअ़्बूद के किसी से नहीं डरता। ख़ौफ़े ख़ुदा ह़क़ की राह पर चलने की दअ़्वत देता है और ह़क़ अ़ली अ़लैहिस्सलाम के साथ है। अगर किसी को ह़क़ की मअ़्रेफ़त हुई तो अ़ली अ़लैहिस्सलाम की मअ़्रेफ़त हुई और वोह नजात पा गया। जो अ़ली अ़लैहिस्सलाम तक नहीं पहुँचा वोह ह़क़ से मुन्ह़रिफ़ हो गया और बेहिश्त से मह़्रूम हो गया।
रोज़े ग़दीर, इक्मालुद्दीन और इत्मामे नेअ़्मत पर जिन्होंने अ़ली अ़लैहिस्सलाम की मौलाइयत का एक़रार किया और बैअ़त करने के साथ साथ मुबारकबाद भी पेश की लेकिन मोह़ब्बत न होने की वजह से ह़क़ से दूर हो गए और अ़ली अ़लैहिस्सलाम से किनारा कशी एख़्तेयार की……वोह ज़लालत की वादी में गुम हो गए और सक़र ही उनका अबदी ठिकाना है।
जब ह़क़ का साथ छूट गया तो अ़द्ल भी हाथ से गया और उसकी जगह ज़ुल्म आ गया……जब अ़द्ल नहीं तो तौह़ीद के क्या मअ़्ना, फिर नबूवत क्या शय है और मआ़द पर से भी यक़ीन उठ गया……कैसा ह़िसाब और कैसी किताब।
जब दीन ही नहीं रहा तो वह़्ये एलाही भी नबूवत का ढोंग नज़र आई।
ज़ालिम जब ज़ुल्म ढाता है तो मोह़ब्बत ग़ाएब हो जाती है और नफ़रत जनम लेती है। फिर तो मसाजिद के मिम्बरों से सब–ओ–शितम की यलग़ार होती है……नतीजा येह कि क़ल्ब क़ासी में ईमान की चिंगारी भी मअ़्दूम हो जाती है। जब कुल्ले ईमान से बुग़्ज़–ओ–अ़दावत होगी तो ईमान का एक ज़र्रा भी दिल में बाक़ी न रहेगा। दूसरी तरफ़ मज़्लूम पर जैसे जैसे ज़ुल्म बढ़ता जाता है, उसके दिल में अपने मह़बूब के लिए मोह़ब्बत में एज़ाफ़ा होता जाता है।
अ़ली अ़लैहिस्सलाम, इसी दुनिया में क़सीमे जन्नत–ओ–नार हो गए। जो उनसे मुतमस्सिक हुआ उसकी आख़ेरत कामियाब और जो अ़ली अ़लैहिस्सलाम से दूर हुआ वोह दुनिया–ओ–आख़ेरत में ख़सारे का ह़क़दार हुआ। उसको न कोई फ़ातेह़ा और न कोई दुरूद फ़ाएदा पहुँचाएगा। वोह अल्लाह के अ़ज़ाब से मह़्फ़ूज़ नहीं रहेगा। अल्लाह तआ़ला ने अपने अ़ज़ाब से सिर्फ़ उन लोगों को अमान की ज़मानत दी है जो अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम की वेलायत के क़िल्ए़ (क़िले) में दाख़िल हो गए हैं।
फिर उनका ह़श्र क्या होगा……जो अ़ली अ़लैहिस्सलाम की मोह़ब्बत का सिर्फ़ अपनी ज़बान से दअ़्वा करते हैं?……एक तरफ़ा मोह़ब्बत……
अ़ली अ़लैहिस्सलाम के आख़िरी फ़र्ज़न्द ह़ज़रत ह़ुज्जत इब्निल ह़सन (अ़ज.) के हुज़ूर में कैसे जाएँगे?
अल्लाह तआ़ला ऐसे अफ़राद की हेदायत करे।
इस्लाम में ई़दे ग़दीर का तसव्वुर
अलह़म्दोलिल्लाह मज़हबे ह़क़्क़ा अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम का येह इम्तेयाज़ रहा है कि वोह उन्हीं आदाब–ओ–रुसूमात के पाबंद होते हैं जो दाएरए इस्लाम और शरई़ दस्तूर का ह़िस्सा होते हैं और अपनी ख़ुशी–ओ–ग़म नीज़ ए़बादात–ओ–ताआ़त में क़ुरआन करीम, सुन्नते पैग़म्बर अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम और मोअ़्तबर रवायातेअइम्मा अ़लैहिमुस्सलाम के ताबेअ़्–ओ–फ़रमाँबरदार होते हैं। मज़हबे अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम के मानने वालों के नज़्दीक ई़दे ग़दीर अ़ज़ीम तरीन ई़द और और उसे ई़दे अकबर की ह़ैसियत से शोहरत ह़ासिल है। दिलों में रुसूख़ और क़ल्ब–ओ–नज़र में इसका मेअ़्यार–ओ–मफ़्हूम मुतअ़य्यन करने के लिए इस दिन को तारीख़ी एअ़्तेबार से ई़द का दिन क़रार दिया गया है ताकि इस तारीख़ को दिन–ओ–रात में मह़ाफ़िल–ओ–जश्न मुनअ़क़िद किए जाएँ। ए़बादते एलाही के मरासिम बजा लाए जाएँ। सिलए रह़्म–ओ–बख़्शिश के ज़रीए़ मोह़्ताजों की ख़बरगीरी की जाए। नए और ख़ुशनुमा लेबास से अपने को आरास्ता किया जाए। रंगारंग खाने पकाए जाएँ ताकि आ़म लोग इसकी तरफ़ मुतवज्जेह हों इस तरह़ के एह़्तेमाम–ओ–मुज़ाहेरात पर नावाक़िफ़ ह़ज़रात को तजस्सुस हो। इसके अस्बाब दरियाफ़्त करें और इससे वाक़िफ़कार ह़ज़रात वाक़ेअ़ए ग़दीर की मुतवातिर रवायात बयान करें। उ़लमा, ख़ोतबा और शोअ़रा की तक़रीरों और नग़मों की गूंज से इसके एअ़्तेबार का एअ़्लान हो सके इस तरह़ क़ौमों और गिरोहों के नज़्दीक अ़ह्द ब अ़ह्द इस ख़बर की तकरार होती रहे।
इस सिलसिले में दो बातें क़ाबिले ग़ौर हैं:
अव्वल – ई़दे ग़दीर सिर्फ़ मज़हबे शीआ़ ही से मख़्सूस नहीं है मुसलमानों के दूसरे तबक़े भी इससे वाबस्ता हैं। बीरूनी जो आ़लिमे अह्ले सुन्नत हैं अपनी किताब में दूसरी ई़दों के साथ ई़दे ग़दीर की भी निशानदेही करते हैं जो मुसलमानों के लिए क़ाबिले तवज्जोह है।
(आसारुल बाक़िया फ़ी क़ुरूनिल ख़ालिया)
इब्ने तल्ह़ा ने मतालिबुस्सुऊल में नक़्ल किया है कि रोज़े ग़दीरे ख़ुम का अमीरुल मोअ्मेनीन अ़लैहिस्सलाम ने अपने शेअ़्र में तज़्केरा फ़रमाया है। और येह दिन इस लिए क़रार पाया है कि रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने ह़ज़रत अ़ली अ़लैहिस्सलाम को वेलायत के मरतबए उ़ज़्मा पर नस्ब फ़रमाया। आगे लिखते हैं:जो लफ़्ज़े मौला का मफ़्हूम रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के लिए समझा जा सकता है बिल्कुल वही मफ़्हूम अ़ली अ़लैहिस्सलाम के लिए मुतअ़य्यन फ़रमाया और येह मरतबा और मक़ाम इन्तेहाई बलन्द है जिससे ह़ज़रत को मख़्सूस फ़रमाया इसी वजह़ से इस दिन को ह़ज़रत के दोस्तों के लिए सुरूर–ओ–शादमानी का दिन क़रार दिया।
मुन्दर्जा बाला जुम्ला बजाए ख़ुद मुसलमानों के लिए मुश्तरका ई़द की निशानदेही करता है। मुसलमानों में कोई भी ऐसा नहीं है जो ह़ज़रत अ़ली अ़लैहिस्सलाम से अ़दावत रखता हो, सिर्फ़ मअ़्मूली तअ़्दाद में ख़वारिज–ओ–नासेबी की टोली है जो दीने इस्लाम से ख़ारिज है।
ई़दे ग़दीर से मुतअ़ल्लिक़ तारीख़ी किताबों से पता चलता है कि तमाम मशरिक़–ओ–मग़रिब के मुमालिक, मिस्र, मग़रिबी अफ्रीक़ा और इ़राक़ वग़ैरह के मुसलमान सद्रे अव्वल से मुत्तफ़ेक़ा तौर पर इस को मानते चले आ रहे हैं। इस दिन से मुतअ़ल्लिक़ ख़ुसूसी एह्तेमाम, नमाज़–ओ–दुआ़, बज़्मे ख़ेताबत और बज़्मे मक़ासेदा वग़ैरह का मअ़्मूल किताबों में तफ़्सील से मौजूद है। वफ़ातुल अअ़्यान में इस ई़द का मुतअ़द्दिद जगह तज़्केरा है। मसलन मुस्तअ़्ली बिन मुस्तन्सिर के ह़ालात में है – बरोज़े ई़दे ग़दीरे ख़ुम बतारीख़ १८ ज़िल्हिज्जा ४८७ हि. मौसूफ़ की बैअ़त वाक़ेअ़् हुई। इसी तरह़ इब्ने ख़ल्कान और मस्ऊ़दी ने तम्बीहुल अश्राफ़ में, सअ़्लेबी ने अपनी किताब में लिखा है कि इस दिन को शीआ़ बड़ी अहम्मीयत देते हैं और शबे ग़दीर मुसलमान क़ौम में मशहूर है।
दुव्वुम – जिस दिन रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने अ़ली अ़लैहिस्सलाम की ख़ेलाफ़ते कुबरा का एअ़्लान फ़रमाया और बरोज़े ई़दे ग़दीर उनकी दीनी और दुन्यवी शहन्शाहियत मुसल्लम हुई उसी दिन से बराबर और मुतवातिर इस दिन को अ़ज़मत–ओ–अहम्मीयत दी जा रही है और इस दिन से ज़्यादा कौन सा दिन अहम्मीयत का ह़ामिल हो सकता है जिस दिन दीन में ख़ाहिशात का क़लअ़् क़मअ़् हुआ, जाहिलीयत–ओ–अव्हाम की नफ़ी हुई, शाहराहे हेदायत नुमाया हुई, दीन की तक्मील और नेअ़्मत के तमाम होने का एअ़्लान हुआ।
जिस दिन बादशाह तख़्ते शाही पर जल्वा अफ़रोज़ होता है उस दिन को लोग मसर्रत–ओ–शादमानी का दिन क़रार देते हैं, चिराग़ाँ होता है, जश्न मनाते हैं, ख़ुशियों का इज़्हार होता है।
तो जिस दिन सल्तनते इस्लामी दीन की वेलायते उ़ज़्मा से अ़ज़ीम शख़्सीयत ब–ज़बाने तर्जुमाने वह़ी (वह़्य) बहरामन्द हुई उस दिन को बदर्जए औला ई़द क़रार देना चाहिए, दिल खोलकर इज़्हारे मसर्रत करना चाहिए।
ऐसी मसर्रतों से भरपूर मौक़ेअ़् पर एह़्तेमामे जश्न करना तक़र्रुबे ख़ुदा वन्दी का ज़रीआ़ है, इसलिए नमाज़, रोज़ा, दुआ़ और ज़ेयारत वग़ैरह में दिन बसर करना चाहिए, इसीलिए रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने ह़ाज़ेरीन कि जिनमें अबू बक्र, उ़मर और क़ुरैश–ओ–अन्सार के बड़े बुज़ुर्ग नीज़ अज़्वाजे रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ह़ाज़िर थे, ह़ुक्म फ़रमाया कि अमीरुल मोअ्मेनीन अ़लैहिस्सलाम की ख़िदमत में ह़ाज़िर होकर उन्हें वेलायते कुबरा के मन्सब पर फ़ाएज़ होने की ख़ुशी में मुबारकबाद का नज़्राना पेश करें। और ह़ज़रत ख़त्मी मर्तबत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने इस मौक़ेअ़् पर ख़ुश होकर फ़रमाया : अल्हहम्दो लिल्लाहिल्लज़ी फ़ज़्ज़ल्ना अ़ला जमीइ़ल आलमीन
हम्द–ओ–सना उस अल्लाह के लिए है जिसने हमें सारे आलमीन पर बरतरी फ़रमाई
(अल ग़दीर)
इन तमाम बातों के साथ–साथ इस ह़क़ीक़त को भी फ़रामोश नहीं किया जा सकता है कि ज़मानए उ़मर में एक तारिक़ बिन शहाब नामी यहूदी रहता था एक दिन उसने कहा जब सारे सह़ाबा और ख़ुद उ़मर भी मौजूद थे: “अगर येह आयते तक्मीले दीन हम लोगों के बारे में नाज़िल होती तो उस दिन को ई़द क़रार देते। वहाँ मौजूद किसी ने भी इस बात पर एअ़्तेराज़ नहीं किया और न इन्कार किया बल्कि उ़मर ने भी ऐसी बात कही जो उसके मफ़्हूम की तस्दीक़ करती थी।”
(अल ग़दीर)
यही वजह़ थी कि रसूले इस्लाम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम और उनके बअ़्द अइम्मए मअ़्सूमीन अ़लैहिमुस्सलाम ने उसको ख़ुसूसी तौर से ई़द का दिन क़रार देने की ताकीद फ़रमाई। इसी बेना पर शीअ़्याने ह़ैदरे कर्रार ने इसे मसर्रत–ओ–शादमानी का दिन क़रार दिया।
ई़दे ग़दीर रवायतों की रोशनी में
१८ ज़िलह़िज्जा यअ़्नी रोज़े ग़दीरे ख़ुम को बाफ़ज़ीलत ई़द क़रार दिया गया।
आइए रवायतों का भी मुतालेआ़ करते चलें:
१) इमाम जअ़्फ़र सादिक़ अ़लैहिस्सलाम अपने आबाए केराम से ह़दीसे रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम नक़्ल करते है कि मेरी उम्मत के लिए अफ़्ज़ल तरीन ई़द बरोज़े ई़दे ग़दीरे ख़ुम की ई़द है। इस दिन ख़ुदा ने मुझे अपने भाई अ़ली अ़लैहिस्सलाम को उम्मत का इमाम नस्ब करने की ताकीद फ़रमाई ताकि उसी के ज़रीए़ लोग मेरे बअ़्द हेदायत पाएँ ख़ुदा ने इस दिन की बदौलत दीन कामिल किया। उम्मत पर अपनी नेअ़्मतें तमाम कीं। और इसी बात को ह़ाफ़िज़ ख़रगोशी ने भी लिखा है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने फ़रमाया:
मुझे मुबारक बाद दो, मुझे मुबारक बाद दो।
(शरफ़ुल मुस्तफ़ा)
२) रावी अह्नफ़ ने सादिक़े आले मोह़म्मद अ़लैहिस्सलाम से अ़र्ज़ की: “मैं क़ुर्बान जाऊँ, मुसलमानों में अ़रफ़ा, ई़दैन और जुमआ़ के अ़लावा भी कोई ई़द है जो इन से अफ़्ज़ल हो?” फ़रमाया: “हाँ! इन से कहीं ज़्यादा अफ़्ज़ल–ओ–अशरफ़ वोह दिन है जब ख़ुदा ने दीन कामिल फ़रमाया और आयत नाज़िल फ़रमाई:
अल यौ–म अक्मल्तो लकुम दी–नकुम व अत्मम्तो अ़लैकुम नेअ़्मती व रज़ीतो लकुमुल इस्ला–म दीनन
अह्नफ़ ने पूछा: कौन सा दिन है वोह? फ़रमाया: जब अम्बियाए बनी इस्राईल अपने बअ़्द किसी को वसी या इमाम मुकर्रर फ़रमाते तो उस दिन को ई़द क़रार देते, इस लेह़ाज़ से तुम्हारे लिए भी वही दिन है जब आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने अ़ली अ़लैहिस्सलाम को इमाम मुक़र्रर किया और इस सिलसिले में जो कुछ नाज़िल हुआ वोह जानते ही हो।
अह्नफ़ ने अ़र्ज़ की वोह साल में किस दिन पड़ता है? फ़रमाया: दिनों में तक़द्दुम–ओ–तअख़्ख़ुर होता रहता है, सनीचर, इतवार…….
पूछा उस दिन क्या करना चाहिए?
फ़रमाया: नमाज़, ए़बादते एलाही, शुक्राना और एअ़्लाने वेलायते अ़ली अ़लैहिस्सलाम पर ख़ुशी का इज़्हार, मुझे तो यही पसन्द है कि इस दिन रोज़ा रखो।
(तफ़्सीरुल फ़ुरात, दर ज़ैल सूरए माएदा)
और इससे मिलती जुलती एक रवायत शेख़ कुलैनी रह़्मतुल्लाह अ़लैह ने नक़्ल फ़रमाई है कि जब इमाम सादिक़ अ़लैहिस्सलाम से दरियाफ़्त किया गया कि मुसलमानों में ई़दैन के अ़लावा भी कोई ई़द है? तो फ़रमाया: हाँ, इन दिनों से अ़ज़ीम तर और येह वोह दिन है जिस दिन अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम को इमाम बनाया गया।
दरियाफ़्त किया: उस दिन क्या करें?
फ़रमाया: रोज़ा रखो, आले मोह़म्मद पर सलवात पढ़ो और ग़ासेबीने ह़ुक़ूक़ से बेज़ारी करो। रसूलों ने अपने औसिया को ह़ुक्म दिया था कि जिस दिन उनकी वेसायत का ऐअ़्लान हुआ है उसे ई़द का दिन क़रार दें।
पूछा: इस दिन रोज़े का सवाब क्या है? फ़रमाया: साठ महीनों के रोज़े का सवाब है
(अल काफ़ी)
रावी फय्याज़ बिन मोह़म्मद बिन उ़मर तूसी ने इमाम अ़ली रज़ा अ़लैहिस्सलाम से मुलाक़ात की तो देखा कि आपने अपने क़रीबी और मख़्सूस अफ़राद को बरोज़े ग़दीर इफ़्तार पर मदऊ़ फ़रमाया था। आपके घर का नक़्शा बिल्कुल बदला हुआ नज़र आ रहा था। ह़ालात–ओ–मुज़ाहेरात यक्सर मुख़्लतलिफ़ थे। ग़ेज़ा, लिबास,अंगूठी, जूते, बल्कि तमाम वज़्ए़ ज़िन्दगी आरास्ता था अपने गुलामों को भी आरास्तगी का ह़ुक्म दिया जो आ़म दिनों से क़तई़ मुख़्तलिफ़ था और ह़ज़रत लोगों को उस दिन की फ़ज़ीलत से बाख़बर फ़रमा रहे थे।
(अल ग़दीर)
इ़दे ग़दीर की शरई़ ह़ैसियत पर एअ़्तेराज़ करने वाले
क़ारेईने केराम जब आप ई़दे ग़दीर की मुत्तफ़ेक़ा ह़ैसियत और उसकी अ़ज़मत से वाफ़िफ़ हो गए और मअ़्लूम हो गया कि इसका सिलसिला अ़ह्दे नबी से मुसलसल और मुतवातिर है और अइम्मा अ़लैहिमुस्सलाम और औसिया की ज़बाने मुबारक से मर्बूत रहा है। आपने तफ़्सीरे फ़ुरात और उसूले काफ़ी की रवायत को मुलाह़ेज़ा किया जो तीसरी सदी के दानिश्वर है।
मगर अब ज़रा येह भी मुलाह़ेज़ा फ़रमाएँ कि जिन्हें बुग़्ज़–ओ–ए़नाद ने ऐसा अंधा कर दिया कि सारे ह़क़ाएक़ को इस तरह़ हज़्म कर गए कि उन्हें कोई ह़क़ीक़त ही नज़र नहीं आ रही है। मसलन:
१) मुक़रेज़ी ख़ेतत में कहते हैं: ई़दे ग़दीर की शरई़ ह़ैसियत नहीं है न ही सलफ़े उम्मत से होती हुई आई है और सबसे पहले इसके मरासिम का इजरा इ़राक़ में हुआ वोह ज़माना मोइ़ज़्ज़ुद्दौला अ़ली बिन बूया का ज़माना था। ३५२ हि. में इस ई़द की ई़जाद हुई उस वक़्त से तमाम शीआ़ मनाते आ रहे हैं।
२) और इसी तरह़ नुवैरी ने भी अपनी किताब में इसे निस्बत दी है कि सबसे पहले जिसने ई़जाद किया वोह मोइ़ज़्ज़ुद्दौला अबुल ह़सन अ़ली बिन बूया है। शीओ़ं ने इसे ई़जाद करके अपने यहाँ रस्म–ओ–रवाज की तरह़ शामिल कर लिया।
हमारा जवाब
ऐसे बकवास करने वालों को क्या कहें जो तारीख़े शीआ़ लिखते वक़्त ह़क़ीक़त मअ़्लूम करने की कोशिश ही नहीं करते या फ़रामोश कर जाते हैं अँधेरों में टटोलने की कोशिश करते हैं। जो मिला लिख मारा……. आख़िर येह मस्ऊ़दी भी तो हैं जिनकी वफ़ात ३४६ हि. में हुई है। और तम्बीहतुल अश्राफ़ में लिखा है: “फ़र्ज़न्दाने अ़ली अ़लैहिस्सलाम और उनके शीआ़ इस दिन की बड़ी क़द्र करते हैं।”
आख़िर येह कुलैनी रह़्मतुल्लाह अ़लैह भी तो है जिनकी वफ़ात ३२९ हि. में हुई है। अगर कुलैनी रह़्मतुल्लाह अ़लैह से अ़दावत है, उनकी रवायतों से बैर है तो आख़िर उनके मन्क़ूलात यअ़्नी नक़्ल की जाने वाली चीज़ों से चश्म पोशी क्यों कर रहे हैं। उन्हें तस्लीम करने या न करने की बात नहीं है आख़िर अपनी किताब में दर्ज़ तो किया है, तो उसकी निस्बत मोइ़ज़्ज़ुद्दौला की तरफ़ कैसे दी जा सकती है। उनसे क़ब्ल फ़ुरात बिन इब्राहीम भी अपने ज़माने में इस ई़द की ख़बर दे रहे हैं येह सभी अपनी निगारेशात में मुक़रेज़ी की ३५२ हि. की बिदअ़्ती ईजाद का शोशा छोड़ने से क़ब्ल के हैं।
और येह फ़य्याज़ तूसी है जो ई़दे ग़दीर के वुजूद का ज़मानए इमाम रज़ा अ़लैहिस्सलाम में पता दे रहे हैं जो २०३ हि. से क़ब्ल का वक़्त है। ख़ुद इमाम रज़ा अ़लैहिस्सलाम की बारगाह में मौजूद बचश्मे ख़ुद तमाम मरासिम देख रहे हैं।
इमाम सादिक़ अ़लैहिस्सलाम जिनकी वफ़ात १४८ हि. में हुई। अपने अस्ह़ाब को मरासिमे ई़द की तब्लीग़ फ़रमा रहे हैं, सुन्नते अम्बिया का एअ़्लान कर रहे हैं। उसके अअ़्माल–ओ–वज़ाएफ़ की तअ़्लीम फ़रमा रहे हैं, उस दिन की मख़्सूस दुआ़ तअ़्लीम फ़रमा रहे हैं, जबकि बसाएरुद्दरजात की मख़्सूस ह़दीस से साफ़ पता चलता है कि मोइ़ज़्ज़ुद्दौला से क़ब्ल चार ई़दों का वजूद था।
शाएद मुक़रेज़ी जैसे ग़ैर मुन्सिफ़ और नाआक़ेबत अन्देश अफ़राद समझ रहे थे वोह जो कुछ ख़यानत करेंगे और ह़क़ाएक़ बयान करने में ए़नाद का सहारा लेकर ह़क़ीक़तों को निगल जाएँगे और पर्दा फ़ाश करने वाला उनकी तह़रीरों का तज्ज़िया नहीं करेगा। ह़क़ इसी तरह़ आश्कार होता है और बातिल इसी तरह़ नाबूद होता है। और बातिल को नाबूद होना ही है।
किताबुल वसीया – अबू मूसा ई़सा अल बजली अल ज़रीर
(मुतवफ़्फ़ा २२० हि.)
अमीरुल मोअ्मेनीन अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम की वसायत पर किताबें ज़मानए क़दीम से लिखी जा रही हैं। “किताबुल वसीया” और “अल वसीया” जैसे नामों की किताबें फ़रहंगे इस्लामी में, बिलख़ुसूस अदबीयाते शीआ़ में, कसरत से मौजूद हैं। येह इस बात की दलील है कि अमीरुल मोअ्मेनीन अ़लैहिस्सलाम की वसायत पर अ़क़ीदे की एसालत तमाम शीआ़ मआ़शरों में मह़वर रही है। और तारीख़ी तह़व्वुलात और सियासी तब्दीलियों का इस पर कोई असर नहीं था।
जिस किताब का तआ़रुफ़ हम “आफ़ताबे वेलायत” के इस शुमारे में कराने जा रहे है वोह भी इसी मौज़ूअ़् पर एक क़दीमी किताब हैं जिसका नाम है “किताबुल वसीया” और उसके मुसन्निफ़ जनाब ई़सा बिन मुस्तफ़ाद बजली हैं (अ़रबी में अल मुस्तफ़ाद अल बजली) जो सातवें इमाम ह़ज़रत मूसा अल काज़िम अ़लैहिस्सलाम के ख़ास अस्ह़ाब में शुमार किए जाते हैं।
इस किताब का असली नुस्ख़ा आज दस्तेयाब नहीं है। लेकिन इस किताब से अह़ादीस हमारी मोअ़्तबर किताबों में नक़्ल की गई हैं जैसे सेक़तुल इस्लाम कुलैनी रह़्मतुल्लाह अ़लैह की ग़राँक़द्र किताब अल काफ़ी, सैयद शरीफ़ रज़ी की तस्नीफ़ ख़साएसे अमीरुल मोअ्मेनीन अ़लैहिस्सलाम, सैयद इब्ने ताऊस की तराएफ़, अ़ली बिन युनूस बयाज़ी आ़मेली की अस्सेरातुल मुस्तक़ीम, वग़ैरह।
अब बारह सदियों के बअ़्द, एक मोह़क़्क़िक़े मोआ़सिर जनाब शेख़ क़ैस अ़त्तार ने इन मुन्दर्जा बाला मनाबेअ़् और मदारिक से ३६ ह़दीसें अख़्ज़ कीं और किताब नफ़ीसे काफ़ी से इनका मुक़ाएसा किया और अह्ले तह़क़ीक़ के लिए पेश किया। जनाब अ़त्तार ने एक तफ़्सीली मुक़द्दमा रक़म तराज़ किया है जिसमें आपने उ़लमाए रेजाल के नज़रियात इस किताब और उसके मुसन्निफ़ के बारे में पेश किए हैं और उनका तज्ज़िया किया है।
इस मुक़द्दमे के बअ़्द आपने किताबुल वसीया में ३६ ह़दीसें नक़्ल की हैं। जैसा कि बयान कर चुके हैं, मोह़क़्क़िक़ मोह़तरम ने इन अह़ादीस की बाज़याबी के लिए ६ किताबों पर इस्तेनाद किया है। वोह किताबें इस तरह़ हैं:
१– मिस्बाहुल अनवार – जो अब तक चाप नहीं की गई है लेहाज़ा इसके तीन मोअ़्तबर ख़त्ती नुस्ख़े कि जिनकी तरफ़ मोहक़्क़िक़ ने रुजूअ़् फ़रमाया था उनकी ख़ुसूसियात मुक़द्दमे में बयान की गई हैं।
२– किताबे तर्फ़ – जो ह़ाल ही में इसी मोह़क़्क़िक़ की कोशिशों से मन्ज़रे आ़म पर आई है और इसके ६ नुस्ख़ों की ख़ुसूसियात का ज़िक्र किया गया है।
३– बक़िया ४ किताबें – काफ़ी, ख़साएस, इस्बातुल वसीया और अस्सेरातुल मुस्तक़ीम के चाप शुदा नुस्ख़ों पर एअ़्तेमाद किया गया हैं।
यहाँ येह बताना लाज़िम और ज़रूरी समझते हैं कि बारहवीं सदी के मशहूर–ओ–मअ़्रूफ़ मोह़द्दिस मरह़ूम सैयद ह़ाशिम बहरानी रह़्मतुल्लाह अ़लैह ने अपनी किताब “अत्तोह़फ़तुल बहीया फ़ी इस्बातुल वसीया” में किताबे तर्फ़ से २१ ह़दीसें नक़्ल की हैं कि जिनमें २० ह़दीसें ई़सा बिन मुस्तफ़ाद की किताब से मन्कूल हैं कि कभी कभी इस किताब की तरफ़ भी रुजूअ़् किया गया है। दिलचस्प बात येह है कि इस किताब में अ़रबी की इ़बारतों पर एअ़्राब लगाए गए है और हर ह़दीस के नीचे नुस्ख़ों में एख़्तेलाफ़ और ह़दीस के मनाबेअ़् का ज़िक्र है।
आइए इस अहम और गराँक़द्र किताब की चन्द अह़ादीस पर ताएराना नज़र डालते हैं ताकि उनके मज़ामीन से मुस्तफ़ीद हों।
१– ई़सा इब्ने मुस्तफ़ाद ने इमाम काज़िम अ़लैहिस्सलाम से अमीरुल मोअ्मेनीन अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम और उम्मुल मोअ्मेनीन मोह़्सिनतुल इस्लाम ह़ज़रत ख़दीजा सलामुल्लाह अ़लैहा के इस्लाम लाने की कैफ़ीयत और शराएत से मुतअ़ल्लिक़ सवाल किया। इमाम काज़िम अ़लैहिस्सलाम ने उनके सवाल का जवाब अपने पेदरे बुर्ज़ुग़वार की रवायत से दिया। इस ह़दीस शरीफ़ में तौह़ीद, नबूवत और मआ़द पर १२ नुकात, अह़काम और अख़्लाक़ पर १६ नुकात, इमामत, तवल्ला और तबर्रा पर १० नुकात हैं। यहाँ तक कि इसमें वोह बातें मौजूद हैं जो अब तक वाक़ेअ़् नहीं र्हुइं और येह कि पैग़म्बर अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने ह़ज़रत ख़दीजा सलामुल्लाह अ़लैहा से अ़ह्द–ओ–पैमान लिया कि वोह वेलायते ह़ज़रत अ़ली अ़लैहिस्सलाम को तस्लीम करेंगी।
२– मदीनए मुनव्वरा हिजरत फ़रमाने के बअ़्द और जंगे बद्र के लिए निकलते वक़्त पैग़म्बर अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने मुसलमानों से बैअ़त ली, इस मौक़ेअ़् पर अमीरुल मोअ्मेनीन अ़लैहिस्सलाम से तन्हाई में कुछ मतालिब बयान किए और आप अ़लैहिस्सलाम से वअ़्दा लिया कि इन मतालिब को पोशीदा रखेंगे। इसके बअ़्द एक और मजलिस में ह़ज़रत अमीरुल मोअ्मेनीन, ह़ज़रत ज़हरा और जनाब ह़मज़ा अ़लैहिमुस्सलाम को दरियाफ़्त किया और उन दोनों से दरख़ास्त की कि वोह अमीरुल मोअ्मेनीन अ़लैहिस्सलाम के हाथों पर बैअ़त करें। उस वक़्त आयए करीमा “यदुल्लाहे फ़ौ–क़ ऐदीहिम (सूरए फ़त्ह (४८), आयत १०)” नाज़िल हुई।
३– पैग़म्बर अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने तमाम लोगों से एक एक करके अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम के लिए बैअ़त ली। उसी रोज़ से ख़ानदाने नूर के ख़ेलाफ़ लोगों के दिलों में कीना और दुश्मनी आश्कार हुई।
४– ह़ज़रत ह़मज़ा अ़लैहिस्सलाम की शहादत की शब, पैग़म्बर अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने आपके लिए इस्लाम के अह़काम और ईमान के शराएत बयान फ़रमाए जिसमें तौह़ीद, नबूवत और मआ़द के मुतअ़ल्लिक़ ९ नुकात थे और १० नुकात इमामत और वेलायत के बाब में थे। ह़ज़रत ह़मज़ा अ़लैहिस्सलाम ने भी चन्द बार अपने ईमान और तस्दीक़ का एअ़्लान फ़रमाया।
५– इस ह़दीस शरीफ़ में ह़ज़रत रसूले अअ़्ज़म सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने मोअ़्तबर और आ़दिल सह़ाबा जनाब सलमान, जनाब अबूज़र और जनाब मिक़दाद रह़्मतुल्लाह अ़लैहिम के लिए इस्लाम के शराएअ़् और ईमान के शराएत बयान फ़रमाए जिसमें ८ नुकात तौहीद, नबूवत, क़ुरआन करीम और क़ज़ा–ओ–क़द्र के मुतअ़ल्लिक़ थे। १८ नुकात इमामत के मौज़ूअ़् पर थे। २३ नुकात अख़्लाक़ और अह़काम के बारे में थे। ५ नुकात अह्लेबैते अत्हार अ़लैहिमुस्सलाम से मोह़ब्बत के मुतअ़ल्लिक़ थे। ६ नुकात क़ुरआन करीम का रिश्ता ह़ज़रत अमीरुल मोअ्मेनीन अ़लैहिस्सलाम से और ७ नुकात मआ़द के मौज़ूअ़् पर थे।
इस ह़दीस शरीफ़ की इब्तेदा में ह़ज़रत मुरसले अअ़्ज़म सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने फ़रमाया कि इस्लाम के शराएत और शराएअ़् इससे ज़्यादा हैं कि उनका शुमार किया जाए। फिर आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने मज़्कूरा ४७ नुकात को नेहायत एख़्तेसार से और बहुत ही जामेअ़् अन्दाज़ में बयान फ़रमाया।
येह किताब (किताबुल वसीया) जो कम सफ़ह़ात पर मुश्तमिल है लेकिन मतालिब से भरपूर है। इसमें ज़बाने वह़ी से हम तक वोह रवायात पहुँची हैं जिनमें नबूवत के इब्तेदाई दिन और आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की ह़याते दुन्यवी के आख़िरी दिनों की ख़बरें हैं और जिनको बनी उमय्या और बनी अ़ब्बास के ज़ालिम और जाबिर ह़ुक्मरानों ने मिटाने की ह़त्तल इम्कान कोशिश की।
येह “अस्ल” उन ४०० उसूलों में है कि जिन के मौज़ूअ़् में नज़्म और यकजेह्ती पाई जाती है। उसूले दीन में अहम तरीन अस्ल यअ़्नी इमामत और वेलायते अमीरुल मोअ्मेनीन अ़लैहिस्सलाम पर बेपनाह ताकीद की गई है। लेहाज़ा मुख़्तलिफ़ जेहात की बेना पर इस अस्ल को ४०० उसूलों में एक ख़ास मक़ाम और एअ़्तेबार ह़ासिल है। येह ग़राँक़द्र अस्ल और उसकी मज्हूलुल क़द्र रवायतें हमें एक ऐसी शख़्सीयत के ज़रीए पहुँची हैं जिनका इस्मे गेरामी ई़सा बिन मुस्तफ़ाद था कि जिनके बारे में एक मक़ाम पर ख़ुद इमाम काज़िम अ़लैहिस्सलाम ने फ़रमाया:
“तुम्हारी तमाम काविशों का दारोमदार इ़ल्म है। ख़ुदा की क़सम तुम्हारा सवाल सिर्फ़ और सिर्फ़ तफ़क़्क़ोह के लिए होता है।”
(पहली ह़दीस)
एक दूसरे मौक़ेअ़् पर इमाम काज़िम अ़लैहिस्सलाम ने फ़रमाया:
“ऐ ई़सा तुम तमाम उमूर की गहराइयों में तह़क़ीक़ करते हो और जब तक उन्हें ह़ासिल नहीं कर लेते हो चैन नहीं लेते हो।”
ई़सा ने अ़र्ज़ किया:
“मेरे माँ बाप आप पर फ़ेदा हों! मैं सिर्फ़ उन उमूर के बारे में सवाल करता हूँ जो मेरे दीन के लिए नफ़अ़् बख़्श हैं और दीन फ़ह्मी के लिए सवाल करता हूँ ताकि मैं अपनी जेहालत कि बेना पर गुमराह न हो जाऊँ। लेकिन सिवाए आपके और मैं किसको पाऊँ जो मुझे उन उमूर से आश्ना करे?”
(ह़दीस ३२)
अलबत्ता येह बात ज़ेह्न नशीन रहे कि ई़सा ने इनमें कई ह़दीसें अपने वालिद अल मुस्तफ़ाद से सुनी हैं जो इमाम जअ़्फ़र सादिक़ अ़लैहिस्सलाम के शागिर्दों में से थे। मुम्किन है कि ई़सा ने ताकीद और इत्मीनान के लिए या मज़ीद वज़ाह़त के लिए इन रवायात शरीफ़ को अपने इमामे वक़्त यअ़्नी इमाम काज़िम अ़लैहिस्सलाम की ख़िदमत में अ़र्ज़ किया होगा और ह़ज़रत अ़लैहिस्सलाम से उसकी तस्दीक़ चाही होगी।
लेहाज़ा अ़ल्लामा बयाज़ी आ़मेली रह़्मतुल्लाह अ़लैह अपनी किताब “अस्सेरातुल मुस्तक़ीम” में किताबुल वसीया की रवायत का मा ह़सल पेश करने के बअ़्द तह़रीर फ़रमाते हैं:
स–अ–ज़–ओ़ मुह़स्स–लहा फ़ी हाज़ल बाबे ले–यह्तदे–य बेही उलुल अल्बाबे व ल–उतय्येमुन–न बेज़िक्रेहा व अ–तक़र्रबो इलल्लाहे तआ़ला बे–नश्रेहा फ़–इन–न फ़ीहा शिफ़ाउन लेमा फ़िस्सुदूरे यअ़्तमेदो अ़लैहा मँय्युरीदो तह़्क़ी–क़ तिल्कल उमूर.
मैं इस बाब में रवायात का मा ह़सल पेश कर रहा हूँ ताकि साह़ेबाने अ़क़्ल इससे हेदायत ह़ासिल कर सकें। मैं इन ह़दीसों के ज़िक्र से बरकत ह़ासिल करता हूँ। इनके नश्र के ज़रीए़ ख़ुदावन्द मुतआ़ल की बारगाह में क़ुर्बत और नज़्दीकी ह़ासिल करता हूँ। क्योंकि इन ह़दीसों में सीनों में जो भी दर्द है उसकी शेफ़ा है और जो भी इन उमूर की तह़क़ीक़ का ख़ाहिशमन्द है उसे चाहिए कि इन पर एअ़्तेमाद करे।
(अस्सेरातुल मुस्तक़ीम, जि. २, स. ४०)
शेख़ बयाज़ी, जो नवीं सदी हिजरी के बरजस्ता मुतकल्लिम थे, की येह गवाही मोह़क़्क़ेक़ीन के लिए काफ़ी है ताकि वोह इस बात को समझ लें कौन सा बेश क़ीमत गौहर और कौन सी अ़ज़ीम दौलत उनके हाथों में आई है। दूसरे लफ़्ज़ों में हमारे क़दीम मोह़द्देसीन की अन्थक कोशिश थी कि येह गराँक़द्र दौलत इतनी आसानी से हम तक पहुँची है। हम बारगाहे एज़्दी में दुआ़ करते हैं कि उनकी अरवाह़े मुक़द्देसा अपने मौला के दस्तरख़ान पर उनके उ़लूम से मालामाल हो।
नोट – येह मुख़्तसर लेकिन अहम किताब अब तक सिर्फ़ अ़रबी ज़बान में मौसूल है। हम अह्ले इ़ल्म और साहेबाने क़लम से दरख़ास्त करते हैं कि इसका तर्जुमा उर्दू ज़बान में कर दें ताकि उर्दू और हिन्दी पढ़ने वाले इससे इस्तेफ़ादा कर सकें। और साह़ेबाने सरवत से इल्तेमास है कि वोह इन राहों में फ़राख़ दिली से काम लें ताकि येह किताबें और येह रवायात उनके आख़ेरत का ज़ाद और बाक़ेयातुस्सालेह़ात बने।
परवरदिगारा! हमारे इमामे ज़माना अ़ज्जलल्लाहो तआ़ला फ़रजहुश्शरीफ़ के ज़हूरे पुरनूर में तअ़्जील फ़रमा ताकि हम आपके दहाने मुबारक से इन रवायाते शरीफ़ा को सुनें और उनके उ़लूम–ओ–मआ़रिफ़ से इस्तेफ़ादा कर सकें। आमीन या रब्बल आ़लमीन।
क्या सहाबियत ख़ेलाफ़त के दअ़्वे के लिए काफ़ी है?
जब रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की शहादत के बअ़्द आपके जानशीन को मुन्तख़ब करने का मौक़अ़् आया तो कुछ मुसलमानों ने सह़ाबियत के दर्जे को सबसे अहम दलील क़रार दी। इसके अ़लावा उन्होंने और कोई दलील पेश ही नहीं की। येह बात वाज़ेह़ है कि न इस ज़माने के मुसलमान और न उस ज़माने के मुसलमानों के पास अपने बनाए गए ख़ोलफ़ा की ह़क़्क़ानीयत को साबित करने के लिए इसके अ़लावा या इससे बढ़कर और कोई दलील नहीं है। सह़ाबियत की फ़ज़ीलत की दलील एक खोखली दलील है क्योंकि इसमें कोई ख़ास बात नहीं और अगर इसे ज़ाहिरी तौर पर भी देखा जाए तो इससे ख़ेलाफ़त के मुनासिब दअ़्वेदार का पता नहीं चलता।
क्या रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की सह़ाबियत ख़ेलाफ़त के लिए कोई मेअ़्यार और कसौटी है?
आइये इस मज़्मून में इस बात पर मज़ीद रोशनी डालें। इस गुफ़्तुगू के ज़िम्न में हम मुन्दर्जा ज़ैल नुकात पर ग़ौर करेंगे:
१ – सह़ाबियत की दलील मौक़अ़् परस्ती थी
सह़ाबियत की दलील से किसी को बेवक़ूफ़ नहीं बनाया जा सकता। इसे उस वक़्त इस्तेअ़्माल किया गया जब मुहाजेरीन को येह मह़सूस हुआ कि ख़ेलाफ़त के दअ़्वा में अन्सार के मुक़ाबिल में जिनकी तअ़्दाद सक़ीफ़ा में ज़्यादा थी उनका पल्ला हल्का हो रहा है। यकीनन दोनों गिरोह अस्ह़ाब के थे लेकिन मुहाजेरीन ने अपनी बरतरी का दअ़्वा रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के साथ तेरह साल ज़्यादा सह़ाबियत रखने और आप सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के क़बीलए क़ुरैश से अपना तअ़्ल्लुक़ होने की बुनियाद पर पेश किया। सक़ीफ़ा में जो वाक़ेआ़त पेश आए उनकी मज़ीद वज़ाहत में न जाते हुए आइये इस बात पर ग़ौर करें कि क्या इस दलील की कोई क़द्र–ओ–क़ीमत है? इस दलील के खोखले पन को फ़ाश करने के लिए सिर्फ़ अमीरुल मोअ्मेनीन अ़लैहिस्सलाम का एक जुम्ला ही काफ़ी है जिसमें आपने इर्शाद फ़रमाया:
अगर उम्मत के लिए येह मुम्किन होता कि वोह रसूलुल्लाह की नबूवत को तर्क करके बादशाहत ह़ासिल करे तो वोह यक़ीनन आपकी नबूवत से मुँह मोड़ लेते।
(कश्फ़ुल मोह़ज्जा, स.१२५, बैतुल अह़ज़ान, स. ७४)
२– क़राबतदारी सह़ाबियत से अफ़्ज़ल है
कोई भी अ़क़्लमन्द मुसलमान इस बात को समझ सकता है कि सह़ाबियत का दर्जा ख़ेलाफ़त के शराएत में से एक शर्त हो सकता है न कि उसकी मुत्लक़ा शर्त। सह़ाबियत के साथ जब क़राबतदारी मुत्तसिल हो जाती है तो सह़ाबियत का दर्जा बलन्द हो जाता है। आइये उन चन्द मवाक़ेअ़् की तरफ़ ग़ौर करें जहाँ पर इस दलील को मुसलमानों के सामने पेश किया गया।
अ: अमीरुल मोअ्मेनीन अ़लैहिस्सलाम ने अबू बक्र की तरफ़ नज़र करके येह मिस्रेअ़् कहे:
“फिर अगर तुमने शूरा की बेना पर ख़ेलाफ़त ह़ासिल की है तो येह कैसी शूरा है जिसमें मुशाविर ही नहीं और अगर तुमने उसे रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम से क़ुर्बत की बेना पर ह़ासिल किया है तो ऐसे और लोग भी हैं जो रसूल से क़ुर्बत की बेना पर तुमसे ज़्यादा मुस्तह़क़ हैं।”
आप अ़लैहिस्सलाम ने कई मर्तबा इर्शाद फ़रमाया:
“कितनी अजीब बात है कि सह़ाबियत की बेना पर ख़ेलाफ़त ह़ासिल की जा सकती है लेकिन साह़बियत और क़राबतदारी दोनों की बेना पर नहीं।”
(नहजुल बलाग़ा, ह़.१९०, शर्ह़े नहजुल बलाग़ा, जि.१८, स. ४१६; मुस्तदरकुल वसाएल,, जि.३, स.९४; अल ख़ेसाल, जि.२, स.४६४, १२ ख़स्लतों वाला बाब)
ब: जब मुहाजेरीन और अन्सार में से बारह गराँक़द्र अस्ह़ाब ने अबू बक्र की मुख़ालेफ़त की तो इसी क़राबतदारी की दलील ने उसे सह़ाबियत की कमज़ोर दलील पर तर्जीrह़ दी।
अ़ब्दुल्लाह बिन मस्ऊ़द खड़े हुए और कहा: ऐ क़ुरैश के लोगो! तुम और तुम में से तमाम नेक अफ़राद इस बात को अच्छी तरह़ जानते हैं कि ‘अह्लेबैते रसूल’ रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम से तुम से ज़्यादा करीब हैं। अगर तुम येह दअ़्वा करते हो कि ख़ेलाफ़त का ओ़ह्दा रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम से क़ुर्बत पर मबनी है और अपने लिए इस क़ुर्बत का दअ़्वा करते हो तो अह्लेबैते रसूल तुमसे ज़्यादा क़रीब हैं और तुम पर तर्जीrह़ रखते हैं। इसके अ़लावा अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के बअ़्द साह़ेबे अमे्र ख़ेलाफ़त हैं। तो फिर जिस शै का अल्लाह ने उन्हें अह्ल बनाया है वोह उन्हें दे दो और अपना मुँह मत मोड़ो।
ज: एक ख़ूबसूरत शेअ़्र में ह़स्सान बिन साबित ने अमीरुल मोअ्मेनीन अ़लैहिस्सलाम की तमाम अस्ह़ाब पर फ़ज़ीलत को आप अ़लैहिस्सलाम की रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम से क़राबतदारी की बेना पर साबित किया।
इस बात पर ग़ौर करना ज़रूरी है कि उन अश्आ़र को रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की ह़यात में लिखा गया है येह इस बात की दलील है कि ह़स्सान इस बात से वाक़िफ़ थे कि रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की शहादत के बअ़्द येह बह़्स सामने आएगी। तो फिर येह कैसे मुम्किन है कि ख़ुद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम इस बात से आगाह न हों।
अश्आ़र के अल्फ़ाज़ कुछ इस तरह़ हैं:
तौबा करने वाले की तौबा क़बूल नहीं होगी
अगर अबू तालिब अ़लैहिस्सलाम के फ़र्ज़न्द की मोह़ब्बत न हो
वोह रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के भाई हैं और उनके दामाद भी
और दामाद का मुक़ाबला अस्ह़ाब से क्या हो
और कौन है जो अ़ली अ़लैहिस्सलाम जैसा हो
यक़ीनन सूरज को उन अ़लैहिस्सलाम के लिए मग़रिब से पलटाया गया
सूरज को अपनी ज़ेया के साथ पलटाया गया
ऐसी ज़ेया कि गोया कभी ग़ुरूब ही नहीं हुआ
(बशारतुल मुस्तफ़ा, जि.२,स.१४७–१४८)
जानशीन हमेशा आल में से होता है अस्ह़ाब में से नहीं
तारीख़ इस बात की शाहिद है कि हर नबी ने अपने जानशीन को मोअ़य्यन किया है और वोह जानशीन हमेशा उसकी आल में से रहा है। येह दो शराएत – “नबी का मोअ़य्यन कर्दा वोह आल से होना”, हर नबी के लिए मुसलसल जारी रहे जबकि वोह तमाम अम्बिया रसूल अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम से मर्तबे में कम थे। लेकिन मुसलमानों ने अफ़्ज़ल तरीन पैग़म्बर रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के बारे में येह अ़क़ीदा क़ाएम कर लिया कि आप सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने अपना कोई जानशीन मोअ़य्यन नहीं किया जो आप सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के बअ़्द उम्मत की ह़ेदायत करे।
अमीरुल मोअ्मेनीन अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम इर्शाद फ़रमाते हैं:
हर नबी ने अपनी आल से अपना जानशीन मोअ़य्यन किया सिवाए ह़ज़रत ई़सा अ़लैहिस्सलाम के क्योंकि आप अ़लैहिस्सलाम की कोई आल नहीं थी।
(अल यक़ीन, स.४०६, बेह़ारुल अनवार, जि.२६, स.२६)
सह़ाबियत आ़र्ज़ी है, क़राबतदारी दाएमी
सह़ाबियत कभी भी ख़ेलाफ़त के लिए दाएमी शर्त नहीं हो सकती। ज़्यादा से ज़्यादा येह इब्तेदाई चन्द ख़ोलफ़ा के लिए एक शर्त हो सकती है। अस्ह़ाब की तअ़्दाद ज़्यादा नहीं और एक वक़्त ऐसा आएगा जब अस्ह़ाब ख़त्म हो जाएँगे। सन ६० हि. में ही हमने येह देखा कि यज़ीद मल्ऊ़न जो सह़ाबी नहीं था, तख़्ते ख़ेलाफ़त पर बैठ गया। उसे ख़लीफ़ा क्यों बनाया गया जबकि वोह सह़ाबी नहीं था और उस वक़्त इमाम ह़ुसैन अ़लैहिस्सलाम जो एक सह़ाबी थे उनको ख़लीफ़ा नहीं बनाया गया। इस सवाल का जवाब कोई नहीं देना चाहता।
सलफ़ियों ने इस बात का एअ़्तेराफ़ किया है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के बअ़्द इस्लाम का सबसे सई़द दौर पहले तीन ख़ोलफ़ा के दौर में था। इसका मतलब येह हुआ कि अगर कोई अस्ह़ाब को भी ख़लीफ़ा बना ले तो येह सिर्फ़ पहले तीन ख़ोलफ़ा के लिए होगा। जब येह अस्ह़ाब ख़त्म हो जाएँगे तब मुसलमान क्या करेंगे? क्या वोह मुसलमान जिनको अपने लिए ख़लीफ़ा बनाने की जल्दी थी उन्होंने येह नहीं सोचा कि कुछ बरसों बअ़्द उम्मत का क्या होगा?
लेकिन अगर हम क़राबतदारी को शर्ते ख़ेलाफ़त मान लें तो येह एक दाएमी शर्त होगी और अ़क़्ल भी इस बात को तस्लीम करती है।
अगर हम अह़ादीस का मुतालेआ़ करें तो क़राबतदारी ही रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के जानशीन को मोअ़य्यन करने की शर्त बताई गई है। मुतअ़द्दिद रवायात हैं जिनमें अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम को उम्मत के ख़ोलफ़ा के तौर पर मुतआ़रिफ़ कराया गया है। किताबों में अबवाब भरे पड़े हैं जो इस बात को साबित करते हैं कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के बअ़्द इस्लाम में बारह ख़लीफ़ा होंगे और वोह सभी क़ुरैश से होंगे।
अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम से बेहतर सह़ाबी और कौन है?
हमने येह बात पहले ही साबित कर दी है कि अमीरुल मोअ्मेनीन अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम सह़ाबियत और क़राबतदारी दोनों की बेना पर ख़ेलाफ़त के ज़्यादा ह़क़दार थे। अब कुछ और ज़्यादा साबित करने की ज़रूरत नहीं है। अलबत्ता उन ह़ज़रात से जिनका अ़क़ीदा है कि सह़ाबियत, क़राबत और रिश्तेदारी से अफ़्ज़ल है, कहना चाहेंगे कि अगर सिर्फ़ सह़ाबियत को मेअ़्यार तस्लीम किया जाए फिर भी अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम सरे फ़ेहरिस्त हैं बल्कि वोह तमाम इन्सानों से अफ़्ज़ल हैं और रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के बअ़्द सबसे अफ़्ज़ल है।
(अ) अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम का आ़लमे इन्सानियत में कोई सानी नहीं।
जाबिर बिन अ़ब्दुल्लाह अन्सारी रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम से नक़्ल करते है कि:
अ़ली बनी नौए़ इन्सान में से सबसे अफ़्ज़ल हैं और जो इस बात पर शक करे वोह काफ़िर है।
(तारीख़े बग़दादी, जि.४, स.४२१)
येह ह़दीस दूसरे अल्फ़ाज़ के साथ मुन्दर्जा ज़ैल उ़लमा ने नक़्ल की है:
इब्ने ह़जर अल अ़स्क़लानी, तहज़ीबुत्तहज़ीब, जि.९, स.४१९
अह़मद बिन ह़म्बल, मनाक़िबे अ़ली बिन अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम
कन्ज़ुल ह़क़ाएक़, स.९२
अर्रेयाज़ुन्नज़रह
मसनदे अबू यअ़्ली अल मूसली अल ह़म्बली
मोह़ीयुद्दीन तबरी, ज़ख़ाएरुल उ़क़्बा, स.९६
मज्मउ़ज़्ज़वाएद, जि.९, स.११६
अल मोअ़्जमुल औसत, जि.९, स.२८८
(ब) सिर्फ़ अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम ही नहीं बल्कि उनके शीआ़ भी बेहतरीन मख़्लूक़ हैं।
सूरए बय्येना की आयत ९ में है कि:
और जो लोग ईमान लाए और नेक अअ़्माल अन्जाम देते हैं, बेशक वोह बेहतरीन मख़्लूक़ हैं।
इस आयत की तफ़्सीर में बहुत से उ़लमा ने येह तब्सेरा किया है कि येह आयत अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम और उनके शीओ़ं को मुख़ातब करती है। मसलन:
मोह़म्मद बिन जरीर तबरी की जामेउ़ल बयान फ़ी तावीलिल क़ुरआन (जो तफ़्सीरे तबरी के नाम से मशहूर है)
जलालुद्दीन अ़ब्दुर्रह़्मान इब्ने अबी बक्र अल सुयूती की तफ़्सीर अद्दुर्रुल मन्सूर
इब्ने ह़जर अल मक्की की अस्सवाएक़ुल मोह़्रेक़ा
(ज) अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम सह़ाबा से अफ़्ज़ल हैं।
कुछ मुसलमान अबू बक्र, उ़मर, अबू उबैदा अल जर्राह़, उ़स्मान बिन अ़फ़्फ़ान वग़ैरह की अफ़्ज़लीयत के दअ़्वेदार हैं। मगर सच्चाई येह है कि अफ़्ज़लीयत अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम और उनके ग्यारह फ़र्ज़न्दों के अ़लावा किसी के लिए भी साबित नहीं है।
इस मौज़ूअ़् पर कुछ अह़ादीस पेशे ख़िदमत हैं:
१– उ़मर बिन ख़त्ताब नक़्ल करते है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने फ़रमाया हैं कि अ़ली अ़लैहिस्सलाम के जैसे किसी के फ़ज़ाएल नहीं हैं। वोह अपने अस्ह़ाब को हेदायत की तरफ़ बुलाते हैं और गुमराही से दूर करते हैं।
(अर्रेेयाज़ुन्नज़रह फ़ी मनाक़िबुल अ़श्रह, जि.१, स.२७७; अल मोअ़्जमुस्सग़ीर, जि.१, स.२४२)
२– इमाम अह़मद इब्ने ह़म्बल कहते हैं: किसी भी सह़ाबी के इतने फ़ज़ाएल दर्ज नहीं हैं जितने अ़ली बिन अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम के दर्ज हैं।
(अल मुस्तद्रक अ़लस्सह़ीह़ैन, जि.३, स.१०७)
३– इमाम अह़मद इब्ने ह़म्बल और इस्माई़ल बिन इस्ह़ाक़ अल–क़ाज़ी नक़्ल करते है कि: अस्ह़ाब में से किसी के भी फ़ज़ाएल अह़सन सनद के साथ नक़्ल नहीं हुए जैसे अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम के हैं। इसी तरह़ अह़मद इब्ने शोऐ़ब इब्ने अ़ली अन्नेसाई (सेह़ाहे सित्ता की एक सुनन के मुसन्निफ़) ने भी इस ह़क़ीक़त का एअ़्तेराफ़ किया।
(अल इस्तेआ़ब, जि.२, स.४६६)
इसी तरह़ दूसरे उ़लमा ने अपनी किताब में इस ह़क़ीक़त को नक़्ल किया है, मसलन:
इब्ने ह़जर अल मक्की ने अस्सवाएक़ुल मोह़्रेक़ा, स.७२ (येह किताब शीओ़ं की मज़म्मत में लिखी गई थी)
इब्ने ह़जर अल–अ़स्क़लानी ने फ़त्ह़ुल बारी फ़ी शर्ह़े सह़ीह़ अल–बुख़ारी, जि.८, स.७१
शबलन्जी ने नूरुल अब्सार, स.७३
४– इब्ने अ़ब्बास नक़्ल करते हैं: क़ुरआन मजीद की ३०० आयतें अ़ली अ़लैहिस्सलाम की शान में नाज़िल हुई हैं।
(तारीख़े बग़दादी, जि.२, स.२२१)
अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम का मुवाज़ेना बक़िया सह़ाबा से कैसे किया जा सकता है जबकि ज़ैद इब्ने ह़ारिस (रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के मुँह बोला बेटा) भी मज़्कूरा बाला अस्ह़ाब से बेहतर थे। एक मशहूर ह़दीस में उ़मर बिन ख़त्ताब कहते हैं: रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ज़ैद बिन ह़ारिस को मुझसे ज़्यादा चाहते थे।
जंगे ओह़द और जंगे ह़ुनैन में रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम को अकेला छोड़कर भागने वाले (जिनका ज़िक्र क़ुरआन मजीद में मौजूद है) के बअ़्द, किसी शख़्स को सह़ाबियत का दअ़्वा करने के लिए बेशर्म होने की ज़रूरत है। यअ़्नी उसके मुसलमान होने की बह़स की जाएगी चे जाएकि ख़लीफ़ा।
गरचे हम सह़ाबियत को ख़ेलाफ़त और एलाही नेअ़्मात का मेअ़्यार नहीं जानते, लेकिन अगर सह़ाबियत ही मेअ़्यार होती तो फिर भी अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम का मुक़ाबला कोई नहीं कर सकता। इसके अ़लावा रिश्तेदारी के साथ सह़ाबियत बिला शुब्हा सह़ाबियत से अफ़्ज़ल है। चाहे कोई किसी भी तरह़ जाएज़ा ले या किसी भी फ़ज़ीलत को मेअ़्यार मुक़र्रर करे, अमीरुल मोअ्मेनीन अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम ही को ह़क़ीक़ी एलाही ख़लीफ़ा पाएगा।
अफ़्सानए अ़ब्दुल्लाह इब्ने सबा
मुख़ालेफ़ीने शीआ़ के इल्ज़ामात में शीओ़ं को काफ़िर और इस्लाम से ख़ारिज क़रार देने में येह भी एक इल्ज़ाम है कि तारीख़े इस्लाम में येह अ़क़ीदा फैलाने वाला अ़ब्दुल्लाह इब्ने सबा था। अ़ब्दुल्लाह इब्ने सबा कौन है? तारीख़े इस्लाम में उसकी क्या हैसीयत है? उसके नज़रियात क्या हैं? उसके बारे में सुन्नी और शीआ़ मज़हब के मशहूर मुवर्रेख़ीन और उ़लमाए केराम के नज़रियात क्या हैं? क्या वाक़ई़ शीआ़ उसकी इत्तेबाअ़् और एह़्तेराम करते हैं?
इस मुख़्तसर से मज़्मून में हम इनके जवाबात देने की कोशिश करेंगे। माज़ी में कई मक़ाले, मज़ामीन और किताबें इस पर लिखी गई हैं। इन तमाम किताबों का इस मज़्मून में ज़िक्र करना मुम्किन नहीं है। लेहाज़ा हम सिर्फ़ अ़ल्लामा सैयद मुर्तज़ा अस्करी रह़्मतुल्लाह अ़लैह की किताब “अ़ब्दुल्लाह इब्ने सबा और दीगर ख़ुराफ़ात” से कुछ ह़वालाजात का यहाँ ज़िक्र करेंगे। इस किताब का अंग्रेज़ी तर्जुमा एम.जे.मुक़द्दस साह़ब ने किया है और “वोफ़िस” ने शाएअ़् किया है।
इस किताब में
सदियों से मुसलमानों ने अपनी तारीख़ी किताबों के साथ इंजील का सा सुलूक किया है। १९५५ ई. में अ़ल्लामा सैयद मुर्तज़ा अस्करी रह़्मतुल्लाह अ़लैह ने अपनी किताब “अ़ब्दुल्लाह इब्ने सबा और दीगर ख़ुराफ़ात” में वाज़ेह़ किया कि मुसलमानों की तारीख़ी किताबों में शीओ़ं के ख़ेलाफ़ बहुत सी ग़लत और ख़ुदसाख़्ता मअ़्लूमात और अफ़्साने हैं और येह कि शीओ़ं पर अ़ब्दुल्लाह इब्ने सबा का पैरवकार होने का इल्ज़ाम बेबुनियाद है। मुसन्निफ़ ने मुनज़्ज़म तरीक़े से तारीख़ी किताबों में इससे मुतअ़ल्लिक़ वाक़ेआ़त का तज्ज़िया करके येह साबित किया है कि अ़ब्दुल्लाह इब्ने सबा, सैफ़ इब्ने उ़मर का ईजादकर्दा एक फ़र्ज़ी किरदार है जिसे उसने मस्लके शीआ़ का बानी बना कर पेश किया है।
मुसन्निफ़ ने इस किताब की इब्तेदा उन दोनों यअ़्नी अफ़्सानए सबाइया (अ़ब्दुल्लाह इब्ने सबा के पैरवकार) और उसके मूजिद सैफ़ बिन उ़मर की वज़ाह़त से की है। सैफ़ बिन उ़मर दूसरी सदी हिजरी में एक क़िस्सागो शख़्स था और उसने अ़मदन इस्लाम की ग़ैर मन्तिक़ी तारीख़ लिखी। इसके अ़लावा मुसन्निफ़ ने उन रवायतों और मोह़क़्क़ेक़ीन पर रोशनी डाली है जिन्होंने अपनी नज़रियाती और तारीख़ी तह़क़ीक़ात में उस पर एअ़्तेमाद किया है और इस्लाम के बुज़ुर्ग उ़लमा के नज़रियात पेश किए हैं कि सैफ़ बिन उ़मर नाक़ाबिले एअ़्तेमाद और ग़ैर मुस्तनद है।
सैफ़ बिन उ़मर कौन था?
सैफ़ बिन उ़मर अल–तमीमी दूसरी सदी हिजरी में था (आठवीं सदी ई़सवी) और उसका इन्तेक़ाल १७० हि. (७५० ई.) में हुआ। उसने दो किताबें तस्नीफ़ कीं:
“अल–फ़ुतूह़ुल कबीर वर्रद्दा” – येह तारीख़ी किताब क़ब्ले शहादते रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम से उ़स्मान बिन अ़फ़्फ़ान के ख़लीफ़ा बनने के दौरान की है।
“अल–जमल व मसीरे आ़एशा व अ़ली” – येह उ़स्मान के क़त्ल और जंगे जमल के दौर के बारे में है।
येह दोनों किताबें ह़क़ीक़त से ज़्यादा अफ़्साना, कुछ मनघड़त वाक़ेआ़त के साथ साथ कुछ सच्चे वाक़ेआ़त जो अ़मदन तज़्ह़ीक के लिए हैं, पर मुश्तमिल हैं। चूँकि सैफ़ ने अस्हाबे रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम का ज़िक्र किया है और कुछ को जअ़्ल किया है लेहाज़ा उसकी बयान कर्दा कहानियों ने तारीख़े सद्रे इस्लाम को काफ़ी मुतासर किया है।
सैफ़ की ज़िन्दगी पर तह़क़ीक़ करने से पता चलता है कि सैफ़ एक माद्दा परस्त और ग़ैर मोअ़्तबर क़िस्सागो था। उसके क़िस्से मश्कूक और कुल्ली या जुज़्ई तौर पर जअ़्ल कर्दा हैं। ज़ैल में उसकी कुछ जअ़्ली रवायात पेशे ख़िदमत हैं:
१ – लश्करे ओसामा
रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने शाम के लिए एक लश्कर तश्कील दिया, उस लश्कर का सिपह सालार ओसामा था। फ़ौज की आख़िरी सफ़ के मदीने की ह़द से बाहर जाने से पहले रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम का इन्तेक़ाल हो गया। ओसामा ने ख़लीफ़ए रसूल अबू बक्र की मन्ज़ूरी ह़ासिल करने के लिए उ़मर को वापस किया। उ़मर अन्सार में से बअ़्ज़ के ख़ुतूत भी साथ लाया जिसमें ओसामा की फ़ौज की सिपह सालारी की मअ़्ज़ूली की तज्वीज़ थी। जब अबू बक्र ने येह सुना तो उसने छलांग मार कर उ़मर की डाढ़ी पकड़ी और उसकी तौहीन करते हुए कहा: “रसूले ख़ुदा ने ओसामा को सिपह सालार मुक़र्रर किया है, मैं उसे तब्दील नहीं करूँगा।” उसने फ़ौरन फ़ौज को रवाना होने का ह़ुक्म येह कहते हुए दिया कि: “खुदा तुम्हें क़त्ल–ओ–ताऊ़न से नाबूद होने से बचाए।” दूसरे तारीख़दानों ने इस वाक़ेआ़ को मुख़्तलिफ़ तरीक़े से लिखा है।
२ – सक़ीफ़ा बनी साए़दा
जिस रोज़ रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम का इन्तेक़ाल हुआ, तमाम मुहाजेरीन ने अबू बक्र की ख़लीफ़ए रसूल बनने में ह़ेमायत की, सिवाए उन लोगों के जिन्होनें इस्लाम से मुँह मोड़ लिया था। अबू बक्र के इन्तेख़ाब की ख़बर सुन कर इमाम अ़ली अ़लैहिस्सलाम बहुत ज़्यादा ख़ुश हुए और सिर्फ़ क़मीस पहन कर आ गए (नऊ़ज़ो बिल्लाह)। उन्होंने अबू बक्र से दोस्ताना अन्दाज़ से हाथ मिलाया और फिर जब उनका लेबास लाया गया तो उन्होनें उसे ज़ेबे तन किया और अबू बक्र के पास बैठ गए।
सैफ़ ने सक़ीफ़ा के मुतअ़ल्लिक़ सात क़िस्से कहे हैं। इन क़िस्सों में अस्ह़ाबे रसूल में से तीन हीरो हैं। येह तीनों नाम सैफ़ के क़िस्से के अ़लावा कहीं और मौजूद नहीं हैं। येह ख़ुसूसियत सोचने पर मजबूर करती है और क़िस्से की सच्चाई को मुश्तबा बनाती हैं। जब अह्ले सुन्नत की मोअ़्तबर किताबों का जाएज़ा लिया जाए तो सैफ़ का क़िस्सा बयान करने में सच्चाई से मुन्ह़रिफ़ होना साफ़ ज़ाहिर होता है।
अ़ब्दुल्लाह इब्ने सबा कौन था?
अ़ब्दुल्लाह इब्ने सबा से मुतअ़ल्लिक़ मुख़्तलिफ़ नज़रियात हैं, मुवर्रेख़ीन के नज़्दीक मश्हूर तरीन नज़रिया येह है कि अ़ब्दुल्लाह इब्ने सबा सैफ़ बिन उ़मर का ईजाद किया हुआ एक ख़याली शख़्स है। जिन मुवर्रेख़ीन ने तबरी को नक़्ल किया है उनके मुताबिक़ अ़ब्दुल्लाह इब्ने सबा एक यहूदी था जो यमन के शहर सनआ़ से तअ़ल्लुक़ रखता था जिसने उ़स्मान बिन अ़फ़्फ़ान के ज़माने में बज़ाहिर इस्लाम क़बूल किया था और इस्लाम और मुसलमानों के ख़ेलाफ़ साज़िश की। उसने कूफ़ा, बसरा, दमिश्क़ और मिस्र जैसे बड़े शहरों का सफ़र किया और अपने अ़क़ीदे की तब्लीग़ की जिसमें उसने ह़ज़रत ई़सा अ़लैहिस्सलाम की रजअ़त की तरह़ रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की रजअ़त के अ़क़ीदे को पेश किया।
उसने अ़क़ीदए वेसायत की तब्लीग़ की और उसका येह दअ़्वा था कि ह़ज़रत अ़ली अ़लैहिस्सलाम रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के ह़क़ीक़ी जानशीन थे और उ़स्मान बिन अ़फ़्फ़ान पर ख़ेलाफ़त ग़स्ब करने का इल्ज़ाम लगाया। उसने लोगों को उ़स्मान के क़त्ल के लिए उकसाया जिसे बअ़्द में क़त्ल कर दिया गया। मुवर्रेख़ीन ने येह भी लिखा है कि उसने सह़ीह़ इस्लाम की तब्लीग़ के नाम पर अपने मुबल्लिग़ मुख़्तलिफ़ शहरों में भेजे। जिस में उसने अम्र–बिल–मअ़्रूफ़ और नही–अ़निल–मुन्कर पर ज़ोर दिया और लोगों को उकसाया कि वोह अपने ह़ाकिम के ख़ेलाफ़ बग़ावत करें ह़त्ता कि उन्हें क़त्ल कर दें। जिन अस्ह़ाब को अ़ब्दुल्लाह इब्ने सबा का पैरवकार बताया गया है उन में अबू ज़र ग़फ़ारी और मालिक अश्तर जैसे गराँक़द्र अस्ह़ाब के भी नाम हैं।
तारीख़ी मनाबेअ़्
अ़ब्दुल्लाह इब्ने सबा की कहानी बारह सौ (१२००) बरस पुरानी है और मुवर्रेख़ीन–ओ–मुसन्नेफ़ीन ने एक के बअ़्द दीगर उसको नक़्ल किया और उसमें एज़ाफ़ा किया। इस क़िस्से के रावियों के सिलसिले पर एक नज़र से हमें येह पता चलता है कि इसमें सैफ़ मौजूद है। इन तारीख़दानों ने बराहे रास्त सैफ़ से येह रवायत नक़्ल की है:
१ – अबू जअ़्फ़र मोह़म्मद बिन जरीर अल–तबरी (वफ़ात ३१० हि.) ने अपनी किताब “तारीख़ुल उमम वल मुलूक” में ख़ुसूसी तौर पर सैफ़ से नक़्ल किया है। तबरी अपने क़िस्से को दो लोगों के ज़रीए़ सैफ़ से नक़्ल करते हैं।
(अ) उ़बैदुल्लाह बिन सअ़्द ज़ोहरी ने अपने चचा यअ़्क़ूब बिन इब्राहीम से और उन्होंने सैफ़ से।
(ब) सरी बिन यह़्या ने शोऐ़ब बिन इब्राहीम से और उन्होंने सैफ़ से।
२ – इब्ने अ़साकीर (वफ़ात ५७१ हि.) ने अपनी किताब “तारीख़े दमिश्क़” में इस वाक़ेए़ को अबुल क़ासिम समरक़न्दी से, उन्होंने अबू ह़ुसैन नुक़ूर से, उन्होंने अबू ताहिर मुख़ल्लिस से, उन्होंने अबू बक्र बिन सैफ़ से, उन्होंने सरी से, उन्होंने शोऐ़ब बिन इब्राहीम से, उन्होंने सैफ़ से। लेहाज़ा, यहाँ पर भी सैफ़ ही इसका अस्ली ज़रीआ़ है, जिसके तसलसुल से तबरी ने नक़्ल किया है।
३ – इब्ने असीर (वफ़ात ६३० हि.) ने अपनी किताब “अल–कामिल” में तबरी के ज़रीए़ नक़्ल किया है।
४ – इब्ने अबी बक्र (वफ़ात ७४१ हि.) की “अत्तम्हीद” नामी एक किताब है, जिससे कुछ क़लमदानों ने नक़्ल किया है। येह किताब उ़स्मान के क़त्ल के बारे में है और इसके दीबाचे में “अल–फ़ुतूह़” किताब का ज़िक्र है जो सैफ़ की है, और इसी तरह़ इब्ने असीर का भी नाम मर्क़ूम है। इब्ने असीर ने तबरी से और तबरी ने सैफ़ से नक़्ल किया है।
५ – ज़हबी (वफ़ात ७४८ हि.) ने अपनी किताब “तारीख़ुल इस्लाम” में जि.२, स. १२२–१२८ पर इस कहानी को सैफ़ की किताब “अल–फ़ुतूह़” से नक़्ल किया है। तबरी भी इसका एक ज़रीआ़ है।
६ – इब्ने कसीर (वफ़ात ७७४ हि.) ने अपनी किताब “अल–बदाया वन्नेहाया” की जि.७ में तबरी से नक़्ल किया है।
इसके अ़लावा बहुत से तारीख़दानों ने इसको बिल वास्ता नक़्ल किया है मगर ज़्यादातर ने तबरी से बराहे रास्त नक़्ल किया है। येह इस ह़क़ीक़त का बय्यिन सबूत है कि अ़ब्दुल्लाह इब्ने सबा का मूजिद सैफ़ बिन उ़मर है जिसकी किताब से तबरी ने नक़्ल करने का दअ़्वा किया है। ज़्यादा तफ़्सीलात के लिए तारीख़े तबरी में अ़ब्दुल्लाह इब्ने सबा से मुतअ़ल्लिक़ रवायतों के रावियों के सिलसिले का जाएज़ा लिया जा सकता है। मिसाल के तौर पर अंग्रेज़ी तर्जुमे की पंद्रहवीं जिल्द में सैफ़ बिन उ़मर या अ़ब्दुल्लाह इब्ने सबा के ज़ैल में मुलाह़ेज़ा करें।
किताब का ख़ुलासा
इस किताब के ख़ुलासे में मुसन्निफ़ कहते हैं कि किस तरह़ सैफ़ बिन उ़मर के जअ़्ली क़िस्सों ने इस्लामी तारीख़ में जगह पाई। फिर लिखते हैं कि मैं ने इस अफ़्साने और जअ़्ली शख़्सीयत का पता लगाया जो तारीख़े इस्लाम की किताबों में मौजूद है ख़ुसूसन जो मुस्तश्रेक़ीन की किताबों का अहम ज़रीआ़ है। दक़ीक़ मुतालेआ़ के बअ़्द मैं मुत्मइन हुआ कि उनमें कुछ ख़ास मक़ासिद के लिए घड़े गए हैं। इन अफ़्सानों और जअ़्ली शख़्सीयात का मम्बअ़् सैफ़ बिन उ़मर है, जो मुस्तनद रावियों से मन्क़ूल नहीं हैं, न सिर्फ़ अपने मत्न के लेहाज़ से बल्कि अपने सिलसिलए सनद में फ़र्ज़ी रावियों की मौजूदगी से भी जअ़्ली हैं। सैफ़ ने येह जअ़्ल साज़ी उन लोगों की रज़ामन्दी ह़ासिल करने के लिए जो ह़क़ाएक़ पर पर्दा डालने और तारीख़ को उसकी ह़क़ीक़त के बर अ़क्स पेश करना चाहते थे। इसके अ़लावा, सद्रुल इस्लाम के बादशाह, ह़ाकिम, सिपह सालार और बा असर अफ़्राद भी इसमें मुलव्विस थे, जो कुछ उनके लिए नामुनासिब था, सैफ़ के अफ़्सानों ने उन उ़यूब पर बहानों के ज़रीए़ पर्दा डाल दिया और उसके ज़रीए़ उनको तन्क़ीद के ह़मलों से बचा लिया।
मुफ़स्सल तौर पर सैफ़ बिन उ़मर के अफ़्सानों को कश्फ़ करने के लिए क़ारेईन इस किताब का जाएज़ा ले सकते हैं।
अ़ब्दुल्लाह इब्ने सबा शीआ़ तारीख़ में
कामियाब तज्ज़िया और सैफ़ बिन उ़मर की झूठी रवायतों की तर्दीद के बअ़्द, आएँ मुख़्तसर तौर पर देखें कि शीआ़ मज़हब में अ़ब्दुल्लाह इब्ने सबा के बारे में रवायतें क्या कहती हैं। येह रवायतें ज़्यादातर अल–कश्शी की किताब अर्रेजाल से नक़्ल की गई हैं। मगर यहाँ भी मुसन्निफ़ ने उन रवायतों का ज़िक्र किया है जो अ़ब्दुल्लाह इब्ने सबा की मज़म्मत करती हैं। इब्ने शोअ़्बा अल–ह़र्रानी की किताब “तोह़फ़ुल उ़क़ूल” के स. ११८ के ह़ाशिए में ज़िक्र किया गया है कि अ़ब्दुल्लाह इब्ने सबा मुर्तद हो गया था और मुबालग़ा (ग़ुलुव) किया। इसी ह़ाशिए में मज़ीद ह़ज़रत इमाम मोह़म्मद बाक़िर अ़लैहिस्सलाम से नक़्ल किया गया है कि “अ़ब्दुल्लाह इब्ने सबा नबूवत का (झूठा) दअ़्वेदार था और उसका ख़याल था कि अमीरुल मोअ्मेनीन अ़लैहिस्सलाम अल्लाह हैं (तआ़लल्लाहो अ़म्मा युश्रेकून)।” येह ख़बर अमीरुल मोअ्मेनीन अ़लैहिस्सलाम तक पहुँची। आपने उसे तलब किया और दरियाफ़्त किया। मगर वोह अपने उस दअ़्वे पर साबित रहते हुए कहने लगा कि आप वोह (अल्लाह) हैं और मुझ पर वह़ी नाज़िल हुई है कि आप अल्लाह हैं और मैं नबी हूँ। अमीरुल मोअ्मेनीन अ़लैहिस्सलाम ने फ़रमाया:
वाए हो तुझ पर! शैतान ने तेरा मज़ाक़ बना दिया है। तूने जो कहा उससे तौबा कर। तेरी माँ तेरे ग़म मे मातम करे! तौबा कर (अपने दअ़्वे से)।
मगर उसने इन्कार किया, तो आप अ़लैहिस्सलाम ने उसे क़ैद कर दिया और तीन दिन तक उसे तौबा करने की मोह्लत दी। मगर जब उसने तौबा न किया तो उसे ज़िन्दा जला दिया गया।
शेख़ सदूक़ रह़्मतुल्लाह अ़लैह ने अपनी किताब ख़ेसाल की जि.२, स.६२९ पर अमीरुल मोअ्मेनीन अ़लैहिस्सलाम के अह़्कामात अपने अस्ह़ाब के लिए को नक़्ल करते हुए, उसके ह़ाशिए में बयान करते हैं कि “अ़ब्दुल्लाह इब्ने सबा के बारे में कहते हैं कि अल–कश्शी ने उसकी मज़म्मत में रवायतें नक़्ल की हैं और उनके मुआ़सिर ने उसके वुजूद का सरीह़न येह कहते हुए इन्कार किया है कि वोह एक फ़र्ज़ी शख़्स था जो सैफ़ बिन उ़मर की ईजाद थी।”
आख़िर में इन पेशकर्दा ह़क़ाएक़ के बअ़्द हम कह सकते हैं कि तारीख़दानों के ज़रीए़ अ़ब्दुल्लाह इब्ने सबा को शीअ़त का बानी क़रार देने की बज़ाहिर येह बुनियादी वजह सामने आती है कि शीआ़ सिवाए रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के इब्ने अ़म्म और दामाद अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम के किसी को आप सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम का ह़क़ीक़ी जानशीन नहीं मानते और उन्होंने उ़स्मान को ख़लीफ़ा मानने से इन्कार कर दिया था। शीओ़ं का येह अ़क़ीदा उनका ख़ुद साख़्ता नहीं है बल्कि येह अ़क़ीदा क़ुरआन और मोअ़्तबर अह़ादीस से जिनको मुत्तफ़ेक़ा तौर पर तमाम मुसलमान तस्लीम करते हैं साबित है, ख़ास कर दसवीं हिजरी में अपने आख़िरी ह़ज से वापसी के मौक़ेअ़् पर ग़दीरे ख़ुम में ह़ज़रत रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम को मौला–ओ–जानशीन मुक़र्रर करने की बुनियाद पर अह्ले तशैयोअ़् को किसी जअ़्ली रवायत पर भरोसा करने की ज़रूरत नहीं है।
वाक़ई़ अफ़्सोस का मक़ाम है! किस तरह़ तारीख़दानों ने ऐसे जअ़्ली दस्तावेज़ नक़्ल करते वक़्त अपनी आँख़ों पर पट्टी बाँध रखी थी और उसमें रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम और अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम को भी शामिल कर लिया। तारीख़दानों का येह फ़रीज़ा है कि वोह तारीख़ को उस तरह़ नक़्ल करें जिस तरह़ वोह वाक़ेअ़् हुई है। तारीख़ नक़्ल करने में किसी ख़ास अ़क़ीदे या किसी ख़ास मक़सद का तास्सुर न हो। ऐसा लगता है कि अ़ब्दुल्लाह इब्ने सबा को बानिए मज़हबे शीआ़ क़रार देते हुए कुछ बुनियादी उसूल को नज़र अन्दाज़ किया गया। बदक़िस्मती से मुसलमानों ने उस अ़र्से में शीओ़ं पर ह़मले करने के लिए आसान तरीक़ों को ईजाद किया है और अ़ब्दुल्लाह इब्ने सबा उनमें से एक है। इस मज़्मून के ज़रीए़, हम ने इस जअ़्ली दअ़्वे को रद किया है। तल्ख़ ह़क़ाएक़ और सच्चाई कश्फ़ करने के लिए कोई भी तारीख़ का मुतालेआ़ कर सकता है मगर बग़ैर तअ़स्सुब के।
आख़िर में हम ख़ुदावन्द आ़लम से दुआ़ करते हैं कि वोह हमारे मौला, ह़ज़रत वलीये अ़स्र, अमीरुल मोअ्मेनीन अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम की वेलायत के ह़क़ीक़ी वारिस के ज़हूर में तअ़्जील फ़रमाए ताकि हर कोई येह जान ले कि:
मन अस्ह़ाबुस्सेरातिस्सवीये व मनेह्तदा
“सीधी राह वाले कौन हैं और कौन हेदायत याफ़्ता हैं!”
(सूरए ताहा (२०), आयत १३५)