अमीरुल मोअ्मेनीन अ़लैहिस्सलाम ने अपने फ़र्ज़ंदों के नाम ख़ुलफ़ा के नाम पर क्यूं रखा?
कुछ लोग येह समझाने की कोशिशें करते हैं कि अमीरुल मोअ्मेनीन ह़ज़रत अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम सह़ाबा से राज़ी थे बिल्ख़ुसूस शेख़ैन से और उनकी ख़ेलाफ़त को बिला किसी झिझक के क़बूल किया और उन पर किसी क़िस्म का जब्र-ओ-दबाव नहीं था। दलील के तौर पर वोह बेजा जवाज़ पेश करते हैं। मसलन अ़ली अ़लैहिस्सलाम का अपने फ़र्ज़ंदों का नाम
ख़ुलफ़ा के नाम पर रखना उनसे मोह़ब्बत-ओ-उल्फ़त पर दलालत करता है।
जवाब
ह़ज़रत अ़ली अ़लैहिस्सलाम के चंद बेटों का नाम इत्तेफ़ाक़न ख़ुलफ़ा के नाम से मुशाबेह था। मगर तारीख़ के बहुत ही मुतअ़स्सिब और बे ख़बर तुल्लाब ही उसे ह़ज़रत अ़ली अ़लैहिस्सलाम की शेख़ैन की तरफ़ मोह़ब्बत-ओ-झुकाव का नाम दे सकते हैं।
हमारा इन लोगों से पहला सवाल येह है कि क्या तारीख़े इस्लाम में किसी बच्चे का नाम ख़लीफ़ा के नाम पर रखना येह पहला वाक़ेआ़ है? मसलन उ़मर बिन ख़त्ताब पहले शख़्स थे जिन का नाम उ़मर था? अगर नहीं तो आख़िर किस बात ने इन सलमानों को येह सोचने पर मजबूर किया कि ह़ज़रत अ़ली अ़लैहिस्सलाम ने अपने फ़र्ज़ंदों का नाम उ़मर के नाम पर रखा? तारीख़ के मुतालए़ से येह बिल्कुल वाज़ेह है कि येह नाम अ़रब की तहज़ीब-ओ-तमद्दुन में बहुत ही मुश्तरक समझा जाता था। अगर कोई अपने बच्चों का नाम इन नामों में से रखता तो उसकी वजह येह थी कि येह नाम उनकी तहज़ीब में आसानी से क़बूल किये जाते थे। येह एक मुग़ालता होगा कि अगर येह समझा जाए कि फ़लां का नाम फ़लां के नाम पर है।
लेकिन जब मुसलमान और शीआ़ दूसरी जगहों और तहज़ीब में रफ़्ता रफ़्ता फैलने लगे और जब यहां के शीअ़याने अमीरुल मोअ्मेनीन अ़लैहिस्सलाम ने उन ख़ुलफ़ा के नामों को बमुक़ाबिल ह़ज़रत अ़ली अ़लैहिस्सलाम पाया और उन्हें ग़ासेबीने ह़ुक़ूक़े अमीरुल मोअ्मेनीन अ़लैहिस्सलाम जाना तो शीआ़ मआ़शरे में उन ख़ुलफ़ा का नाम क़बूल करना तहज़ीब के ख़ेलाफ़ समझा जाने लगा उन लोगों के लिए येह नाम अ़रब तहज़ीब की नुमाइन्दगी नहीं करते थे बल्कि मन्फ़ी असर रखते थे।
दीगर अइम्मा अ़लैहिमुस्सलाम ने भी अपनी बेटियों का नाम बअ़्ज़ औ़रतों के नाम पर रखा है तो क्या उसका मतलब अइम्मा उनसे राज़ी और ख़ुश थे जब कि इन्तेहाई तअ़स्सुबी और ज़ई़फ़ तरीन तारीख़ भी येह कहती है कि वोह छ: दिन तक ह़ज़रत अ़ली अ़लैहिस्सलाम से जंग करती रही जिस की वजह से हज़ारों मुसलमान इस्लाम की पहली ख़ाना जंगी ‘‘जमल’’ में जाँ बह़क़ हुए।
ज़ाहिर है उसका जवाब ज़माने के लेहाज़ से है। अइम्मए मअ़्सूमीन अ़लैहिमुस्सलाम हर उस काम से इज्तेनाब करते थे जिस से वोह और उनके शीआ़ आश्कार हो जाएं और बनी अ़ब्बास और बनी उमय्या के जाबिर ह़ुक्मरानों के ज़ुल्म-ओ-सितम का निशाना बनें।
यही वजह है हम बहुत से अस्ह़ाब और उनके अज्दाद (वालिद) के नाम इस तरह़ पाते हैं जैसे उ़मर (मुफ़ज़्ज़ल इब्ने उ़मर)। ज़ेयाद (कुमैल इब्ने ज़ेयाद), मुआ़विया (मुआ़विया इब्ने वहब)।
शीआ़ अपने बच्चों के नाम रखने में अपने अइम्मा अ़लैहिमुस्सलाम की इत्तेबाअ़् क्यूं नहीं करते?
मुसलमान शीओ़ं पर तअ़्ना कसते हैं कि ये लोग अपने बच्चों का नाम रखने में अपने अइम्मा की सुन्नत (रविश) को नज़र अन्दाज़ करते हैं। उन लोगों का येह तक़ाज़ा है कि शीओ़ं को भी अपने बच्चों के नाम ख़ुलफ़ा के नामों पर रखना चाहिए?
इस सवाल के कई जवाब हैं।
१. जैसा कि बयान किया जा चुका है कि अइम्मा अ़लैहिमुस्सलाम येह नाम अस्ह़ाब-ओ-अज़्वाज की मोह़ब्बत में नहीं रखते थे बल्कि ख़लीफ़ए वक़्त के ज़ुल्म-ओ-तशद्दुद से बचने के लिए रखते थे। चूँकि आज शीओ़ं पर हुक्मरानों और ख़ुलफ़ा की जानिब से वैसा ज़ुल्म-ओ-तशद्दुद नहीं हो रहा है जैसा उस ज़माने में हुआ करता था लेहाज़ा वोह अपने बच्चों का नाम ख़ुलफ़ा और अस्ह़ाब के नामों पर नहीं रखते बल्कि येह एक अच्छा अ़मल है जैसा कि अइम्मा मअ़सूमीन अ़लैहिमुस्सलाम ने ह़ुक्म दिया है कि अपनी जान की ह़ेफ़ाज़त करना ज़रूरी है जब तक कि जेहाद का एअ़्लान न किया जाए।
२. शीआ़ इस बात को तरजीह़ देते हैं कि अपने बच्चों के नाम मअ़्सूमीन अ़लैहिमुस्सलाम के अस्माए गेरामी पर रखे जाएं न कि मअ़्सूमीन अ़लैहिमुस्सलाम के बच्चों के नाम पर मगर येह कि वोह ख़ुद मअ़्सूम अ़लैहिस्सलाम हों। और अ़क़्ल का येह तक़ाज़ा है कि हम मअ़्सूमीन अ़लैहिमुस्सलाम की इत्तेबाअ़् करें गरचे वोह नाम रखने में ही क्यूं न हो।
३. अह्ले तशय्योअ़् का येह अ़क़ीदा है (जिस की ताईद आ़म उ़लमा भी करते हैं) कि मअ़्सूमीन अ़लैहिमुस्सलाम के नाम ख़ुद ख़ुदा ने रखा। ह़दीसे लौह़ जिसे सुन्नी उ़लमा मसलन ह़मवीनी ने फ़राएदुस् समतैन (बाब २ स¤ १३७-१३९) पर लिखा है।
अल्लाह ने ख़ुद अइम्मा मअ़्सूमीन के नाम और अल्क़ाब का इन्तेख़ाब किया जैसे अगर अल्लाह जअ़्फ़र नाम मुन्तख़ब करता है तो येह तारीख़ में गुज़रे हुए किसी जअ़्फ़र की बेना पर नहीं जब तक कि वोह ख़ुद उसकी तरफ़ निशानदेही न करे उसी तरह़ जब ह़ज़रत अ़ली इब्ने अबी तालिब, उ़मर या अबूबक्र नाम मुन्तख़ब करते हैं तो येह तारीख़ में किसी गुज़री हुई शख़्सियत से मरऊ़ब होकर नहीं होता जब तक कि ख़ुद ह़ज़रत अ़ली अ़लैहिस्सलाम उसके बारे में बयान न करें जैसा कि आप अ़लैहिस्सलाम ने उ़स्मान बिन मज़ऊ़न के बारे में फ़रमाया।
४. बिला वजह इस बात में उलझने के कि ‘‘शीआ़ अपने बच्चों का नाम रखने में अपने अइम्मा की इत्तेबाअ़् क्यूं नहीं करते’’ मुसलमानों को चाहिए कि वोह इस बात पर ग़ौर करें कि वोह रसूले अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की इत्तेबाअ़् क्यूं नहीं करते और अपने बच्चों का नाम ह़सन व ह़ुसैन न रख कर सह़ाबा के नामों पर नाम रखते हैं। मुख़्तलिफ़ अह्लेसुन्नत मनाबेअ़ से येह बात ज़ाहिर है कि इमाम ह़सन अ़लैहिस्सलाम और इमाम ह़ुसैन अ़लैहिस्सलाम का नाम रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने अल्लाह के ह़ुक्म से रखा था ह़सन-ओ-ह़ुसैन येह अ़रबी ज़बान का इस्तेंबात है
लफ़्ज़ शब्बर-ओ-शब्बीर से जो कि ह़ज़रत हारून अ़लैहिस्सलाम के फ़र्ज़ंद और उन के नाम भी अल्लाह ने ही रखे थे।
‘‘शीआ़ अपने बच्चों के नाम यज़ीद के नाम पर क्यूं नहीं रखते?’’
कुछ मुसलमान अस्मा पर बह़्स करते हैं और इस बात पर इसरार करते हैं कि जब तहज़ीबी लेह़ाज़ से उन नामों
को लोग क़बूल करते हैं तो हम यज़ीद, मुआ़विया, ज़ेयाद, अबू जेह्ल, अबू लहब येह नाम क्यूं नहीं पाते?
जवाब:
१. अ़रबों के दरमियान अगर हम देखें तो शीओ़ं में यज़ीद नाम के लोग बहुत मिलेंगे ह़त्ता कि सानेह़ए करबला के बअ़्द भी क्यूंकि येह नाम तहज़ीब की बेना पर आ़म था न कि उस मलऊ़न यज़ीद जिस ने इमाम ह़ुसैन अ़लैहिस्सलाम और उनके अस्ह़ाब को शहीद किया और अह्लेबैते रसूल को मुक़य्यद किया। शीई़ कुतुबे रेजाल में (ह़दीस के रावी का तआ़रुफ़) जैसे: रेजाले तूसी रह़्मतुल्लाह अ़लैह, रेजाले बर्क़ी रह़्मतुल्लाह अ़लैह, रेजाले कशी रह़्मतुल्लाह अ़लैह आयतुल्लाह सय्यद अबुल क़ासिम अल ख़ूई रह़्मतुल्लाह अ़लैह की मोअ़्जमुर्रेजाल अल ह़दीस, में हम देखते हैं कि अह्लेबैत के सच्चे पैरवकार और बनी उमय्या के दुश्मनों का नाम यज़ीद था।
२. इसी तरह़ हम देखते हैं अस्ह़ाब और उनके अज्दाद का नाम यज़ीद, मुआ़विया, ज़ेयाद, मसलन मुफ़ज़्ज़ल बिन उ़मर और मुआ़विया बिन वहब (येह दोनों इमाम जअ़्फ़र सादिक़ अ़लैहिस्सलाम के ख़ास सह़ाबी थे) कुमैल बिन ज़ेयाद अमीरुल मोअ्मेनीन अ़लैहिस्सलाम के मोअ़्तमद और बावसूक़ सह़ाबी थे। इसी तरह़ शीओ़ं के नाम हेशाम जैसे हेशाम बिन ह़कम (जो कि इमाम सादिक़ अ़लैहिस्सलाम के मोअ़्तमद सह़ाबी थे और ज़ाहिर है उनका येह बे नाम हेशाम बिन अ़ब्दुल मलिक
जिस ने इमाम ज़ैनुल आ़बेदीन अ़लैहिस्सलाम को ज़ह्र दिया पर हरगिज़ नहीं था) येह कुछ मिसालें थीं रेजाल की किताबों से (रावियाने अह़ादीस)
३. शीओ़ं को अपने बच्चों के नाम अबू जेह्ल, अबू लहब रखने में कोई दिलचस्पी नहीं है अगर मुसलमान चाहें तो रखें।
उ़मर बमुक़ाबला उ़मर
अगर हम फ़र्ज़ भी कर लें कि नाम ख़ुलफ़ा के नाम पर रखा गया था तो भी उसमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। नाम रखना इस बात की दलील नहीं है कि वोह उसे पसंद करता है। इंसान के अअ़्माल बताते हैं कि आया वोह ख़ुलफ़ा से मुतास्सिर है या नहीं। येह बयान किया जाता है कि उ़मर बिन अ़ब्दुल अ़ज़ीज़, बनी उमय्या के ख़ानदान से था और यक़ीनन उसका नाम भी इसी लिए
उ़मर था। मगर उसका फ़ेअ़्ल बताता है कि वोह अपने रोल मॉडल से ख़ुश नहीं था बिल्ख़ुसूस बाग़े फ़ेदक लौटाने में जिसे उ़मर बिन ख़त्ताब ने जनाब फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अ़लैहा दुख़्तरे रसूले अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम से छीना था। अगर उ़मर सानी (उ़मर बिन अब्दुल अ़ज़ीज़) का नाम उ़मर बिन ख़त्ताब के नाम पर रखा गया होता तो ज़रूर वोह उ़मर से मोह़ब्बत करता और उसके नक़्शे क़दम पर चलता।
२. इसी तरह़ ह़ज़रत अ़ली बिन अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम अपने फ़र्ज़ंद का नाम उ़स्मान, उ़स्मान बिन अ़फ़्फ़ान के नाम पर रखते तो उ़स्मान बिन अ़ली को करबला में यज़ीद से जंग नहीं करना चाहिए था क्यूंकि वोह उ़स्मान बिन अ़फ़्फ़ान का रिश्ते में पोता था या कम अज़ कम करबला की जंग से पहले एक आ़म एअ़्लान कर देना चाहिए था कि जिन जिन के नाम ख़ुलफ़ा के नामों पर हैं वोह जंग करने से गुरेज़ करें ताकि नाह़क़ ख़ून न बहे।
लेहाज़ा अगर इत्तेफ़ाक़ से दो लोगों के नाम एक जैसे हैं क्यूंकि दोनों एक ही तहज़ीब-ओ-तमद्दुन से तअ़ल्लुक़ रखते हैं तो इसका मतलब हरगिज़ येह नहीं है कि दूसरे का नाम पहले के नाम पर रखा गया या उसके वालिदपहले के वालिद से मोह़ब्बत रखते थे। रसूले अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की शहादत के फ़ौरन बअ़्द रवायात के नक़्ल करने पर पाबंदी आ़एद कर दी गई थी। लेहाज़ा आज येह कहना बहुत मुश्किल है कि ह़ज़रत अ़ली अ़लैहिस्सलाम के फ़र्ज़ंदों का नाम किस
ख़लीफ़ा के नाम पर था या असलन उन्होंने किन के नाम पर नाम रखा। मगर चंद रवायात इसकी तरफ़ ज़रूर इशारा करती हैं (और न कि ख़ुलफ़ा की तरफ़)। अमीरुल मोअ्मेनीन अ़लैहिस्सलाम से रवायत मिलती है जिस में आप अपने फ़र्ज़ंद उ़स्मान के बारे में फ़रमाते हैं कि मैंने उसका नाम अपने उ़स्मान बिन मज़ऊ़न के नाम गेरामी पर रखा है (जो कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के जलीलुल क़द्र सह़ाबी थे और बक़ीअ़् में दफ़्न हैं) जब कि ऐसी रवायत नहीं मिलती जिस में येह मिलता हो कि ह़ज़रत अ़ली अ़लैहिस्सलाम ने अपने बच्चों का नाम शैख़ैन के नाम पर रखा हो। मुमकिन है ह़ज़रत अ़ली
अ़लैहिस्सलाम ने अपने दूसरे फ़र्ज़ंदों का नाम भी मोह़तरम सह़ाबा के नामों पर रखा हो चे जाए कि ख़ुलफ़ा के नामों
पर।
शीओ़ं को इन नामों से कैसे फ़ाएदा हुआ?
अमीरुल मोअ्मेनीन अ़लैहिस्सलाम के चंद फ़र्ज़ंदों के नाम ख़ुलफ़ा के नाम पर थे। जो तारीख़ में शीओ़ं के लिए परेशानी, मुश्केलात और ज़ालिम के ज़ुल्म-ओ-सितम से भागने का ज़रीआ़ बना। लेहाज़ा हमें ऐसे बहुत से वाक़ेआ़त मिलते हैं जहां दुश्मनों ने शीअ़याने अमीरुल मोअ्मेनीन अ़लैहिस्सलाम को फंसाया और उन्हें क़त्ल कर डालते तो उन्होनें फ़र्ज़न्दाने अमीरुल मोअ्मेनीन की मदह़-ओ-तौसीफ़ की तो दुश्मन समझा कि उन्होंने ने ख़ुलफ़ा की मद्ह़ सराई की। इस तरह़ से येह लोग मौत के
मुँह से भाग सके।
लेहाज़ा शीआ़ बिला किसी ग़लत बयानी के तक़य्या करते रहे। कई सालों तक यही रविश शीओ़ं की जान, माल, औलाद की ह़ेफ़ाज़त का ज़रीआ़ रहा।
मुंदर्जा बाला बयान कर्दा मौज़ूअ़् की बेना पर और चौदह सौ सदियां गुज़रने के बअ़्द आज के दौर में हम येह नतीजा अख़ज़ कर सकते हैं कि नाम रखना येह तरफ़ैन के तअ़ल्लुक़ात का मेअ़्यार नहीं हो सकता।
मोह़ब्बत-ओ-दुश्मनी जानने के लिए कोई दूसरा ज़रीआ़ तलाश करना होगा और वोह है अअ़्माल-ओ-किरदार की यकसानियत।