उलिल अम्र – एक जाएज़ा

रेह़लते पैग़म्बर अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के बअ़्‌द इस्लामी दुनिया में आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व

आलेही व सल्लम की ख़ेलाफ़त-ओ-इमामत की बह़्स दरमियान में आई – सद्रे इस्लाम से आज तक हमेशा ही येह मसअला मुसलमानों के दरमियान मूरिदे इख़्तेलाफ़ रहा है और इस सिलसिले में मुख़्तलिफ़ नज़रियात, मुख़्तलिफ़ लोगों के ज़रीए़ बयान होते रहे हैं। शीआ़ मोअ़्‌तक़िद हैं कि : रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के बअ़्‌द ख़ेलाफ़त ख़ुदा की जानिब से आइम्मा अ़लैहिमुस्सलाम का ह़क़ है और दूसरों ने नाह़क़ ख़ेलाफ़त को उन बुज़ुर्गवारान से ग़स्ब किया है। शीओ़ं के पास इसके लिए दलीलें हैं।

 

शीओ़ं से मुक़ाबले में आइम्मा अ़लैहिमुस्सलाम के मुख़ालेफ़ीन और मुख़ासेमीन इस बात के दर पै हैं कि सद्रे इस्लाम में रूनुमा होने वाले ह़वादिस को मशरूअ़्‌ क़रार दें और वोह सक़ीफ़ा में चुने जाने वाले ख़लीफ़ा को रज़ायते ख़ुदा और र्शए़ इस्लाम के मुताबिक़ बताते हैं।

 

हम इस मज़्मून में उन ह़क़ाएक़ की तरफ़ क़ारेईन की तवज्जोह मब्ज़ूल करेंगे जो ख़त्मुल मुर्सलीन ह़ज़रत मोह़म्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के बअ़्‌द आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के ख़लीफ़ए बर

ह़क़ की निशानदेही करते हैं।

 

क़ुरआन मजीद में बे शुमार दलाएल-ओ-शवाहिद मौजूद हैं जो पैग़म्बर अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के जॉनशीन और ख़लीफ़ए बरह़क़ की निशानदेही करते हैं। मिन्जुम्ला दलाए-ओ-शवाहिद में सूरए निसा की ५९वीं आयत :

या अय्योहल्लज़ी-न आ-मनू अतीउ़ल्ला-ह व अतीउ़र्रसू-ल व उलिल अम्रे मिन्कुन.

इमामत अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम की ताईद करती है। हम इख़्तेसार के साथ इस आयत पर बह़्स करेंगे।

 

आयत में अल्फ़ाज़-ओ-मुफ़रदात के मअ़्‌नी

अस्ल बह़्स में वारिद होने से पहले, आयत में इस्तेअ़्‌माल होने वाले अल्फ़ाज़-ओ-मुफ़रदात के मअ़्‌नी की तरफ़ इशारा ज़रूरी है।

(अ) ख़ुदा की इताअ़त के मअ़्‌नी (अतीउ़ल्लाह):

ख़ुदा की इताअ़त से मुराद उन अह़काम की पैरवी-ओ-मुताबेअ़त है जो रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के क़ल्ब मुबारक पर वह़ी के ज़रीए़ नाज़िल हुए हैं और येह ह़ुक्म-ओ-ख़ेताब तमाम मुकल्लेफ़ीन से है, लेहाज़ा ख़ुदा की इताअ़त, यअ़्‌नी क़ुरआन-ओ-ग़ैर क़ुरआन में बयान होने वाले तमाम अह़काम ख़ुदा की इताअ़त है।

(ब) रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की इताअ़त के मअ़्‌नी (अतीउ़र्रसूल):

रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की इताअ़त तीन क़िस्म की है:

१. रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की इताअ़त उन उमूर में जो अह़काम की तौज़ीह़ के तौर पर वह़ी के ज़रीए़ पैग़म्बर अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम पर नाज़िल हुई हैं। लेकिन क़ुरआन मजीद में मौजूद नहीं हैं, क्यूंकि जो क़ुरआन में आया है वोह अह़काम के कुल्ली उसूल हैं, और बयाने नबवी के मोह़ताज हैं। इसी लिए क़ुरआन कहता है:

व अन्ज़ल्ना इलैकज़्‌ज़िक्‌-र लेतुबय्ये-न लिन्नासे मा नुज़्ज़े-ल इलैहिम.

(सूरए नह़्ल (१६), आयत ४४)

और हम ने तुम पर क़ुरआन को नाज़िल किया ताकि जो कुछ तुम पर नाज़िल हुआ है, लोगों के लिए उसकी वज़ाहत करो।

 

२. रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की इताअ़त उन उमूर में कि जिस की तशरीअ़्‌ आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के ज़िम्मे है, क्यूंकि बअ़्‌ज़ दलीलों के मुताबिक़, बअ़्‌ज़ अह़काम की तशरीअ़्‌ ख़ुद रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के ज़िम्मे है। जैसा कि दो रकअ़ती नमाज़ों के सिलसिले में वारिद हुआ है कि पैग़म्बर अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने उन पर इज़ाफ़ा किया है।

(मन ला यह़ज़रहुल फ़क़ीह, बाब अ़दद रकआ़ते नमाज़)

 

३. रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की इताअ़त आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम

की ज़ाती-ओ-शख़्सी राए और वोह उमूर जो इज्तेमाए़ मुसलेमीन से मरबूत हैं। वोह उमूर जो उम्मते इस्लामी के सबात-ओ-इस्तेह़काम के लिए वाली-ओ-ह़ाकिमे इस्लामी के ज़िम्मेदारियों से मरबूत हैं। ख़ुदावंद मुतआ़ल का इर्शाद गेरामी है:

 

वमा का-न लेमोअ्‌मेनिन व ला मोअ्‌मेनतिन एज़ा क़ज़ल्लाहो व रसूलोहू अमरन अंय्यकू-न लहुमुल ख़े-य-रतो मिन अम्रेहिम

(सूरए अह़ज़ाब (३३), आयत ३६)

 

और किसी मोमिन मर्द और मोमिन औ़रत को कि जब अल्लाह और उसका रसूल सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम किसी काम का ह़ुक्म दे दें तो अपने उमूर में (चूँ-ओ-चेरा) का इख़्तेयार नहीं रखते और जो शख़्स अल्लाह और उसके रसूल की ना फ़रमानी करे, वोह सरीह़ गुमराही में पड़ा। 

 

तमाम मुसलमानों पर वाजिब है कि वोह पैग़म्बर अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के तीनों ही क़िस्म के अह़काम में इताअ़त करें और आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की इताअ़त को ह़क़ीक़त में ख़ुदा

की इताअ़त जानें।

 

(ज) उलिल अम्र की इताअ़त के मअ़्‌नी (व उलिल अम्र)

 

‘‘उलिल अम्र’’ अह्लेबैते पैग़म्बर अकरम अ़लैहिमुस्सलाम में से अइम्मए मअ़्‌सूमीन अ़लैहिमुस्सलाम हैं और हम इस बात

बेह़ौल व क़ूवते इलाही इन्शाअल्लाह साबित करें। फ़िलहाल बह़्स येह है कि ‘‘उलिल अम्र’’ की ह़दें कहां तक हैं? और किन उमूर में उनकी इताअ़त करना चाहिए? इस सिलसिले में दो बातों का तज़्केरा ज़रूरी

समझते हैं।

 

१. बअ़्‌ज़ उ़लमा का नज़रिया है कि अइम्मा अ़लैहिमुस्सलाम तशरीअ़्‌ का ह़क़ नहीं रखते। और उनका काम सिर्फ़ शरई़ अह़काम की तौज़ीह़ और उन्हें बयान करना है जो कि रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के ज़रीए़ बयान हुए हैं और

तौज़ीह़-ओ-तशरीह़ और सह़ीह़ तत्बीक़ के मोह़ताज हैं। लोगों पर वाजिब है कि उन बुज़ुर्गों के बयानात को सुनें और उन पर अ़मल करें। 

अ़ब्दुल्लाह बिन अ़जलान ने इमाम बाक़िर अ़लैहिस्सलाम से आयत ‘‘अतीउ़ल्ला-ह व अतीउ़र्रसू-ल व उलिल अम्रे

मिन्कुम’’ की तफ़सीर में नक़्ल किया है कि आप अ़लैहिस्सलाम ने फ़रमाया:

‘‘येह आयत अ़ली अ़लैहिस्सलाम और अइम्मा अ़लैहिमुस्सलाम के बारे में नाज़िल हुई है। ख़ुदावंद आ़लम ने उन्हें अंबिया अ़लैहिमुस्सलाम के मक़ाम पर क़रार दिया है, सिवाए उसके कि वोह किसी चीज़ को ह़लाल नहीं करते और किसी चीज़ को ह़राम नहीं करते।’’

(तफ़सीरे अ़य्याशी, जि.१, स¤ २५२, ह़¤ १७३)

 

२. दूसरे मवारिद जिन में अह्लेबैते इ़स्मत-ओ-तहारत अ़लैहिमुस्सलाम के अह़काम को हम को सुनना और उन पर अ़मल करना चाहिए, वोह अह़काम हैं जो निज़ामे इस्लामी और मम्लेकते इस्लामी की ह़ेफ़ाज़त और शान-ओ-अ़ज़मत से मरबूत हैं, और इसी लिए अगर इस तरह़ के अह़काम में से कोई ह़ुक्म सादिर करें, चाहे उनकी ह़ाकेमीयत के ज़माने में हो चाहे ह़ाकेमीयत के ज़माने में न हो, तमाम मुसलमानों पर उनके अह़काम में इताअ़त लाज़िम है।

‘‘उलिल अम्र’’ के बारे में अक़वाल

 

येह बात कि इस आयत में ‘‘उलिल अम्र’’ से मुराद कौन लोग हैं? कुछ अक़वाल ज़िक्र हुए हैं। उनमें से बअ़्‌ज़ क़ौल की तरफ़ इशारा करते हैं:

१. ‘‘ईरानी लश्कर’’ उलिल अम्र है।

२. ‘‘अस्ह़ाबे पैग़म्बर अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व

सल्लम उलिल अम्र हैं।

३. ‘‘सह़ाबा-ओ-ताबेई़न’’ उलिल अम्र हैं।

४. ‘‘ख़ुलफ़ाए अरबअ़्‌’’ उलिल अम्र हैं।

५. ‘‘उ़मूम उ़लमाए उम्मते इस्लामी’’ उलिल अम्र हैं।

६. ‘‘जो भी सह़ीह़ तरीक़े से लोगों के उमूर का

मुतवल्ली हो’’ उलिल अम्र’’ है।

७. ‘‘अह्ले ह़ल-ओ-अ़क़्‌द’’ उलिल अम्र हैं।

८. ‘‘अह्लेबैते पैग़म्बर अ़लैहिमुस्सलाम में से मख़्सूस अइम्मा

अ़लैहिमुस्सलाम’’ उलिल अम्र हैं।

(अल बह़रुल मुह़ीत, जि¤ ३, स¤ २७८)

 

हम येह साबित करेंगे कि ‘‘उलिल अम्र’’ से मुरादअह्लेबैत से मख़्सूस मअ़्‌सूमीन अ़लैहिमुस्सलाम हैं।

 

इ़स्मत ‘‘उलिल अम्र’’

 

आयए उलिल अम्र में ग़ौर करने से पता चलता है कि आयत में जो लोग ‘‘उलिल अम्र’’ क़रार दिये गए हैं वोह ह़ामिले इ़स्मत हैं। इस मअ़्‌नी को हम दर्जे ज़ैल तरीक़े से साबित करेंगे:

ख़ुदावंद आ़लम ने बतौर जज़्म-ओ-क़त्अ़, उलिल अम्र की इताअ़त का ह़ुक्म दिया है और हर उस शख़्स के लिए जिस के लिए इस तरह़ का ह़ुक्म दिया गया हो, उसे हर ख़ता और ग़लती से पाक-ओ-पाकीज़ा और मअ़्‌सूम होना चाहिए, क्यूंकि उसके बरअ़क्स सूरत में बर फ़र्ज़े ख़ता और ग़लती पर एक़दाम का मतलब येह है कि ख़ुदावंद आ़लम ने उसी ग़लत और ख़ता वाले काम की इताअ़त का ह़ुक्म दिया है और ख़ता और ग़लती तो इस लिए ख़ता है कि उसके करने से मनअ़्‌ किया गया है। नतीजा येह कि मज़्कूरा आयत में उलिल अम्र की इ़स्मत न होने की सूरत में, येह बात लाज़िम आएगी कि एक ही फ़ेअ़्‌ल में अम्र और नही (नह्य) एक ही वक़्त में और एक ही एअ़्‌तेबार से जमअ़्‌ हो गए जो कि यक़ीनी तौर पर मोह़ाल है लेहाज़ा आयत में ‘‘उलिल अम्र’’ से मुराद ख़ता-ओ -इश्तेबाह से मअ़्‌सूम अफ़राद हैं।

(तफ़सीरे फ़ख़्रे राज़ी, जि¤ १, स¤ १४४)

 

येह फ़ख़्रे राज़ी की बातें थीं।

फ़ख़्रे राज़ी ने अगरचे यहां तक शीओ़ं के नज़रिये से इत्तेफ़ाक़ किया है और ‘‘उलिल अम्र’’ को मअ़्‌सूम अफ़राद पर मुन्तबिक़ किया है, लेकिन जब ‘‘उलिल अम्र’’ के मिस्दाक़ के तअ़य्युन का मौक़अ़्‌ आया तो ग़लती से दुचार हो गए और फिर इस मुआ़मले को उम्मत के अह्ले ह़ल्ल-ओ-अ़क़्‌द पर मुन्तबिक़ कर दिया।

 

वोह कहते हैं: ‘‘आयत उलिल अम्र की बतौर मुतलक़ इताअ़त-ओ-पैरवी को साबित करती है, लेकिन हम मअ़्‌सूम की शेनाख़्त से आ़जिज़ हैं और इस वजह से कि मअ़्‌सूम वजूदे ख़ारज़ी नहीं रखता, या तो हम उस तक पहुंचने से आ़जिज़ हैं, लेहाज़ा कहते हैं: ‘‘उलिल अम्र’’ का मक़सूद बुज़ुर्गान उम्मत से अह्ले ह़ल्ल-ओ-अ़क़्‌द हैं, जो कि मसाएल और अह़काम से आश्ना हैं और अगर वोह लोग किसी मसअले पर इज्तेमाअ़्‌ करें, उनके इज्तेमाअ़्‌ से जो नतीजे निकलें, वोह हर ऐ़ब और ख़ता से पाक है। (तफ़सीरे फ़ख़्रे राज़ी, जि¤ १, स¤ १४४)

 

क़ुरआन की तफ़सीर रवायात के ज़रीए़

 

जैसा कि क़ुरआन अपनी बअ़्‌ज़ आयतों की तफ़सीर दूसरी आयतों के ज़रीए़ करता है, रवायतें भी क़ुरआन की तफ़सीर-ओ-तबईन करती हैं। ख़ुदावंद आ़लम का इर्शाद है:

व अन्ज़ल्ना इलैकज़्‌ज़िक्‌-र लेतोबय्ये-न लिन्नासे मानुज़्ज़े-ल इलैहिम

(सूरए नह़ल (१६), आयत ४४)

और हम ने क़ुरआन करीम को तुम पर नाज़िल किया है ताकि जो अह़काम लोगों के लिए नाज़िल किये गए हैं तुम उन से साफ़ साफ़ बयान कर दो।

 

‘‘उलिल अम्र’’ के बारे में रवायतें मौजूद हैं जो उसके मिस्दाक़ को साफ़ साफ़ बयान करती हैं। कुछ रवायतें मुलाह़ेज़ा फ़रमाएं:

१. बारह ख़लीफ़ा के बारे में ह़दीसें: रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने फ़रमाया:

‘‘मेरे बअ़्‌द बारह अमीर तुम्हारे दरमियान होंगे किवोह सारे क़ुरैश से हैं।’’

(सह़ीह़ बुख़ारी, किताबुल इस्तिख़लाफ़, ह़¤ ७२२२)

 

लफ़्ज़े ‘‘अमीर’’ अम्र-ओ-इमारत से निकला है। औरयेह रवायत तअ़्‌दादे ‘उलिल अम्र’ ह़द को मुअ़य्यन करने में हमारी मदद करती है कि उलिल अम्र बारह नफ़र होंगे।

 

२. ह़ाकिम नेशापूरी ने सह़ीह़ सनद से रसूले ख़ुदा से नक़्ल किया है कि आप सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व

सल्लम ने फ़रमाया:

मन अताअ़नी फ़क़द अताअ़ल्ला-ह, व मन अ़सानी फ़क़द अ़सल्ला-ह, व मन अता-अ़ अ़लीयन फ़क़द अताअ़नी व मन अ़स-य अ़लीयन फ़क़द अ़सानी

(मुस्तदरक ह़ाकिम, जि¤ ३, स¤ १२१)

 

जो मेरी इताअ़त करे यक़ीनन उसने ख़ुदा की इताअ़त की और जिस ने मेरी नाफ़रमानी की यक़ीनन उसने ख़ुदा की ना फ़रमानी की है और जिस ने अ़ली अ़लैहिस्सलाम की इताअ़त की उसने यक़ीनन मेरी इताअ़त की और जिसने अ़ली अ़लैहिस्सलाम की नाफ़रमानी की उसने यक़ीनन मेरी नाफ़रमानी की है।

 

इस ह़दीस में पैग़म्बर अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने इमाम अ़ली अ़लैहिस्सलाम की इताअ़त को अपनी इताअ़त के साथ साथ बताया है और अपनी इताअ़त को ख़ुदा की इताअ़त के हमराह बयान किया है और नतीजतन येह वही मअ़्‌नी है जिस की तरफ़ मज़्कूरा आयत में इशारा किया गया है।

 

३. ह़दीसे सक़लैन: पैग़म्बर अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने इस ह़दीस में फ़रमाया: 

मैं दो गरांक़द्र चीज़ें तुम्हारे दरमियान छोड़े जा रहा हूं, अगर तुम इन दोनों से जुड़े रहे तो हरगिज़ गुमराह न होगे, एक किताब ख़ुदा है और दूसरी मेरी इ़तरत। 

 

इस ह़दीस में भी पैग़म्बर सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की इ़तरत से तमस्सुक और इताअ़त की तरफ़

इशारा हुआ है।

 

शीआ़ ह़दीसों पर ग़ौर

 

‘‘उलिल अम्र’’ के मिस्दाक़ के बारे में शीआ़ इमामिया की ह़दीसें इज्माली तवातुर के साथ और सह़ीह़ सनद के हमराह अह्लेबैत अ़लैहिमुस्सलाम पर मुन्तबिक़ होने पर राहनुमाई करती है। इन अह़ादीस के पैग़ाम क़ुरआन की आयतों के राहनुमा ख़ुतूत पर हैं। इस बेना पर येह ह़दीसें तफ़सीर-ओ-मअ़्‌नी के लिए क़बूल हैं।

 

बावजूद इसके कि इस आयत के बारे में येह ह़दीसें मुतनव्वोअ़्‌ हैं लेकिन उनके दरमियान कोई टकराव,

तज़ाद और तआ़रुज़ नहीं हैं।

इमाम बाक़िर अ़लैहिस्सलाम ने एक ह़दीस में फ़रमाया:

ईयाना अ़ना ख़ास्सतन अ-म-र जमीअ़ल मोअ्‌मेनी-न एला यौमिल क़यामते लेताअ़तेना

(काफ़ी, जि¤१, स¤ २७६, ह़¤ १)

 

ख़ुदा ने सिर्फ़ हमारे लिए इरादा किया है और तमाम मोअ्‌मेनीन को रोज़ क़यामत तक हमारी इताअ़त

का ह़ुक्म दिया है।

 

जाबिर कहते हैं: जब ख़ुदावंद आ़लम ने आयत ‘‘या अय्योहल्लज़ी-न आ-म-नू अतीउ़ल्ला-ह व अतीउ़र्रसू-ल….’’ को अपने पैग़म्बर ह़ज़रत मोह़म्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम पर नाज़िल किया, मैंने दरियाफ़्त किया: ऐ रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ! हमने ख़ुदा और उसके रसूले को पहचाना, उलिल अम्र जिन की इताअ़त ख़ुदा ने अपनी इताअ़त के साथ साथ रखा है कौन लोग है? आप सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने फ़रमाया: वोह लोग मेरे जॉनशीन और मेरे बअ़्‌द मुसलमानों के पेशवा और रहबर हैं। उनमें के पहले अ़ली इब्ने अबी तालिब अ़लैहेमस्सलाम हैं फिर ह़सन अ़लैहिस्सलाम, फिर ह़ुसैन अ़लैहिस्सलाम, फिर अ़ली बिन ह़ुसैन अ़लैहेमस्सलाम व मोह़म्मद बिन अ़ली अ़लैहेमस्सलाम हैं, जो कि तौरात में बाक़िर के नाम से मअ़्‌रूफ़ हैं। ऐ जाबिर! तुम उन को देखोगे और जब उनसे मुलाक़ात करो तो मेरा सलाम उनको पहुँचाना। फिर सादिक़ जअ़्‌फ़र बिन मोह़म्मद अ़लैहेमस्सलाम, मूसा बिन जअ़्‌फ़र अ़लैहेमस्सलाम, अ़ली बिन मूसा अ़लैहेमस्सलाम, मोह़म्मद बिन अ़ली अ़लैहेमस्सलाम, अ़ली बिन मोह़म्मद अ़लैहेमस्सलाम, व ह़सन बिन अ़ली अ़लैहेमस्सलाम हैं। फिर वोह शख़्स कि जिस का नाम मोह़म्मद और जिस की कुनियत ‘‘ह़ुज्जतुल्लाह’’ ज़मीन पर और ‘‘बक़ीयतुल्लाह’’ बंदगाने ख़ुदा के दरमियान है। वोह ह़सन बिन अ़ली अ़लैहेमस्सलाम का फ़र्ज़ंद है। ख़ुदावंद बुज़ुर्ग-ओ-बरतर, अह्ले शर्क़-ओ-ग़र्ब को उसके हाथों बहबूद-ओ-फ़रज अ़ता करेगा।

(कमालुद्दीन, जि¤ १, स¤ २५३, ह़¤ ३; एअ़्‌लामुलवरा, स¤ ३७५)

 

इमाम रज़ा अ़लैहिस्सलाम ने इस आयत में ‘उलिल अम्र’ की तफ़सीर में फ़रमाया:

अल अइम्मतो मिन वुल्दे अ़लीइन व फ़ाते-म-तअ़लैहेस्सलामो एला अन तक़ूमस्साअ़तो

(कमालुद्दीन, जि¤ १, स¤ २२२, ह¤ ८)

उलिल अम्र, अ़ली-ओ-फ़ातेमा अ़लैहेमस्सलाम के फ़र्ज़न्दों में से क़यामत तक के लिए पेशवा रहबर हैं।

 

इमाम बाक़िर अ़लैहिस्सलाम ने ‘‘उलिल अम्र का अह्लेबैते पैग़म्बर सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम से होने और उनकी

इताअ़त और ख़ुदा की इताअ़त के यक्सां होने के बारे में फ़रमाते हैं:

व हुमुल मअ़्‌सूमूनल मुतह्हरूनल्लज़ी-न ला युज़्नेबू-नवला यअ़्‌सू-न…. ला युफ़ारेक़ूनल क़ुरआ-न व ला युफ़ारेक़ोहुम

(ए़ललुश्शराएअ़्‌, स १२३ व १२४, ह१)

वोह लोग पाक मअ़्‌सूमीन हैं, वोह गुनाह के मुर्तकिब नहीं होते और कोई मअ़्‌सियत अंजाम नहीं देते … क़ुरआन से जुदा न होंगे और क़ुरआन उनसे जुदा न होगा।

 

इमाम ह़सन अ़लैहिस्सलाम के एक ख़ुतबा में भी लोगों की उनसे बैअ़त के बअ़्‌द इस तरह़ रवायत की गई है: 

फ़-अतीऊ़ना फ़-इन्‌-न ता-अ़-त-ना मफ़रू-ज़तुन इज़ कानत बेताअ़तिल्लाहे मक़रू-नतन क़ालल्लाहो अ़ज़्ज़ व

जल्‌-ल या अय्योहल्लज़ी-न आ-म-नू अतीउ़ल्ला-ह व अतीउ़र्रसू-ल व उलिल अम्रे मिन्कुम.

(अमाली शैख़ तूसी, स¤ १२१, ह¤ १८८)

फिर हमारी इताअ़त करो, हमारी इताअ़त वाजिब है चूंकि येह ख़ुदा और रसूल की इताअ़त के साथ साथ क़रार दी गई है। ख़ुदावंद बुज़ुर्ग-ओ-बरतर फ़रमाता है: ‘इताअ़त करो ख़ुदा की और इताअ़त करो रसूल की और जो तुम में से (रसूल ही की तरह़) उलिल अम्र हैं, उनकी इताअ़त करो।

 

‘‘उलिल अम्र’’ अह्ले सुन्नत की रवायतों में 

 

अह्ले सुन्नत की बअ़्‌ज़ रवायतों के मुताबिक़ भी आयत मज़कूरा में ‘‘उलिल अम्र’’ से मुराद अह्ले बैत इ़स्मत-ओ-तहारत हैं: ह़ाकिम ह़स्कानी ने अपनी सनद से रवायत किया है कि इमाम अ़ली अ़लैहिस्सलाम ने ह़ज़रत रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के ज़रीए़ नक़्ल किया है कि आप ने फ़रमाया:

‘‘मेरे शरीक वोह लोग हैं कि जिन की इताअ़त को ख़ुदा ने अपनी इताअ़त और मेरी इताअ़त के साथ साथ रखा है और उनके बारे में इस तरह़ नाज़िल किया है:

‘‘अतीउ़ल्ला-ह व अतीउ़र्रसू-ल व उलिल अम्रे मिन्कुम’’

मैं ने कहा ऐ रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम वोह कौन लोग हैं? फ़रमाया:

‘‘तुम उन में के पहले हो।’’

(शवाहेदुत्तन्ज़ील, जि¤ १, स¤ १९१, ह़¤ २०४)

 

ह़मवीनी ने भी अपनी सनद से एक तूलानी ह़दीस के ज़ैल में नक़्ल किया है कि इमाम अ़ली अ़लैहिस्सलाम ने बअ़्‌ज़ सह़ाबा से ख़ेताब करते हुए फ़रमाया:

‘‘……. तुम को ख़ुदा की क़स्म देता हूं जब आयत ‘या अय्योहल्लज़ी-न आमनू अतीउ़ल्ल–ह व अतीउ़र्रसू-ल व उलिल अम्रे मिन्कुम’ नाज़िल हुई, लोगों ने कहा: ऐ रसूले ख़ुदा! क्या ‘‘उलिल अम्र’’ व… ख़ास लोग और बअ़्‌ज़ मोअ्‌मेनीन हैं या सब लोग शामिल हैं? फिर ख़ुदा ने अपने पैग़म्बर को ह़ुक्म दिया कि वालियाने अम्र को लोगों को बता दें और उनको उसी तरह़ जैसा

कि नमाज़-ओ-ज़कात और ह़ज की तफ़सीर बयान की है, वेलायत की तफ़सीर कर दो। पस रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो

अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने मुझे ग़दीरे ख़ुम में लोगों के लिए मन्सूब किया।

(फ़राएदुस्समतैन, जि¤ १, स ३१३, बाब ५८, ह़ २५०)

 

और इसी तरह़ ह़ाकिम ह़स्कानी ने भी मुजाहिद बिन जबर ताबई़ के ज़रीए़, आयत के शाने नुज़ूल को इमाम अ़ली अ़लैहिस्सलाम को पैग़म्बरे ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के जॉनशीन होने के बारे में नक़्ल किया है और लिखा है: ‘‘(उलिल अम्र) अमीरुल मोअ्‌मेनीन के बारे में नाज़िल हुई, जब रसूले ख़ुदा सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने उनको मदीना में अपनी जगह पर बिठाया और अ़ली अ़लैहिस्सलाम ने अ़र्ज़ किया: क्या आप मुझे औ़रतों और बच्चों को दरमियान में छोड़ रहे हैं। पैग़म्बर सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम ने फ़रमाया: क्या तुम राज़ी नहीं हो कि जो मंज़ेलत हारून को मूसा से थी, वही तूम को भी हो?

(शवाहेदुत्तन्ज़ील, जि¤ १, स¤ १९२, ह़¤ २०५)

 

अह्ले सुन्नत के नज़रियात पर ग़ौर

 

तमाम अह्ले सुन्नत सिवाए फ़ख़्रे राज़ी के, इस आयत में इताअ़ते ‘‘उलिल अम्र’’ को ख़ुदा की इताअ़त और उसकी अ़दम मअ़्‌सियत की शर्त के साथ जानते हैं और शीआ़ नज़रिया के बरख़ेलाफ़, उलिल अम्र को मअ़सूम अफ़राद पर मुन्तबिक़ नहीं करते और इस सिलसिले में दूसरा नज़रिया इख़्तेयार किया है, जैसे:

 

  • उलिल अम्र, ह़किमाने बरह़क़

 

ज़मख़्शरी कहते हैं: ‘‘ख़ुदा ने वालियान (गवरनरों) को ह़ुक्म दिया है, अमानतों को उनके अह्ले के पास लौटाएं और अ़द्‌ल-ओ-इन्साफ़ से फ़ैसला करें। फिर इस आयत में लोगों को ह़ुक्म दिया कि उनकी इताअ़त करें और उनके ह़ुक्म-ओ-फ़ैसला को तस्लीम करें, वोह लोग ह़ाकिमाने बरह़क़ के अ़लावा नहीं हैं चूँकि ख़ुदा और उसके रसूल ज़ालिम ह़ाकिमों से बेज़ार हैं और इम्कान नहीं है कि उन लोगों की इताअ़त का वजूद ख़ुदा और रसूल की इताअ़त पर अ़त्फ़ हो।

(कश्शाफ़, जि¤ १, स ५२४)

 

तज़क्कुर

आयत में लफ़्ज़ अतीऊ़ (इताअ़त करो) अल्लाह के साथ आया है और रसूल के लिए यही लफ़्ज़ दूसरी मर्तबा इस्तेअ़्‌माल किया गया है जब कि उलिल अम्र के लिए अलग से लफ़्ज़ अतीऊ़ इस्तेअ़्‌माल नहीं किया गया बल्कि रसूले के साथ जो अतीऊ़ इस्तेअ़्‌माल हुआ है उसी अतीऊ़ को उलिल अम्र पर भी लाया गया है। यअ़्‌नी उलिल अम्र ‘‘वावे अ़त्फ़’’ के ज़रीए़ रसूल के साथ इस्तेअ़्‌माल होने लफ़्ज़े अतीऊ़ की तरफ़ पलटा है। इस बेना पर जहां पैग़म्बर की इताअ़त वाजिब है वहीं उलिल अम्र की इताअ़्‌त भी वाजिब है लेकिन न जाने क्यूं आ़म्मा येह मन्तिक़ पेश करते हैं कि उलिल अम्र की इताअ़त का वजूद ख़ुदा और रसूल की तरह़ नहीं है। शायद येह उनकी मजबूरी है।

 

२. उलिल अम्र, उमरा और उ़लमा हैं

क़रतबी कहता है: ‘‘इस सिलसिले में सह़ीह़ तरीन अक़वाल में दो क़ौल हैं: पहला येह कि उलिल अम्र से मुराद ह़ाकिम (उमरा) हैं, क्यूंकि वोह लोग साहेबे अम्र हैं और उनके लिए ह़ाकेमीयत है और दूसरा क़ौल येह कि: उससे मुराद उ़लमा जो दीन की मअ़्‌रेफ़त रखते हैं…’’

(अल जामेउ़ल अह़कामुल क़ुरआन, जि ५, स २६०)

 

३. उलिल अम्र, ह़ाकेमीन, सलातीन औरक़ाज़ियाने शरअ़्‌ हैं

येह क़ौल उलिल अम्र के बारे में वसीअ़्‌ दाएरा रखता है और उलिल अम्र में ह़ाकेमीन, सलातीन और क़ाज़िए शरअ़्‌ और जो भी शरीअ़त की वेलायत रखता है, शामिल हैं।

(रूह़ुल मआ़नी, जि ४, स ९६, फ़तह़ुल क़दीर, जि¤ १, स ४८१)

 

इन अक़वाल के ह़ामिल सभी इस आयत में ‘‘उलिल अम्र’’ की इताअ़त को वाजिब तो जानते हैं लेकिन उसमें इ़स्मत की क़ैद-ओ-शर्त नहीं है यअ़्‌नी उनके नज़्दीक उलिल अम्र का मअ़्‌सूम होना ज़रूरी नहीं है।

जब कि आयत में उलिल अम्र मुतलक़ है और क़ैद-ओ-शर्त ख़ेलाफ़े ज़ाहिर है। इसी लिए हम उलिल अम्र को अइम्मए मअ़्‌सूमीन अ़लैहिमुस्सलाम पर ह़म्‌ल करते हैं।

 

तज़क्कुर

आ़म्मा उलिल अम्र की इताअ़त को वाजिब तो जानते हैं लेकिन उनके यहां उलिल अम्र का मअ़्‌सूम होना शर्त नहीं है। उलिल अम्र के लिए उनके यहां इ़ल्म-ओ-इ़स्मत की कोई बह़्स नहीं है। वोह सिर्फ़ ह़ुकूमते ज़ाहिरी को देखते हैं। यहां तक कि पैग़म्बर अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम को भी ह़ुकूमते ज़ाहिरी तक मह़दूद करते हैं और ख़याल करते हैं आँह़ज़रत सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की ह़ुकूमत भी दूसरी तमाम ह़ुकूमतों की तरह़ थी और उनकी ह़ुकूमत के लिए कोई

क़ैद-ओ-शर्त न थी। उन सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के कमालात ज़ाती, उ़लूम ग़ैबी और ख़ुदा की अ़ता कर्दा

मसूनीयत-ओ-मअ़्‌सूमियत की ह़ुकूमत के लिए कोई ज़रूरत न थी। इसी तरह़ वोह उलिल अम्र को भी समझते हैं और उलिल अम्र के लिए मअ़्‌सियत और गुनाह के पह्लू को नज़र अन्दाज़ कर देते हैं, दूसरे लफ़्ज़ों में यूं कहा जाए कि उनके यहां उलिल अम्र, चोर, उचक्का, ज़ालिम, ज़ेना कार, ज़ेना ज़ादा, क़ातिल, ग़ासिब और शराबी वग़ैरह सभी हो सकते हैं उन लोगों में इस तरह़ की मअ़्‌सियत पर तवज्जेह की कोई ज़रूरत नहीं है। ग़ौर फ़रमाएं: येह एक तरह़ की मन मानी क़ैद-ओ-शर्त है कि उलिल अम्र की इताअ़त करो और उनकी मअ़्‌सियत और गुनाह पर तवज्जोह न दो जब कि आयत में इताअ़त में इताअ़ते इलाही की क़ैद-ओ-शर्त के बग़ैर नक़्ल हुई है बल्कि आयत के अगले ह़िस्सा से साफ़ ज़ाहिर है कि अगर तुम्हारे दरमियान आपस में कोई तनाज़ओ़ं पैदा हो जाए तो उलिल अम्र की तरफ़ पलटो वोह ह़ुक्मे ख़ुदावंदी की रोशनी में तनाज़ओ़ं को ख़त्म करेगा। क्या येह दुरुस्त है उलिल अम्र नस्से ख़ुदा-ओ-रसूल के बर ख़ेलाफ़ ह़ुक्म सादिर करे? येह नहीं हो सकता। लेहाज़ा उलिल अम्र का मअ़्‌सूम होना ज़रूरी है और अह़कामे ख़ुदा-ओ-रसूल से आश्ना होना वाजिब है। अ़लावा इसके क़ुरआन की मुतअ़द्दिद आयतें सरीह़न बयान करती हैं जैसे:

व ला तुतीऊ़ अम्रल मुस्रेफ़ी-न.

(सूरए शोअ़्‌रा (२६), आयत १५१)

और ज़्यादती करने वालों की बात न मानो।

 

वला तुतेअ़्‌ मन अग़्फ़ल्ना क़ल्बहू अ़न ज़िक्रेना वत्त-ब-अ़ हवाहो

(सूरए कहफ़ (१८), आयत २८)

और हरगिज़ उसकी इताअ़त न करना जिस के क़ल्बको हम ने अपनी याद से मह़रूम कर दिया है।

फ़ला तुतेइ़ल मुकज़्ज़ेबी-न.

(सूरए क़ल्म (६८), आयत ८)

लेहाज़ा आप झुठलाने वालों की इताअ़त न करें।

 

तज़क्कुर

इन आयतों से भी साफ़ ज़ाहिर है कि उलिल अम्र ग़ैरमअ़्‌सूम नहीं हो सकता।

 

फ़ख़्रे राज़ी के कलाम पर नक़्द

फ़ख़्रे राज़ी ने आयत में ‘‘उलिल अम्र’’ को ‘‘अह्ले ह़ल्ल-ओ-अ़क़्द’’ पर मुन्तबिक़ किया है, हम उनसे कहते हैं: ऐसी सूरत में जब अह्ले ह़ल्ल-ओ-अ़क़्द के तमाम अफ़राद इ़स्मत के ह़ामिल न हों तो इस तरह़ ग़ैर मअ़्‌सूम के इज्तेमाई़ नज़रियात किस तरह़ इ़स्मत के ह़ामिल हो जाएंगे? इस बात में शक नहीं कि इज्तेमाअ़्‌, अक़रब-ब-सवाब यअ़्‌नी सह़ीह़ के क़रीब है, लेकिन येह

क़रीब होना सबब नहीं होगा कि ख़ता का एह़्तेमाल निकल जाए और उनकी राए इ़स्मत की ह़द में दाख़िल हो जाए और फ़र्ज़ कीजिए कि इज्तेमाअ़्‌ की सूरत में राए इ़स्मत तक पहुंच जाए तो ऐसी इ़स्मत दर्ज ज़ैल अस्बाब में से किसी एक से दु-चार होगी।

 

१. अगर ह़ल्ल-ओ-अ़क़्द के तमाम अफ़राद मअ़सूम हैं तो नतीजा में: उनका इज्तेमाअ़्‌ भी मक़ाम इ़स्मत का ह़ामिल होगा। लेकिन येह बात वाज़ेह-ओ-मअ़लूम है कि पैग़म्बर अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की वफ़ात से लेकर आज तक कोई ज़माना नहीं गुज़रा कि अफ़राद अह्ले ह़ल्ल-ओ-अ़क़्द मअ़्‌सूम हों और येह ऐसी बात है जिसे ख़ुद फ़ख़्रे राज़ी ने क़बूल किया है।

२. अगर येह कहें कि अफ़राद अह्ले ह़ल्ल-ओ-अ़क़्द, अगरचे इ़स्मत के ह़ामिल नहीं हैं लेकिन इज्तेमाअ़्‌ की सूरत में वोह तमाम अफ़राद मक़ामे इ़स्मत को पहुंच जाएंगे, इस मअ़्‌नी में कि इ़स्मत, अफ़राद की एक इज्तेमाई़ अन्जुमन के लिए है, न कि हर

एक फ़र्द के लिए। 

येह एह़्तेमाल भी बातिल है क्यूंकि इ़स्मत एक ह़क़ीक़ी उमूरे सेफ़ाते वाक़ई़ में से है, जब कि इज्तेमाई़ अन्जुमन एक ग़ैर ह़क़ीक़ी उ़न्वान से ज़्यादा कुछ नहीं और सिफ़ते ह़क़ीक़ी को उ़न्वाने ग़ैर ह़क़ीक़ी क़रार नहीं दिया जा सकता।

 

३. तीसरा एह़्तेमाल येह है कि हम कहें: सिफ़ते इ़स्मत, न तो वस्फ़े अफ़राद है और न ही वस्फ़े अन्जुमने इज्तेमाई, बल्कि सुन्नते ख़ुदावंद इस बात पर क़रार पाई है कि अह्ले ह़ल्ल-ओ-अ़क़्द की राए से जो नतीजा बरामद होता है, ख़ता और ग़लतियों

से मह़फ़ूज़ है। इस फ़र्ज़ में भी तीन एह़्तेमाल पाए जाते हैं:

(अ) पहला एह़्तेमाल येह कि हम कहें: येह सुन्नते ख़ुदा तमाम उम्मतों के लिए उ़मूमियत रखती है जब कि येह एह़्तेमाल ह़त्मी तौर पर बातिल है क्यूंकि बहुत सी राए बावजूद इत्तेफ़ाक़े राए के, उन में ग़लतियां पाई गई हैं।

(ब) दूसरा एह़्तेमाल येह कि इस सुन्नत को सिर्फ़ मुसलमानों के लिए मख़्सूस जानें। इस मअ़्‌नी में कि

हम कहें: ख़ुदावंद मुतआ़ल ने उम्मत पर एह़सान किया है और अह्ले ह़ल्ल-ओ-अ़क़्द की राए को ख़ता और इश्तेबाहात से मह़फ़ूज़ रखा है।

लेकिन येह एह़्तेमाल भी तारीख़ी वाक़ई़यतों और ह़क़ाएक़ के ख़ेलाफ़ है, क्यूंकि बहुत से अह्ले ह़ल्ल-ओ-अ़क़्द की राए उस उम्मत में बातिल क़रार पाई और अगर येह बात इस उम्मत में साबित भी होती तो उसे मोअ़्‌जेज़ा में शुमार करना चाहिए था, जब कि कोई भी सह़ीह़ दलील में उसकी तरफ़ बउ़न्वाने मोअ़्‌जेज़ा इशारा नहीं हुआ है।

(ज) तीसरा एह़्तेमाल येह कि हम कहें: जिन अफ़राद के लिए इस उम्मत में इ़स्मत है वोह फ़ारेक़ुल आ़द्दा और ग़ैर मअ़्‌मूली अम्र की तरफ़ नहीं पलटती, बल्कि उसका तअ़ल्लुक़ पैग़म्बर अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम के ज़रीए़ और तअ़्‌लीमाते इलाही के ज़रीए़ उनकी अच्छी तरबियत से है कि उन्हें इस मर्तबा तक पहुंचा दिया कि उनका इज्तेमाअ़्‌ मक़ामे इ़स्मत का ह़ामिल है।

येह एह़्तेमाल भी बातिल है क्यूंकि ऐसी सूरत में जब कि इस उम्मत का हर फ़र्द राए देने में ख़ता के एह़्तेमाल से मह़फ़ूज़ नहीं है तो किस तरह़ उनके इज्तेमाअ़्‌ को मअ़्‌सूम समझा जा सकता है? इस उम्मत के अह्ले ह़ल्ल-ओ-अ़क़्द की बहुत सी मजालिस तश्कील र्पाइं और उनके ज़रीए़ बातिल राए और नताएज बर आमद हुए।

 

फ़ख़्रे राज़ी के शुब्हात-ओ-एअ़्‌तेराज़ात

शीआ़ इमामिया ‘‘उलिल अम्र’’ को अह्लेबैत पैग़म्बर अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम में से अइम्मा को क़रार देते हैं और उनके अ़क़ीदे के मुताबिक़ हर ज़माना में उनमें का एक नफ़र ह़ुज्जत ख़ुदा होगा ज़मीन पर। लेकिन फ़ख़्र राज़ी ने शीओ़ं के इस नज़रिये पर एअ़्‌तेराज़ किया है यहां हम उन एअ़्‌तेराज़ात और उनके जवाब को नक़्ल कर रहे हैं।

पहला एअ़्‌तेराज़

लफ़्ज़ ‘‘उलिल अम्र’’ आयत में ‘‘मिन्कुम’’ के साथ मुक़य्यद है। यअ़्‌नी वोह लोग तुम्हारी जिन्स और सिंख़ से हैं। यअ़्‌नी उलिल अम्र एक आ़म इंसान की तरह़ हैं और इ़स्मत के ह़ामिल नहीं हैं, जब कि शीआ़ उलिल अम्र की हर फ़र्द की इ़स्मत के क़ाएल हैं।

जवाब:

आयत में लफ़्ज़े ‘‘मिन्कुम’’ इस बात को समझाने के लिए आया है कि ‘‘उलिल अम्र’’अगरचे मअ़्‌सूम हैं लेकिन जिन्से बशर में से हैं, न कि मलाएका की सिंख़ से क्यूंकि बअ़्‌ज़ आयतों के मुताबिक़ लोग एअ़्‌तेराज़ करते थे कि क्यूं पैग़म्बर खाना खाते हैं और बाज़ारों में घूमते फिरते हैं? गोया वोह लोग येह गुमान करते थे कि पैग़म्बर को जिन्से मलक में से होना चाहिए न कि जिन्से बशर में से। और इसी लिए क़ुरआन मजीद ने भी बहुत सी आयतों में इस बात की ताकीद की है कि पैग़म्बर तुम लोगों में से हैं (मिन्हुम) और अगर हम चाहते हैं कि इसको जिन्से मलाएका से क़रार दें तो इस ह़ाल में भी बशर की सूरत में बनाते हैं ताकि वोह तुम से मुसलसल राबेते में रहें।

(सूरए अन्आ़म (६): आयत ९)

 

दूसरा एअ़्‌तेराज़

लफ़्ज़े ‘उलिल अम्र’’ जमअ़्‌ है और ‘‘जमअ़्‌’’, अफ़राद के मअ़्‌नी पर दलालत करता है और येह मअ़्‌नी इमामिया अ़क़ीदा की राए पर मुन्तबिक़ नहीं होता क्यूंकि वोह लोग मोअ़्‌तक़िद हैं कि हर ज़माने में एक इमाम वजूद रखता है और जब कि आयत एक जमाअ़त की इताअ़त का ह़ुक्म देती है।

 

जवाब:

जो बात ज़ाहिर-ओ-मजाज़ के ख़ेलाफ़ है येह कि लफ़्ज़ ‘‘जमअ़्‌’’ को अफ़राद मफ़हूम में एक पर ह़म्ल करें जब कि आयए शरीफ़ा इस तरह़ की नहीं है क्यूंकि मस्लके इमामिया की राए के मुताबिक़ ‘‘उलिल अम्र’’ बारह इमाम मअ़्‌सूम हैं जिन की इताअ़त ह़ुक्मे ख़ुदा के मुताबिक़ वाजिब है और उन पर ‘‘जमअ़्‌’’ व इत्लाक़ इस एअ़्‌तेबार से नहीं है कि एक वक़्त में वोह सब मौजूद हैं बल्कि इस एअ़्‌तेबार से है कि कोई ज़माना इन बारह नफ़र से ख़ाली नहीं है। दूसरे लफ़्ज़ों में: उन पर जमअ़्‌ का इत्लाक़ वजूदे तूला (एक के बअ़्‌द एक) के लेहाज़ से है न कि अ़रज़ी (यकबारगी) और येह इत्लाक़ भी ह़क़ीक़ी है न कि मजाज़ी, और क़ुरआन मजीद में येह ज़्यादा इस्तेअ़्‌माल हुआ है।

ख़ुदावंद आ़लम का इर्शाद है: ‘‘फ़ला तुतेइ़लमुकज़्ज़ेबी-न’’ (सूरए क़लम (६८): आयत ८) झूठों की इताअ़त मत करो। आया इससे मुराद फ़क़त झूठे अफ़राद एक वक़्त में और एक ज़माने में हैं? या येह कि हर ज़माने में एक ही झूठा हो तो तुम को उसकी इताअ़त नहीं करना चाहिए।

 

तीसरा एअ़्‌तेराज़

मअ़सूम की इताअ़त शेनाख़्त की शर्त के साथ है जब कि मअ़्‌सूम की शेनाख़्त मोह़ाल है और नतीजा में तकलीफ़ ब मोह़ाल ‘‘(मोह़ाल पर अ़मल करना) जो कि बातिल है।

जवाब

मअ़्‌सूम इमाम वोह लोग हैं जो कि ख़ुदा और उसकेरसूल  जाfनब से  वाजेह़ और रोशन नुसूस-ओ-बयानात के ज़रीए़ पहचनवाए गए हैं और हर इंसाफ़ पसंद इंसान के लिए येह मुशख़्ख़स-ओ-मअ़्‌लूम है।

 

चौथा एअ़्‌तेराज़

ख़ुदावंद मुतआ़ल ने (सूरए निसा (४): आयत ५९) आयत उलिल अम्र में फ़रमाया:

फ़इन तनाज़अ़्‌तुम फ़ी शैइन फ़रुद्दूहो एलल्लाहे वर्रसूले 

पस अगर किसी चीज़ में तुम ने तनाज़अ़्‌ किया तो उसे ख़ुदा और रसूल की तरफ़ ले जाओ।

इस आयत में इख़्तेलाफ़-ओ-नेज़ाअ़्‌ के ह़ल का मर्जअ़्‌, ख़ुदा और रसूल को बताया गया है न कि उलिल अम्र को और येह दलील है इस बात की कि उलिल अम्र मक़ामे इ़स्मत का ह़ामिल नहीं है।

जवाब

१. येह इस बेना पर कि ह़क़्क़े तशरीअ़्‌ सिर्फ़ ख़ुदा और रसूल को है उलिल अम्र को नहीं। लेहाज़ा नेज़ाअ़्‌ के मौक़ों पर शरीअ़ते इस्लामी में उन दोनों से रुजूअ़्‌ किया जाए।

२. कभी इख़्तेलाफ़-ओ-नेज़ाअ़्‌ उलिल अम्र के मिस्दाक़ के बारे में हो तो ऐसी सूरत में इसके सिवा कोई चारा नहीं कि नेज़ाअ़्‌ के ह़ल के लिए ख़ुदा और रसूल से रुजूअ़्‌ किया जाए।

 

पाँचवां एअ़्‌तेराज़

हम इस ज़माना में, इमाम मअ़्‌सूम अ़लैहिस्सलाम तक रसाई से आ़जिज़ हैं लेहाज़ा उनसे अह़काम-ओमसाएल- ओ-मुआ़मलाते दीनी को ह़ासिल करना और उन पर अ़मल करना हमारे लिए मुमकिन नहीं है, जब कि आयत में ‘उलिल अम्र’ की इताअ़त वाजिब बताई गई है। नतीजे में ‘उलिल अम्र’ से मुराद शीओ़ं के अइम्मा नहीं हैं।

जवाब

इमाम अ़लैहिस्सलाम के ज़हूर के ज़माना में, उन तक रसाई मुमकिन है और इमाम की ग़ैबत के ज़माने में, अगरचे उनके ह़ुज़ूर की बरकतों से मह़रूम हैं, लेकिन दस्तूरात-ओ-अह़काम का मज्मूआ़ जो उन ह़जरात के ज़रीए़ हम तक पहुंचा है मौजूद है। और उन अह़काम की इताअ़त के ज़रीए दर ह़क़ीक़त अपने इमामे ज़माना अ़लैहिस्सलाम के दस्तूरात पर अ़मल किया है। ख़ास तौर से इस बात को मद्दे नज़र रखते हुए कि इमामे ज़माना अ़लैहिस्सलाम की ग़ैबत की एक वजह हम ख़ुद ही हैं। 

जिन लोगों ने आयत के नुज़ूल को अह्लेबैत की शान में बताया है:

मज़्मून के इख़्तेताम पर येह ज़रूरी समझते हैं कि उन उ़लमाए अह्ले सुन्नत का तज़्केरा किया जाए जिन्होंने अपनी किताबों में आयत उलिल अम्र की शाने नुज़ूल को अह्लेबैते इ़स्मत-ओ-तहारत के लिए बयान किया है। उन उ़लमा और उनकी किताबों के नाम दर्ज ज़ैल हैं:

/ इब्ने ह़य्यान अन्दलूसी ने अपनी किताब ‘‘अल बह़रुल मुह़ीत’’ जिल्द ३ सफ़हा २७८ पर नक़्ल किया है।

/ ह़ाकिम नेशापूरी ने अपनी तफ़्सीर में नक़्ल किया है। येह तफ़्‌सीर ‘‘जामेउ़ल बयान’’ जिल्द ५ सफ़हा २०८ के ह़ाशिया पर मुलाहेज़ा फ़रमाएं।

/ मोह़म्मद सालेह़ कश्फ़ी मुर्तज़वी ने ‘मनाक़िबुलमुर्तज़ा’’ सफ़हा ५६ पर तह़रीर फ़रमाया।

/ क़ुन्दूज़ी ह़नफ़ी ने यनाबीउ़ल मवद्दा सफ़ह़ात १३४ शवाहेदुत्तन्ज़ील’’ जिल्द १ सफ़हा १८९, ह़दीस नंबर २०२, २०३ और २०४.

/ फ़ख़्रे राज़ी ने ‘‘तफ़सीरे राज़ी’’ जिल्द ३ सफ़हा ३५७ पर तह़रीर किया।

/ ह़मवीनी (ह़मूई) ने ‘‘फ़राएदुस्समतैन’’ जिल्द १, सफ़हा ३१४.

 

ख़ुदाया! जिस वेलायत को तूने हमें अ़ता किया है उसको ज़िंदगी के आख़री लम्ह़ात तक और वक़्ते नज़ाअ़्‌ और आ़लमे बरज़ख़ के इब्तेदाई मराह़िल यअ़्‌नी मौत के बअ़्‌द क़ब्र में और फिर बरज़ख़ से ह़श्र तक और ह़श्र से ह़िसाब-ओ-किताब और कौसर-ओ-जन्नत तक साथ साथ रखना।

दुनिया में उलिल अम्र अह्लेबैते पैग़म्बर अकरम सल्लल्लाहो अ़लैहे व आलेही व सल्लम की वेलायत और आख़ेरत में उन ह़ज़रात अ़लैहिमुस्सलाम की शफ़ाअ़त से मह़रूम न करना।

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